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मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने विकास के साथ-साथ निर्धनता के संदर्भ में अपने जो विचार सामने रखे उससे उनके दृष्टिकोण पर नए सिरे से सवाल खड़े हो सकते हैं। कांग्रेस की ओर से पीएम पद के लिए उपयुक्त बताए जा रहे राहुल का यह कहना हैरान करने वाला है कि गरीब तबके और आदिवासियों के सम्मान की कीमत पर विकास नहीं होना चाहिए। उनके विचार से सड़कों का निर्माण इस उद्देश्य से नहीं किया जाना चाहिए कि उन पर चमचमाती कारें दौड़ें और निर्धन वर्ग खुद को अपमानित महसूस करे। क्या सड़कों का निर्माण यही सोचकर किया जाता है कि उनका इस्तेमाल गरीब जनता न कर सके? नि:संदेह भारत की जनता निर्धनता, कुपोषण, अभावों से जूझ रही है और यह प्रत्येक सरकार का कर्तव्य है कि इन समस्याओं के निराकरण के लिए प्राथमिकता के आधार पर काम करे, लेकिन यह कहना सही नहीं कि विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है उससे निर्धन वर्ग का अपमान हो रहा है। राहुल ने भाजपा की आलोचना करते हुए दावा किया किया कि राजग सरकार के दौरान केवल 2650 किमी सड़कों का निर्माण हो सका, जबकि नौ साल के संप्रग शासन में 19570 किमी सड़कें बनीं। सच्चाई यह है कि खुद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पेश एक हलफनामे में यह स्वीकार किया है कि 1997 से 2002 तक यानी राजग के शासन के दौरान 23814 किमी राजमार्ग का निर्माण हुआ। उनका यह दावा भी तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता कि मध्य प्रदेश बिजली के उत्पादन के मामले में बहुत पीछे है। मध्य प्रदेश उन गिने-चुने राज्यों में शामिल है जो बिजली की किल्लत से मुक्त है। 1 राहुल का यह कहना बिल्कुल सही है कि भूखे पेट विकास नहीं होता, लेकिन सच्चाई यह भी है कि विकास के बिना लोगों की भूख नहीं मिटाई जा सकती। उन्होंने खाद्य सुरक्षा कानून के लिए संप्रग सरकार को श्रेय देते हुए दावा किया कि इससे भुखमरी और कुपोषण की समस्या दूर हो जाएगी। बेहतर होता कि वह यह बता सकते कि इस कानून के निर्माण के कितने समय बाद भुखमरी और कुपोषण की समस्याएं दूर हो जाएंगी?
आजादी के बाद सबसे अधिक समय तक कांग्रेस ही केंद्र की सत्ता में रही और उसकी ओर से ऐसे कोई ठोस उपाय नहीं किए गए जिससे भुखमरी की समस्या का निदान होता। यह पहले से माना जा रहा था कि कांग्रेस खाद्य सुरक्षा कानून का इस्तेमाल चुनावी लाभ हासिल करने के लिए करेगी। मध्य प्रदेश की अपनी चुनावी सभाओं में राहुल ऐसा ही करते नजर आए, लेकिन शायद वह यह भूल गए कि केवल कानून बना देने से किसी समस्या का समाधान नहीं होता। ऐसा होता तो आज देश में कहीं कोई समस्या ही नहीं होती। कानून का असर तभी होता है जब व्यवस्थाएं ठीक हों और इसके लिए जमीनी हकीकत से अवगत होना आवश्यक है। राहुल को इसका अहसास होना चाहिए कि कोरे भाषण बदलाव नहीं ला सकते, बदलाव के लिए दूरदर्शिता की आवश्यकता होती है। राहुल कांग्रेस की उसी परिपाटी पर चल रहे हैं जिसके तहत गरीब के गरीब बने रहने में ही पार्टी अपना हित देखती रही है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर क्या कारण है कि आजादी से अब तक 45 साल तक केंद्र में राज करने के बावजूद कांग्रेस गरीबों का कल्याण नहीं कर सकी? अगर कांग्रेस को यह लगता है कि गरीबों को उनकी समस्याओं का अहसास कराकर वह उन्हें अपने साथ जोड़े रख सकती है तो यह उसकी भूल है। राहुल गांधी का मध्य प्रदेश को भ्रष्टाचार का विश्वविद्यालय बताना भी हास्यास्पद है। मध्य प्रदेश में भाजपा शासन को इस संज्ञा से नवाजने के पहले उन्हें केंद्र सरकार के घपले-घोटाले के अनगिनत मामलों पर भी एक निगाह डालनी चाहिए थी। आज अगर केंद्र सरकार पूरी तरह निष्क्रिय-निष्प्रभावी नजर आ रही है तो इसके पीछे एक बड़ी हद तक भ्रष्टाचार के मामले ही जिम्मेदार हैं। 1अपने देश में राजनेताओं की यह प्रवृत्ति सी बन गई है कि जब चुनाव करीब होते हैं तो वे किसानों, गरीबों, और आदिवासियों की समस्याओं का उल्लेख कर खुद को उनका सबसे बड़ा हितैषी सिद्ध करने में जुट जाते हैं। इस कोशिश में वे यह प्रचारित करने में भी संकोच नहीं करते कि जो विकास हो रहा है उससे सिर्फ मुट्ठी भर अमीर ही लाभान्वित हो रहे हैं और गरीबों को उनके हक से वंचित किया जा रहा है। इसके चलते गरीबों के मन में यह धारणा घर करती जा रही है कि विकास उनके हितों की कीमत पर हो रहा है। नक्सलवाद जैसी गंभीर समस्या के लिए एक हद तक ऐसी ही धारणा जिम्मेदार है। अगर इस तरह के चिंतन को रोका नहीं गया तो अमीर और गरीब के बीच की खाई और चौड़ी होगी। देश की सारी समस्याओं और भ्रष्टाचार का ठीकरा उद्योगपतियों और अमीरों के सिर फोड़ने से बात नहीं बनेगी।
राहुल और उनकी जैसी सोच वाले नेताओं को यह देखने की आवश्यकता है कि आजादी के बाद विकास के दम पर ही गरीबों की दशा में सुधार हो सका है। देश में जिस मध्यम वर्ग की प्रगति का जिक्र होता है वह विकास की ही देन है। यदि सरकार सही नीतियों पर अमल करे तो गरीबों को निर्धनता की जकड़न से मुक्त करने की प्रक्रिया को और अधिक तेज किया जा सकता है। यह निराशाजनक है कि राजनीतिक दलों की ओर से कुछ ऐसा आभास कराने की कोशिश की जाती है जैसे विकास की योजनाएं उद्योगपतियों के निजी फायदे के लिए चलाई जाती हैं। 1जब कभी आधारभूत ढांचे के विकास से जुड़ी योजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण की बात आती है तो यह दर्शाने की कोशिश की जाती है कि इससे उद्योगपतियों का निजी फायदा होने जा रहा है और वहां रहने वाले गरीबों को नुकसान होने जा रहा है। इसके चलते भी तमाम योजनाएं अधर में लटकी हुई हैं। क्या किसी ने सोचा है कि यदि जमीनें नहीं ली जाएंगी तो उद्योग कैसे लगेंगे और अगर उद्योग नहीं लगेंगे तो लोगों को रोजगार कैसे मिलेंगे? उद्योग जगत और निर्धन वर्ग को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की राजनीतिक दलों की यह कोशिश गरीब तबके को एक वोट बैंक बनाकर देखने की उनकी आदत का परिचायक है। राजनेता उद्योगपतियों की जिस कथित विलासिता का उदाहरण देकर गरीबों की भावनाओं को भड़काते हैं वे अपने निजी जीवन में उसी विलासिता में डूबे हुए हैं। निर्धन आबादी को भी यह समझने की जरूरत है कि वह मात्र सरकारी सहायता-रियायत के बलबूते अपने जीवन का सही तरह से निर्वाह नहीं कर सकती। उसे स्वावलंबी बनना ही होगा। सरकारी योजनाओं के जरिये अगर गरीब तबके के मन में यह आशा जगाई जाएगी कि वह इसी तरह घर बैठे अपना जीवन यापन अच्छे से करता रहेगा तो बात बनने वाली नहीं है। अगर हमारे नेता अपने भाषणों के जरिये अमीर-गरीब के बीच की खाई को बढ़ाते रहे तो जाति-मजहब आधारित राजनीति के चलते उत्पन्न हो रही समस्या से भी बड़ा संकट खड़ा हो सकता है। बेहतर हो कि चुनावी लाभ के लिए गरीबों के साथ-साथ देश को गुमराह करने से बचा जाए।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं
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