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देश को हैरान-परेशान करने वाली समस्याओं पर मुश्किल से मुंह खोलने वाले हमारे प्रधानमंत्री पिछले दिनों संसद के दोनों सदनों में बोले और खूब बोले। बोलते-बोलते वह यह भी बोल गए कि विपक्ष शोर मचाता है कि प्रधानमंत्री–हैं। इस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए सिर खपाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि सबको पता है कि उन्होंने किस शब्द का इस्तेमाल किया और इसके जवाब में राज्यसभा में नेता विपक्ष अरुण जेटली की ओर से क्या सुनने को मिला? बाद में सभापति ने प्रधानमंत्री और अरुण जेटली की ओर से बोले गए इन शब्दों को कार्यवाही से निकाल दिया, लेकिन इससे लोगों ने इस पर और ज्यादा गौर किया कि आखिर इन दोनों नेताओं ने कहा क्या था? वैसे भी वे टीवी चैनलों पर दर्जनों बार यह सुन चुके थे कि प्रधानमंत्री विपक्ष पर क्या तोहमत मढ़ रहे हैं और नेता विपक्ष ने किस तरह नोट-वोट कांड का जिक्र करके उनकी बोलती बंद करने की कोशिश की। चूंकि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में काफी गर्जन-तर्जन किया इसलिए उन्हें आक्रामक नेता के अवतार में भी देखने की कोशिश की गई। यह आक्रामकता अनावश्यक भी थी और अर्थहीन भी, क्योंकि वह बिगड़े आर्थिक हालात को बनाने का कोई भरोसा नहीं दिला सके। उन्होंने बिगड़ी आर्थिक स्थिति को लेकर बहाने ही बनाए। उनकी मानें तो देश की खस्ताहाल आर्थिक हालत के लिए उनके अलावा सारी दुनिया दोषी है। उनके हाव-भाव से ऐसा लग रहा था कि अगर मानसून संतोषजनक नहीं होता तो वह ईश्वर को भी दो-चार बातें सुना देते।
प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों पर यकीन करें तो अर्थव्यवस्था की हालत इसलिए पतली है, क्योंकि भारत के रिजर्व बैंक से लेकर अमेरिकी रिजर्व बैंक ने कुछ गड़बड़ की है और विपक्ष भी सहयोग नहीं कर रहा है। इसके अलावा कैग से लेकर सुप्रीम कोर्ट भी अड़ंगेबाजी कर रहा है। प्रधानमंत्री ने बिगड़े आर्थिक हालात से पल्ला झाड़ने के साथ-साथ भ्रष्टाचार से भी हाथ झटकने की कोशिश की। उनके हिसाब से अगर भ्रष्टाचार हो रहा है तो जांच एजेंसियां और अदालतें भी अपना काम कर रही हैं। उन्होंने जो नहीं बताया वह यह था कि किस तरह उनकी सरकार भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने और जांच को प्रभावित करने के लिए अतिरिक्त श्रम कर रही है। सबसे खराब बात यह है कि इस काम में वह खुद भी शामिल नजर आते हैं। क्या प्रधानमंत्री यह कह सकेंगे कि कोयला घोटाले की जांच रपट बदलवाने वाले अपने कार्यालय के संयुक्त सचिव से उनका कोई लेना-देना नहीं? वह यह क्यों नहीं बता रहे कि उनके कार्यालय के इस अफसर ने किसके कहने से कोयला घोटाले पर सीबीआइ की प्रारंभिक जांच रपट बदलवाई? अगर देश यह माने कि संयुक्त सचिव ने उनके इशारे पर ही जांच रपट से छेड़खानी की तो इसके लिए जनता को दोष नहीं दिया जाना चाहिए। 1प्रधानमंत्री खुद को ईमानदार और भ्रष्टाचार के खिलाफ बताने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनका आचरण इसके उलट तस्वीर पेश करता है। वह भ्रष्ट तत्वों के हिमायती और संरक्षक के रूप में उभर रहे हैं। वह अपने संयुक्त सचिव के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रहे हैं और जिन कानून मंत्री अश्विनी कुमार को इस्तीफा देना पड़ा था उन्हें उन्होंने अस्थाई रूप से ही सही, कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया। अश्विनी कुमार को जापानी सम्राट की आगामी भारत यात्र को सुगम बनाने का काम दिया गया है।
जापान के सम्राट को इस वर्ष के अंत तक भारत आना है। तब तक अश्विनी कुमार प्रधानमंत्री कार्यालय में कैबिनेट मंत्री की हैसियत से काम करेंगे। क्या अश्विनी कुमार भारत-जापान रिश्तों के विशेषज्ञ हैं? क्या जापान के सम्राट से उनके मधुर रिश्ते हैं। क्या उनकी सक्रियता के बगैर जापान सम्राट भारत दौरा स्थगित कर सकते हैं? क्या इसके पहले किसी अन्य देश के सम्राट के भारत दौरे पर किसी को कैबिनेट मंत्री की जिम्मेदारी दी गई है? अगर जापानी सम्राट के लिए किसी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देना जरूरी ही था तो क्या अश्विनी कुमार ही सबसे उपयुक्त थे? 1नि:संदेह ईमानदारी एक विशेष गुण है, लेकिन यह इतना भी विशिष्ट नहीं कि कोई दूसरों पर रौब झाड़ता फिरे। कम से कम ऐसे किसी शख्स की ओर से अपनी ईमानदारी की दुहाई देने का कोई मतलब नहीं जो भ्रष्टाचार से समझौता करते दिख रहा हो। भ्रष्टाचार केवल धन की हेराफेरी भर नहीं होता। भ्रष्ट तत्वों को प्रश्रय देना, उनके प्रति नरमी बरतना अथवा उनके खिलाफ होने वाली जांच को प्रभावित होने देने की गुंजाइश बनाए रखना भी भ्रष्ट आचरण है। वोट-नोट कांड पर प्रधानमंत्री ने देश को यह भरोसा दिलाया था कि मामले की तह तक पहुंचा जाएगा, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, लीपापोती की परत मोटी होती जा रही है। कोयला घोटाले से जुड़ी गुम फाइलों पर उन्होंने कहा कि वह उनके रखवाले नहीं। यह सही है, लेकिन जो इन फाइलों के रखवाले हैं उनकी जवाबदेही कौन लेगा? अगर इन फाइलों के गायब हो जाने पर प्रधानमंत्री, कोयला मंत्री, कोयला सचिव जवाबदेह नहीं तो क्या किसी क्लर्क या चपरासी की जवाबदेही बनती है? यह कितना हास्यास्पद है कि प्रधानमंत्री एक ओर खुद को पाक-साफ बताते हैं और दूसरी ओर उनकी उपस्थिति में उनका मंत्रिमंडल अपराधी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने और राजनीतिक दलों को सूचना अधिकार के दायरे में रखने वाले फैसलों को उलटने पर मुहर लगाता है। मनमोहन सिंह एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो किसी भी मामले में जिम्मेदारी नहीं लेते। वह बिगड़े आर्थिक हालात से लेकर बढ़ते भ्रष्टाचार तक से पल्ला झाड़ रहे हैं। इस पर गौर करें कि वह कितनी चतुराई से कभी वैश्विक हालात की आड़ लेते हैं, कभी विपक्ष की और कभी गठबंधन राजनीति की।
इस आलेख के लेखक राजीव सचान हैं
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
Web Title: indian politics
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