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कूटनीति पर गंभीर सवाल

संपादकीय ब्लॉग
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sanjay guptपाकिस्तान ने फिर वही किया जो वह हमेशा से करता आया है। जम्मू के पुंछ सेक्टर में पांच भारतीय सैनिकों की हत्या ने भारत का भरोसा तोड़ने के साथ ही पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने के प्रयासों को तगड़ा झटका दिया है। इसके पहले इसी वर्ष जनवरी में नियंत्रण रेखा पर दो भारतीय सैनिकों के साथ पाकिस्तानी सेना की बर्बरता का मामला सामने आया था। तब पाकिस्तानी सैनिक एक भारतीय सैनिक का सिर काटकर विजय प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गए थे। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान की ओर से बार-बार दिखाए जा रहे दुस्साहस ने पड़ोसी देशों के साथ मनमोहन सिंह की रणनीति-कूटनीति को सवालों के घेरे में ला दिया है। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में कमजोर देशों को दबाया जाता है, लेकिन भारत अपने पड़ोसियों के सामने जिस तरह बार-बार झुक रहा है उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। एक तरफ यह दावा किया जाता है कि भारत एक नाभिकीय शक्ति है और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए दावेदार भी और दूसरी ओर राष्ट्रीय सुरक्षा पर ढुलमुल रवैया अपनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में खुद को कमजोर साबित किया जा रहा है। पुंछ की घटना पर रक्षामंत्री एके एंटनी ने पहले संसद में जो बयान दिया वह तो पाकिस्तान को बच निकलने का मौका देने वाला था। जब संसद के साथ-साथ पूरे देश में इस बयान का विरोध हुआ तब जाकर केंद्र सरकार को यह अहसास हुआ कि उसने कितनी बड़ी गलती कर दी है। आखिरकार एंटनी ने अपना बयान बदला और पाकिस्तान को सख्त शब्दों में यह संदेश दिया कि वह भारत के संयम की परीक्षा न ले। ऐसा लगता है कि एंटनी का पहला बयान सितंबर में भारत-पाक के प्रधानमंत्रियों के बीच प्रस्तावित बातचीत को ध्यान में रखकर दिया गया था।

रक्षा सौदों पर गंभीर सवाल


भारत एक लंबे अर्से से रिश्ते सुधारने के नाम पर पाकिस्तान से नरमी बरत रहा है, लेकिन न तो इस नरमी का कोई नतीजा निकला और न ही बातचीत का। इसका एक कारण पाकिस्तान में निर्वाचित सरकार पर सेना का हावी होना है। पूरा विश्व इससे परिचित है कि पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार किस तरह सेना के साये में काम करती है। पाकिस्तानी सेना भारत के हाथों तीन युद्धों में मिली पराजय के अपमान में जल रही है और इसका बदला लेने के लिए वह आतंकवाद रूपी छद्म युद्ध का सहारा ले रही है। भारत इस छद्म युद्ध का जवाब नहीं दे पा रहा है। हमारे नीति-नियंता इससे अवगत हैं कि पाकिस्तानी सेना की शह पाकर ही आतंकी नियंत्रण रेखा पारकर भारत में घुसते हैं और आतंकी घटनाओं को अंजाम देते हैं, लेकिन हमारी सेना न तो इस घुसपैठ पर अंकुश लगा सकी है और न ही आतंकी घटनाओं पर। देश की जनता जानना चाहेगी कि आखिर भारत सरकार कब तक रिश्ते सामान्य करने के नाम पर पाकिस्तान के समक्ष घुटने टेकती रहेगी? कब तक हमारे जवान और नागरिक पाकिस्तान की नापाक हरकतों का शिकार बनते रहेंगे? यह सही है कि पड़ोसी देशों के साथ भारत के रिश्ते सामान्य होने चाहिए, लेकिन आखिर किस कीमत पर? क्या भारत सरकार के पास ऐसी कोई दीर्घकालिक रणनीति नहीं होनी चाहिए जिससे न केवल आतंकवाद पर लगाम लगे, बल्कि पाकिस्तान को यह अहसास भी हो सके कि आतंकवाद को बढ़ावा देना उसके लिए महंगा सौदा साबित होगा? अभी तो भारत सरकार के पास पाकिस्तान के संदर्भ में कोई स्पष्ट नीति ही नजर नहीं आती। इसी का परिणाम है कि पाकिस्तान सरकार और सेना जम्मू-कश्मीर के लोगों को बरगलाने में एक हद तक सफल है।

लूट सको तो लूट लो


पाकिस्तान सरकार अपने यहां यह दुष्प्रचार करती आई है कि भारत अपनी खुफिया एजेंसी रॉ के जरिये बलूचिस्तान और कुछ अन्य क्षेत्रों में अशांति फैला रहा है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उसके इस दावे पर भरोसा नहीं। इसके विपरीत अंतरराष्ट्रीय समुदाय इससे भलीभांति परिचित है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद सरीखे आतंकी संगठनों की मदद से भारत में आतंकी घटनाओं को अंजाम दे रही है। बावजूद इसके भारत सरकार पाकिस्तान को दबाव में ले पाने में नाकाम है। यह भी निराशाजनक है कि जो भारत सरकार यह कहती थी कि पाकिस्तान जब तक आतंकवाद को समर्थन-संरक्षण देना बंद नहीं करता तब तक उसके साथ कोई बातचीत नहीं की जा सकती वही अब रिश्ते सामान्य करने की धुन में आतंकवाद और यहां तक कि 26/11 के मसले को बातचीत के एजेंडे से हटाने पर सहमत हो जाती है। क्या वीजा रियायतें अथवा व्यापार समझौते इतने महत्वपूर्ण हैं कि आतंकवाद के मुद्दे को हाशिये पर रख दिया जाए? कुछ लोग इसे भारत का बड़प्पन कह सकते हैं, लेकिन सच यह है कि यह कूटनीति के सामान्य सिद्धांतों के भी खिलाफ है। नि:संदेह युद्ध कोई विकल्प नहीं है और उसके बारे में सोचा भी नहीं जाना चाहिए, लेकिन इसका कोई अर्थ नहीं कि भारत पाकिस्तान को कोई सख्त संदेश देने से भी परहेज करे।


ऐसा लगता है कि भारतीय कूटनीति में पाकिस्तान के लिए कोई बीच का ऐसा रास्ता है ही नहीं जिससे इस्लामाबाद को यह अहसास कराया जा सके कि उसे भारत के साथ रिश्ते सामान्य करने के लिए अपनी सेना पर लगाम लगानी ही होगी। पाकिस्तान को उन सभा-सम्मेलनों पर भी अंकुश लगाना होगा जहां भारत के खिलाफ खुल्लम-खुल्ला जहर उगला जाता है। क्या यह विचित्र नहीं कि आतंकी सरगना हाफिज सईद खुले आम भारत को धमकाता है और पाकिस्तान यह कहकर बच निकलता है कि वह कोई गलत काम नहीं कर रहा? पाकिस्तान को यह याद दिलाने की भी आवश्यकता है कि उसने पांच साल बीत जाने के बाद भी पुख्ता प्रमाणों के बावजूद मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है। आखिर यह भारत के साथ धोखाधड़ी नहीं तो और क्या है कि पाकिस्तान मुंबई हमले के गुनहगारों को कानून के कठघरे में खड़ा करने में आनाकानी कर रहा है? यह आश्चर्यजनक है कि मनमोहन सिंह सरकार इस सबके बावजूद रिश्ते सुधारने के नाम पर पाकिस्तान को एक के बाद एक रियायतें देती जा रही है। अब तो भारत सरकार को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि पाकिस्तान के संदर्भ में उसकी मौजूदा रणनीति उसकी अपनी है या कांग्रेस पार्टी की? यह सवाल इसलिए, क्योंकि पाकिस्तान के संदर्भ में सरकार और कांग्रेस के दृष्टिकोण में विरोधाभास नजर आता है। इस विरोधाभास की एक झलक नियंत्रण रेखा पर हुई ताजा घटना के सिलसिले में कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी की प्रतिक्रिया और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मौन के रूप में दिखाई दी।


मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल में लगातार यह कहते रहे हैं कि उनकी प्राथमिकता अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत का महत्व बढ़ाना है, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह इस प्राथमिकता को पूरा करने में सफल रहे हैं। पाकिस्तान के साथ-साथ चीन भी भारत को लगातार आंखें दिखाता रहता है और अब तो ऐसा लगता है कि पाकिस्तान और चीन मिलकर भारत को घेरना चाहते हैं। पता नहीं इन दोनों देशों के संदर्भ में भारत सरकार की रणनीति क्या है, लेकिन फिलहाल वह जिस रास्ते पर चलती नजर आ रही है उससे भारत की छवि एक कमजोर राष्ट्र के रूप में बनती जा रही है।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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