Menu
blogid : 133 postid : 572295

आतंक पर खतरनाक राजनीति

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

यह आश्चर्यजनक है कि बटला हाउस मुठभेड़ मामले में अदालत का फैसला आ जाने के बावजूद वे आवाजें अभी भी शांत नहीं हुई हैं जिनके तहत दिल्ली पुलिस की कार्रवाई पर सवाल खड़े करने के साथ ही राजनीतिक लाभ के लिए खुद को समुदाय विशेष का हितैषी सिद्ध करने की कोशिश की जाती रही है। यह इन्हीं आवाजों का असर है कि मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा यह मानने को तैयार नहीं हो रहा है कि सितंबर 2008 में दिल्ली के जामिया मिलिया इलाके में बटला हाउस में हुई मुठभेड़ असली थी। मुस्लिम समुदाय में संदेह के बीज बोने का काम देश के चंद राजनेताओं ने किया है, जिनमें आश्चर्यजनक रूप से ज्यादातर कांग्रेसी नेता हैं। यह तब है जब केंद्र सरकार का नेतृत्व कांग्रेस ही कर रही है। बटला हाउस में हुई मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस ने दो आतंकियों को मार गिराया था और इस कार्रवाई में उसके एक बहादुर इंस्पेक्टर को अपनी जान भी गंवानी पड़ी थी। प्रारंभ में सभी ने इस मुठभेड़ की सत्यता को स्वीकार किया, लेकिन जैसे ही राजनेताओं का बटला हाउस पहुंचने का सिलसिला कायम हुआ वैसे ही सवाल उठने शुरू हो गए। मुस्लिम समुदाय में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए कुछ नेताओं की ओर से मुठभेड़ को फर्जी बताने की होड़ लग गई। इन नेताओं में कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह अग्रणी थे। वह अदालत का फैसला आ जाने के बाद भी अपने पुराने रुख पर कायम हैं और मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस के एक अन्य बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने तो आजमगढ़ में एक चुनावी सभा में यहां तक कह डाला था कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी बटला हाउस मुठभेड़ के फोटो देखकर रो पड़ी थीं।

तस्वीर बदलने की कोशिश


जब देश के इतने बड़े नेता पुलिस की किसी कार्रवाई पर सवाल खड़े करते हैं तो मुस्लिम समुदाय के मन में संदेह के बीज उत्पन्न होना स्वाभाविक है। संभवत: यही कारण था कि बटला हाउस मुठभेड़ के असली होने या न होने के संदर्भ में अदालत के फैसले का सभी को इंतजार था। अदालत ने तमाम सुबूतों के आधार पर न केवल मुठभेड़ को असली ठहराया, बल्कि इंडियन मुजाहिदीन से जुड़े माने जा रहे आतंकी शहजाद को दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की हत्या का दोषी ठहराया। बावजूद इसके बटला हाउस इलाके और शहजाद के गांव के लोग अभी भी संतुष्ट नहीं हैं। आज अगर मुस्लिम समुदाय का ऐसा तबका अपने बीच के कुछ युवाओं की आतंकवाद में संलिप्तता को लेकर भ्रमित है तो इसके लिए राजनेताओं के अतिरिक्त और किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। ऐसे नेताओं में ताजा नाम जुड़ा है अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री रहमान खान का, जो यह कह रहे हैं कि मुस्लिम समाज यह मानता है कि इंडियन मुजाहिदीन नाम का कोई संगठन अस्तित्व में ही नहीं है। ऐसे नेताओं के इसी रवैये के कारण ही समाज का ध्रुवीकरण होता है और विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ता है। कहने को तो सभी यह कहते हैं कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता, लेकिन प्रत्येक आतंकी घटना को वे किसी न किसी मजहब से जोड़कर राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आते। चूंकि मुस्लिम समुदाय के मन में पुलिस और सुरक्षा बलों के अभियानों को लेकर संदेह के बीज कुछ ज्यादा ही बो दिए गए हैं इसलिए समुदाय के तमाम लोग ऐसी प्रत्येक कार्रवाई को संदेह की नजर से देखने लगे हैं।

केवल यमुना के लए नहीं


यह सही है कि पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ करने के आरोप लगते ही रहते हैं और इस तरह की प्रत्येक कार्रवाई की छानबीन आवश्यक होती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि राजनेता इसकी आड़ में समाज के ध्रुवीकरण की कोशिश करने लगें। अपने देश के कानूनों में पुलिस को यह अधिकार नहीं दिया गया कि वह किसी संदिग्ध अपराधी को मार गिराए, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि कई बार पुलिस को कानून अपने हाथ में लेना पड़ता है। इसका एक कारण यह भी है कि देश में न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल और धीमी है कि किसी अपराधी को दंडित करने में वर्षो लग जाते हैं। पुलिस की किसी संदिग्ध कार्रवाई पर जायज सवाल उठने ही चाहिए, लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए किया जाने वाला दुष्प्रचार कुल मिलाकर अपराधियों और आतंकी तत्वों का मनोबल ही बढ़ाता है।


बटला हाउस मुठभेड़ की तरह देश में इशरत जहां मुठभेड़ मामला भी चर्चा में है। इस मामले में भी चूंकि संदिग्ध आतंकी मुस्लिम समुदाय से संबंधित हैं इसलिए पुलिस की कार्रवाई के आधार पर सेक्युलरिज्म और सांप्रदायिकता की एक बहस छेड़ दी गई है। यह बहस पुलिस का मनोबल गिरा रही है। यह स्थिति उस देश के लिए किसी भी दृष्टि में शुभ संकेत नहीं जो आतंकवाद के गंभीर खतरे से जूझ रहा है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्य लंबे समय से अशांति का सामना कर रहे हैं, जबकि इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठनों ने पूरे देश में अपना जाल फैला लिया है। इस बात के भी पुख्ता प्रमाण हैं कि इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के साथ-साथ सीमा पार के आतंकी संगठनों और खासकर लश्करे तोइबा से मदद मिल रही है। इन स्थितियों में यदि पुलिस अथवा सुरक्षा बलों को आतंकवाद से निपटने की छूट नहीं दी जाएगी अथवा उनकी हर गतिविधि पर सवाल खड़े किए जाएंगे तो यह तय है कि आतंकवाद का सामना करना और अधिक कठिन होगा।


आतंकवाद देश के खिलाफ किसी युद्ध से कम नहीं है और इससे पूरी सख्ती से लड़ा जाना चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि पुलिस अथवा सुरक्षा बल मनमानी करते नजर आएं। इसी तरह यह भी सही नहीं कि पुलिस अथवा सुरक्षा बलों की हर कार्रवाई को संदेह की नजर से देखा जाए और उनका मनोबल गिराया जाए। दुर्भाग्य से अब पुलिस की प्रत्येक कार्रवाई पर सवाल खड़े करना और ऐसा करके अपने संकीर्ण स्वार्थो की पूर्ति करना एक चलन बन गया है। बटला हाउस मामले में अदालत के फैसले ने पुलिस की कार्रवाई पर मुहर लगाने के साथ ही यह भी साबित कर दिया कि राजनीतिक स्वार्थो के कारण समाज के ध्रुवीकरण और एक समुदाय विशेष के मन में जानबूझकर शक के बीज बोने की कोशिश की गई। जिन लोगों ने भी यह कोशिश की या अभी भी कर रहे हैं उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि वे देश को बांटने का गंभीर अपराध कर रहे हैं। आतंकवाद को नियंत्रित करने के लिए अब केवल यही आवश्यक नहीं है कि इसमें लिप्त लोगों के खिलाफ सख्त कानूनी प्रावधान हों, बल्कि उन लोगों पर भी अंकुश लगाने के कुछ उपाय किए जाएं जो आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीतिक बयानबाजी करते हैं और पुलिस के कामकाज में रोड़े अटकाने के साथ ही समाज को भ्रमित करने का काम करते हैं। ऐसे राजनेताओं पर कुछ न कुछ लगाम लगनी ही चाहिए जो किसी समुदाय को गुमराह कर देश को बारूद के ढेर पर बैठाने का काम कर रहे हैं।

इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


अंतिम सांसें गिनती एक समिति


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh