Menu
blogid : 133 postid : 2120

गर्म होती पतीली के मेढक

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

शनिवार 25 मई को छत्तीसगढ़ में नक्सलियों (Naxalite) ने जो कुछ किया वह दिल दहलाने वाला है और उसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले की संज्ञा देने में शायद ही किसी को आपत्ति हो। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेतृत्व को खत्म करने की नक्सलियों की हरकत वैसी ही है जैसे लिट्टे ने 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या करके की थी। छत्तीसगढ़ में दो शीर्ष नेताओं की हत्या से सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री और पक्ष-विपक्ष के अन्य नेताओं को क्षुब्ध होना स्वाभाविक है, लेकिन यह नक्सलियों की पहली ऐसी हरकत नहीं है जिसे लोकतंत्र पर हमले के रूप में परिभाषित किया जाए। वे पहले भी ऐसा कर चुके हैं। ठीक दो वर्ष पहले अप्रैल 2010 में छत्तीसगढ़ में ही नक्सलियों (Naxalite) ने जब राज्य पुलिस और मुख्यत: केंद्रीय रिजर्व पुलिस (सीआरपीएफ) के 75 जवानों की हत्या कर दी थी तब अगर हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने यह अहसास कर लिया होता कि यह भी लोकतंत्र पर हमला है तो शायद आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। विडंबना यह रही कि इन 75 जवानों की हत्या के आरोप में पकड़े गए नक्सली सबूतों के अभाव में छूट गए और किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं दिखी। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि नक्सलियों (Naxalite) ने पहली बार राजनेताओं पर इतना बड़ा हमला किया है, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि वे पहले भी विधायकों, सांसदों को निशाना बना चुके हैं। ज्यादातर नेता वही थे जो उनके खिलाफ लड़ रहे थे। पता नहीं तब किसी ने यह क्यों नहीं महसूस किया कि नक्सली (Naxalite) लोकतंत्र पर हमला कर रहे हैं? क्या शनिवार 25 मई का इंतजार किया जा रहा था?

कैसे मिटेगा नक्सलवाद ?


नक्सलियों (Naxalite) के खिलाफ राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को तभी चेत जाना चाहिए था जब उनके विभिन्न संगठनों ने खुद को एकजुट कर लिया था। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनने के बाद से कम से कम एक दर्जन बार यह कह चुके हैं कि नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है, लेकिन वह इस खतरे से लड़ने के लिए तैयार नहीं। मनमोहन सिंह अब भले यह कह रहे हों कि नक्सलियों (Naxalite) के आगे झुकेंगे नहीं, लेकिन कुछ समय पहले वह तब अपने गृहमंत्री चिदंबरम का बचाव नहीं कर सके थे जब कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने उन्हें अहंकारी, अड़ियल वगैरह करार दिया था। पार्टी और सरकार से समर्थन मिलता न देख कर चिदंबरम को न केवल अपने पैर पीछे खींचने पड़े थे, बल्कि यह सफाई भी देनी पड़ी थी कि ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ तो राज्यों का अभियान है। आज किसी के लिए भी यह जानना कठिन है कि यह ऑपरेशन किस हाल में है और अस्तित्व में है भी या नहीं? किसी को भी इस उम्मीद में नहीं रहना चाहिए कि नक्सलियों की ताजा करतूत के बाद केंद्र और राज्य सरकारें उनसे निपटने के लिए कोई ठोस कदम उठाने वाली हैं। वे मिलकर लड़ने, नक्सलियों (Naxalite) से न डरने और नक्सलवाद को केवल कानून-व्यवस्था का मामला न मानने की बातें करेंगी। ऐसी भी आवाजें सुनाई दे सकती हैं कि हम गोलियों का जवाब विकास से देंगे। ऐसी आवाजें इस तथ्य के बावजूद सुनाई देंगी कि ताकतवर हो चुके नक्सलियों के गढ़ में विकास की एक ईंट तक रखना मुश्किल है। आश्चर्य नहीं अगर अरुंधती राय सरीखे लोग नक्सलियों की तरफदारी करते भी सुनाई दें। इस सबके बीच किसी को पता नहीं चलेगा कि नक्सलियों से लड़ने के लिए क्या किया जा रहा है? यह भी तय मानिए कि नक्सलियों से निपटने के मामले में न तो नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों में कोई सहमति बनेगी और न ही इन राज्यों और केंद्र में। इसके चलते पुलिस और केंद्रीय बल के जवानों में भी तालमेल कायम नहीं हो पाएगा-ठीक वैसे ही जैसे पिछले तीन-चार सालों में नक्सलवाद (Naxalite) ग्रस्त राज्यों की बार-बार बैठक बुलाने के बाद भी कायम नहीं हो पाया है। यह स्वाभाविक है कि छत्तीसगढ़ की घटना के बाद सभी सुरक्षा में चूक का सवाल उठा रहे हैं। यह एक जायज सवाल है, लेकिन किसी को यह भी पूछना चाहिए कि अगर सुरक्षा में कहीं कोई कमी रह जाएगी तो क्या नक्सली सड़कों से गुजर रहे नेताओं-कार्यकर्ताओं को भूनकर रख देंगे? छत्तीसगढ़ कांग्रेस के दो बड़े नेताओं समेत कई अन्य लोगों की हत्या के बाद मुख्यमंत्री रमन सिंह को अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान कर दी गई, लेकिन इस सवाल का जवाब शायद ही सामने आए कि नेताओं की सुरक्षा में लगे पुलिस के जवानों के पास आधुनिक हथियार और पर्याप्त गोलियां क्यों नहीं थीं? इस सवाल पर छाए मौन के बारे में भी सोचें कि आखिर नक्सलियों (Naxalite) को एक से बढ़कर एक आधुनिक और घातक हथियार कहां से मिल रहे हैं। वे कहीं अधिक घातक क्षमता वाले विस्फोटक हासिल करने में भी समर्थ हैं, लेकिन कोई यह बताने वाला नहीं कि नक्सली (Naxalite) यह सब इतनी आसानी से कैसे जुटा ले रहे हैं? कांग्रेसी नेताओं की सुरक्षा में लगे कुछ जवान अंतिम सांस तक लड़े। क्या कोई यह भरोसा दिलाने को तैयार है कि ऐसे अप्रतिम साहसी जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा?


2010 में जब 75 सीआरपीएफ जवानों की हत्या पर देश भर में आक्रोश था तब हमारा राजनीतिक नेतृत्व संवेदना के चंद आंसू ढरकाकर शांत हो गया था। पता नहीं इस बार क्या होगा, लेकिन शायद आम जनता से ज्यादा नक्सली (Naxalite) यह अच्छी तरह जानते हैं कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व ढुलमुल है। अगर नक्सलियों (Naxalite) ने इस नेतृत्व को धीरे-धीरे गर्म होती पतीली में पड़े मेढक जैसा मान रखा है तो उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता। पतीली में पड़ा मेढक ताप बढ़ने से थोड़ा हिलेगा-डुलेगा जरूर, लेकिन उछल कर बाहर नहीं आएगा। इस पर गौर करें कि नक्सलियों की ताजा ‘आंच’ के बाद हमारे राजनीतिक नेतृत्व की प्रतिक्रिया बस थोड़ा हिलने-डुलने वाली ही है।


इस आलेख के लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


Tags: Indian Politics, UPA Government, Naxalism, Naxalite, Naxalism In India, naxalite, नक्सलवाद, नक्सली, राजनीति, भारतीय राजनीति

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh