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सुरक्षा के नाम पर मजाक

संपादकीय ब्लॉग
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CGM sirपिछले दिनों श्रीनगर के एक स्कूल के मैदान में क्रिकेट खिलाडि़यों के भेष में आए आतंकवादियों द्वारा अचानक किए गए हमले में सीआरपीएफ के पांच जवान शहीद हो गए, जबकि 15 जवान और तीन स्थानीय नागरिक घायल हो गए हैं। इसके बाद सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में दोनों हमलावर आतंकवादी भी मारे गए। एक अन्य घटना में अपने घायल साथियों के लिए रक्तदान कर लौट रहे सीआरपीएफ जवानों पर प्रदर्शनकारियों ने पत्थरबाजी शुरू कर दी। इस दौरान हिंसक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए सीआरपीएफ जवानों ने हवाई फायरिंग की और इसमें एक स्थानीय युवक की मौत हो गई। कश्मीर में इस तरह की घटना कोई पहली बार नहीं घटी है। ये घटनाएं यह बताती हैं कि वहां अभी सब कुछ सामान्य नहीं है। अलगाववादी ताकतें बार-बार हावी होने का प्रयास कर रही हैं और ये अकसर छोटा-मोटा लालच देकर, या धमकी देकर या फिर बरगलाकर लोगों को अपने ही खिलाफ कदम उठाने के लिए भी मजबूर कर रहे हैं। जाहिर है, उन्होंने साजिश करने से अभी हार नहीं मानी है। हैरत की बात यह है कि हमारी सरकार भी बार-बार जाने किस दबाव में आ जाती है कि ऐसे नियम और निर्देश जारी करने लगती है, जो कहीं से भी व्यावहारिक नहीं होते हैं।

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पिछले दिनों वहां सुरक्षाकर्मियों के लिए यह निर्देश जारी किया गया था कि वे प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए हथियार साथ न रखें। खुद अपने बचाव के उपाय के नाम पर भी उनके पास केवल एक डंडा होता है। सीआरपीएफ जवानों पर इस आतंकवादी हमले के बाद बार-बार यह बात कही गई कि उस समय वे जवान निहत्थे थे। केंद्रीय बलों की तो बात छोडि़ए, उस समय राज्य पुलिस के अधिकारियों ने भी दबी जबान से सरकार के इस आदेश की आलोचना की। इसकी आलोचना केवल इसलिए नहीं हो रही है कि यह जवानों की सुरक्षा की दृष्टि से घातक है, बल्कि सच तो यह है कि ऐसे किसी आदेश के रहते वहां जवानों के होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। इस तरह के आदेश न केवल जवानों, बल्कि स्थानीय जनता के भी हितों के विरुद्ध हैं। सरकार का तो कोई उद्देश्य इसके रहते हल नहीं ही हो सकता है। बुनियादी सवाल यह है कि वहां जवानों को आखिर तैनात किसलिए किया गया है? एक ऐसी जगह पर जो दशकों से उपद्रवग्रस्त हो और इसी उपद्रव के कारण वहां के तमाम मूल निवासी अपने घर-बाग छोड़ कर दूर जा बसे हों, दर-बदर होने को विवश हों, वहां आखिर सुरक्षा बलों की तैनाती की किसलिए गई है? इसीलिए न, वहां शांति की बहाली की जा सके! क्या ऐसे जवान आतंकवाद ग्रस्त क्षेत्र में कभी शांति की बहाली करने में सक्षम हो सकेंगे, जिनके पास कोई हथियार ही न हो? खास कर ऐसी स्थिति में जबकि जिन आतंकवादियों से उन्हें लड़ना हो, वे अत्याधुनिक हथियारों से लैस हों और उनकी हर तरह से मदद के लिए हमारे अपने देश के ही अलगाववादी तत्व भी लगातार तैयार हों। सुरक्षा बलों के सामने हमेशा यह चिंता भी होती है कि उन्हें कैसे भी विकट हमले के समय पहले आम नागरिकों को बचाना होता है। इसके लिए अपनी जान भी अक्सर जोखिम में डाल देते हैं। जबकि आतंकवादियों के सामने ऐसी कोई नैतिक बाध्यता तो होती नहीं है, बल्कि वे एक साथ सुरक्षाबलों के जवानों और आम जनता दोनों पर हमले बोलते हैं। तब हमारे जवान केवल लाठी के दम पर किसी की भी सुरक्षा किस तरह कर सकेंगे? यह तो सुरक्षा के नाम पर मजाक जैसी बात लगती है। इस जमीनी को सच्चाई को खूब ठीक से समझते हुए भी बार-बार जाने किस दबाव में झुठलाने की कोशिश की जाती है। जैसे ही सुरक्षाबलों के दम पर घाटी में आतंकवाद थोड़ा काबू पाया जाता है और मामला थोड़ा शांत होता है, अलगाववादी निरर्थक शोर-शराबा मचाकर सरकार पर दबाव बनाने लग जाते हैं। सरकार इस बात को ठीक से जानती है कि उनके इस तरह दबाव बनाने का कोई अर्थ नहीं है और यह भी कि इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। कभी वे बेवजह सुरक्षाबलों को बदनाम करने की कोशिश करते हैं और कभी खुद आतंकवादियों को शह देकर उन पर हमले करवाते हैं। उनकी सारी साजिशें केवल इसलिए होती हैं कि किसी तरह वहां सुरक्षा बलों को हटाया या उन्हें कमजोर किया जा सके। ताकि भोले-भाले और निहत्थे स्थानीय नागरिकों पर वे अपना दबाव बना सकें। इसके बावजूद सरकार उनके दबाव में आ जाती है और आखिरकार कोई न कोई ऐसा फैसला कर लेती है, या फिर ऐसा आदेश जारी कर देती है, जिससे उनके लिए काम करना बेहद मुश्किल हो जाता है। दूसरी तरफ, आतंकवादी जरा सी ढील मिलते ही नए सिरे से कई इलाकों में फैल जाते हैं।


यह उनके लिए काफी होता है और वे फिर से वारदातें करने लग जाते हैं। जम्मू-कश्मीर की सरकार किस हद तक अलगाववादियों के दबाव में है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां विधानसभा में संसद पर हमले के जिम्मेदार अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के भी खिलाफ बात की गई। वहां इसे जम्मू-कश्मीर की अस्मिता से जुड़ा मामला बताने की घिनौनी कोशिश भी गई। अलगाववादी वहां कभी सुरक्षा बलों के सही कामों के खिलाफ दुष्प्रचार करवाते हैं तो कभी उनके खिलाफ बंद का आयोजन करने लगते हैं और कभी भाड़े की पत्थरबाजी शुरू करवा देते हैं। न चाहते हुए भी भय और दबाव के कारण कुछ स्थानीय नागरिकों को ऐसे कामों में उनका साथ देना पड़ता है। उनका यह खेल तब रोका नहीं जा सकेगा, जब तक कि उन पर पूरी सख्ती न बरती जाए। जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद को पूरी तरह खत्म करने और वहां शांति कायम करने के लिए यह आवश्यक है कि सुरक्षा बलों को जरूरी सुविधाओं से लैस किया जाए। उन्हें सभी जरूरी अधिकार दिए जाएं और वहां पूरी सख्ती तब तक जारी रखी जाए, जब तक हालात पूरी तरह सामान्य नहीं हो जाते हैं। जाहिर है, ऐसी स्थिति में सुरक्षा बलों की उचित कार्रवाइयों के खिलाफ दुष्प्रचार की पूरी साजिश अलगाववादी करेंगे। वे राज्य और केंद्र सरकार पर बार-बार इस बात के लिए दबाव बनाने की कोशिश भी करेंगे कि वहां से सुरक्षा बलों को हटाया जाए। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। जम्मू-कश्मीर के आम नागरिक उसी तरह भारतीय होने पर गर्व करते हैं, जैसे कि देश के अन्य हिस्सों के। ऐसी स्थिति में अलगाववादियों के किसी प्रकार के दबाव में आने या उनकी कोई बात मानने का औचित्य नहीं है। लिहाजा, सरकार को उनकी चिंता पूरी तरह छोड़ देनी चाहिए। हमें परवाह उन करोड़ों लोगों की इच्छाओं की करनी चाहिए जो जम्मू-कश्मीर में शांति चाहते हैं और शांति बहाली के सरकार के सभी प्रयासों में उसके साथ खड़े हैं, न कि मुट्ठी भर अलगाववादियों की हैं !


इस आलेख के लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण में स्थानीय संपादक हैं


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जम्मू-कश्मीर, अलगाववादियों, आतंकवादियों, श्रीनगर

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