Menu
blogid : 133 postid : 2094

पुलिस की सोच का सवाल

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

CGM sirहमारे देश में आम आदमी को सुरक्षित और भयमुक्त समाज देने का वादा तो सभी राजनीतिक पार्टियां करती हैं, लेकिन वास्तव में वे अपने इस वादे पर कितनी खरी उतरती हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों पंजाब में अपने साथ हुई बदसलूकी की शिकायत करने वाली एक लड़की को खुद ही पुलिस के हाथों पिटना पड़ा। केवल लड़की ही नहीं, बल्कि सेना से रिटायर उसके बुजुर्ग पिता को भी पुलिस ने सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। यह घटना पंजाब के तरनतारन जिले की है। वहां एक विवाह समारोह में शामिल होने गई लड़की के साथ कुछ टैक्सी चालकों ने छेड़छाड़ की थी। जाहिर है, उसने पुलिस से शिकायत इस भरोसे के साथ की थी कि उसे न्याय मिलेगा तथा समाज के अराजक तत्व भविष्य में उसके आसपास की किसी दूसरी लड़की के साथ भी ऐसी हरकत करने का दुस्साहस नहीं करेंगे। हालांकि हुआ इसका उलटा। घटना की रपट तक तब दर्ज की गई, जब मीडिया ने इस मामले को निर्भीकता से उठाया और यह घटना राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बन गई। स्थानीय लोग इस घटना के विरोध में सड़कों पर उतर आए और संसद के भी दोनों सदनों में हंगामा हो गया।

Read:मुश्किलें बढ़ाती राजनीति


क्या यही किसी समाज के भयमुक्त होने की पहचान है? घटना की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने तुरंत इस मामले का संज्ञान लिया। आयोग के वाइस चेयरमैन डॉ. राजकुमार वेरका ने पुलिस अधिकारियों को तलब किया। बाद में वे खुद भी लड़की के गांव उसमा पहुंचे और उसका बयान दर्ज किया। लड़की के पिता और भाई ने अपने जख्म दिखाते हुए उन्हें आपबीती सुनाई। डॉ. वेरका ने कहा कि संबंधित एसएचओ को लाइनहाजिर करने के अलावा जिम्मेदार मुलाजिमों के खिलाफ क्रिमिनल प्रोसीडिंग शुरू की जानी चाहिए। अब उस लड़की को न्याय दिलाने का दावा तो सभी कर रहे हैं, लेकिन अभी तक गिरफ्तारी किसी की भी नहीं हुई है। केवल दो पुलिसकर्मियों को सस्पेंड कर दिया गया है, जबकि मामले में शामिल आठ पुलिसकर्मी थे। सड़क से लेकर संसद तक हुए इतने सारे बवाल के बाद अभी तक केस केवल दो टैक्सी ड्राइवरों के खिलाफ दर्ज हुआ है। मामले की मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश भी पंजाब सरकार की ओर से दे दिए गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया है। कोर्ट ने पिटाई के इस मामले को मानवाधिकारों और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन माना है। न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने तरनतारन की इस घटना और पटना में संविदा शिक्षकों पर लाठीचार्ज के मामले का अखबारों में आई खबरों के आधार पर संज्ञान लेते हुए अपने आदेश में कहा है कि इन दोनों घटनाओं ने पूरे राष्ट्र की आत्मा को झकझोर दिया है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि दोनों राज्यों के प्रशासन ने इस अनुचित कार्रवाई से लोगों को बचाने के उपाय नहीं किए।

Read:कुश्ती की उपेक्षा क्यों


ये घटनाएं व्यक्ति के सम्मान और संविधान के अनुच्छेद 21 में मिले जीवन के अधिकार का संवैधानिक मुद्दा उठाती हैं। आश्चर्य की बात है कि जिन घटनाओं का सर्वोच्च न्यायालय जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था अखबारों में छपी खबरों के आधार पर संज्ञान लेती है, उनकी गंभीरता को न तो संबंधित राज्यों के उच्चाधिकारी समझते हैं और न ही सरकार। त्वरित कार्रवाई के नाम पर सभी एक-दूसरे को बचाने और घटना की लीपापोती में जुट जाते हैं। अक्सर ऐसे मामलों में तथ्यों से छेड़छाड़ भी कर दी जाती है, जो आगे चलकर न्याय में अनावश्यक विलंब का कारण बनती है। पंजाब के तरनतारन जिले का उसमा गांव आजकल राजनीति का अखाड़ा भी बना हुआ है। विरोधी दलों के कई नेताओं ने गांव में पहंुच कर पीडि़त पक्ष को न्याय दिलाने का आश्वासन दिया। उन्होंने पुलिस के जिम्मेदार मुलाजिमों और दोषियों के खिलाफ तुरंत सख्त कार्रवाई की मांग भी की। इसमें कोई हैरत की बात नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में अब यह एक रस्म सी हो चुकी है और आम आदमी इसे अच्छी तरह समझता भी है। जहां जिस पार्टी की सरकार होती है, वहां उसे कहीं कुछ भी गलत होता दिखाई नहीं देता। जब तक जिसकी सरकार होती है, तब तक आम आदमी का दर्द किसी को भी दिखाई-सुनाई नहीं देता है और वही पार्टी जब सत्ता से बाहर हो जाती है तो उसे हर तरफ अनाचार और अत्याचार दिखाई देने लग जाता है। कुर्सी से उतरते ही हर नेता आम आदमी के दुख-दर्द को बड़ी शिद्दत से महसूस करने लग जाता है। काश, आम आदमी से ऐसी ही सहानुभूति वह सत्ता में रहते हुए महसूस कर पाता! अगर सत्ता में रहते हुए राजनेता आम आदमी से ऐसी सहानुभूति का अनुभव कर पाते तो निश्चित रूप से देश में आम आदमी की ऐसी दुर्दशा नहीं होने पाती। तब न तो पुलिस को ऐसे अत्याचार का साहस होता और न प्रशासन में बैठे लोगों को बेहिसाब भ्रष्टाचार का। पुलिस और प्रशासन में बैठे लोग अगर जनता की बात आसानी से सुन लेते तो शायद सिटिजन चार्टर लाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। लेकिन, दुर्भाग्य से आजादी के छह दशक से अधिक बीत जाने के बावजूद अभी तक हमारे देश में ऐसा कहीं भी संभव नहीं हो पाया है। इस लोकतंत्र में पुलिस और प्रशासन अब भी अंग्रेजी शासनकाल की मानसिकता में जीने के आदी हैं। इसी का नतीजा है कि जिन मामलों में कोर्ट को फैसला देने में दशकों लग जाते हैं, उन्हीं मामलों को पुलिस अपने ढंग से पांच मिनट में निपटा देती है। वह सुनवाई और फैसले के झमेले में नहीं पड़ती, सीधे सजा ही दे डालती है। सच तो यह है कि भारत के किसी एक राज्य की पुलिस का हाल नहीं है। देश के हर राज्य की पुलिस अभी इसी मानसिकता के तहत काम कर रही है। वह अपना काम आम जनता को सुरक्षा देना और उसे भयमुक्त करना नहीं, बल्कि उस पर शासन करना और उसे सबक सिखाना मानती है। यह स्थिति तब तक बनी ही रहेगी, जब तक कि पुलिस और प्रशासन को सही अर्थो में जनता के प्रति जवाबदेह नहीं बनाया जाता। लेकिन वास्तविकता यह है कि पुलिस और प्रशासन में सुधार के लिए वर्षो पहले की गई सिफारिशों की फाइलें आज तक धूल फांक रही हैं। राज्यों और केंद्र में आई किसी भी सरकार ने इन पर अमल तो दूर, ढंग से विचार करने का कष्ट भी नहीं उठाया। क्या ऐसे ही हमारे देश में लोकतांत्रिक सोच का विकास होगा? ध्यान रहे, लोकतंत्र केवल एक शासन पद्धति नहीं, बल्कि अपने मूल रूप में एक विचार और संस्कार है। यह संस्कार शासन और प्रशासन को स्वयं अपने भीतर विकसित करना होगा। जब तक यह संस्कार विकसित नहीं हो जाता, तब तक आम जनता ऐसे ही दुख और अपमान के साथ-साथ पुलिस की पिटाई झेलने के लिए विवश रहेगी।

इस  आलेख के लेखक निशिकांत ठाकुर हैं


लूट सको तो लूट लो


Tags:लोकतंत्र , शासन और प्रशासन, समाज , राज्यों और केंद्र

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh