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मुश्किलें बढ़ाती राजनीति

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay guptहैदराबाद में एक के बाद एक दो बम धमाकों ने आंतरिक सुरक्षा के ढांचे की कमजोरियों को एक बार फिर सामने ला दिया है। इन धमाकों ने न केवल 16 लोगों की जान ले ली, बल्कि करीब सौ लोगों को घायल भी कर दिया। हैदराबाद की घटना इसलिए और चिंतित करने वाली है, क्योंकि केंद्रीय गृहमंत्री की ओर से तत्काल ही यह दावा किया गया कि इस तरह की आतंकी वारदात होने के संदर्भ में आंध्र सरकार को पहले ही सूचना दे दी गई थी। यद्यपि चौतरफा घिरने के बाद सुशील कुमार शिंदे ने संसद में यह कहा कि जो सूचना दी गई थी वह एक सामान्य अलर्ट था, लेकिन कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि एक बार फिर न केवल खुफिया तंत्र असफल सिद्ध हुआ, बल्कि सुरक्षा तंत्र भी। यदि खुफिया विभाग के पास आतंकियों के मंसूबों को लेकर वास्तव में कोई पुख्ता सूचना थी और उस सूचना से राज्य सरकार को अवगत भी करा दिया गया था तो फिर देश जानना चाहेगा कि सुरक्षा एजेंसियां उस पर समय रहते कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर सकीं? अगर खुफिया एजेंसियों को इस आतंकी वारदात की कहीं कोई भनक नहीं लगी तो सवाल यह उठेगा कि वे कर क्या रही थीं? अब तो ऐसा लगता है कि आतंकी संगठन तो नित नए हथकंडे अपनाकर अपने दुस्साहस का परिचय देते जा रहे हैं, लेकिन सुरक्षा और खुफिया एजेंसियां अपने पुराने ढर्रे पर ही काम कर रही हैं। आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन के एक आतंकी से पूछताछ के दौरान दिल्ली पुलिस को यह जानकारी मिली थी कि हैदराबाद में आतंकी घटना को अंजाम देने की साजिश रची जा रही है, लेकिन यह अफसोस की बात है कि इस जानकारी पर सुरक्षा एजेंसियां समय रहते आवश्यक कदम नहीं उठा सकीं।


सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी पर न केवल गंभीर चिंतन-मनन होना चाहिए, बल्कि यह भी सामने आना चाहिए कि आखिर किस स्तर पर ऐसी लापरवाही का परिचय दिया गया जिससे आतंकी तत्व फिर अपने मकसद में कामयाब हो गए? यह विचित्र है कि खुफिया तंत्र को आतंकियों के इरादों के संदर्भ में सूचना तो मिल जाती है, लेकिन उसका कोई लाभ नहीं मिल पाता। ऐसा शायद इसलिए होता है, क्योंकि सुरक्षा के छिद्रों को बंद करने में पर्याप्त सक्रियता का परिचय नहीं दिया जाता। इस नाकामी का एक बड़ा कारण खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के बीच तालमेल का अभाव तो है ही, विभिन्न राज्यों की पुलिस के बीच समन्वय की कमी भी है। समन्वय का यह अभाव तो कभी-कभी राज्यों के आतंकवाद रोधी दस्तों और केंद्रीय एजेंसियों के बीच तनातनी के रूप में भी सामने आता है। समस्या इसलिए अधिक गंभीर है, क्योंकि आतंकवाद जैसी चुनौती पर केंद्रीय सत्ता और राज्य सरकारें आवश्यक तालमेल का परिचय नहीं दे रही हैं। राज्यों का जोर इस पर है कि कानून एवं व्यवस्था उनके अधिकार क्षेत्र का विषय है और वे पुलिस पर अपने नियंत्रण को किसी भी रूप में कमजोर नहीं होने दे सकते। परिणाम यह है कि सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने के लिए जैसे एकीकृत प्रयास होने चाहिए वैसे नहीं हो पा रहे हैं।


नि:संदेह भारत का अपना एक संघीय स्वरूप है और राज्यों को अनेक विशिष्ट अधिकार हासिल हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सुरक्षा जैसे विषय पर भी राज्यों को मनमानी करने दी जाए, भले ही इसके चलते राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ जाए। आजादी के बाद जब संविधान तैयार किया गया तब संभवत: आतंकवाद जैसे खतरे की कल्पना नहीं की गई थी। आजादी के बाद संविधान निर्माताओं के सामने यह चुनौती थी कि तमाम विभिन्नताओं और अलग-अलग संस्कृति वाले इस देश को कैसे एकजुट रखा जाए। संघीय ढांचे का स्वरूप इसीलिए तय किया गया ताकि अलग-अलग संस्कृति वाले राज्यों को एक-दूसरे के साथ जुड़ने में असुविधा न हो। अब परिस्थितियां बहुत बदल गई हैं। वर्तमान में बड़ी संख्या में देश के नागरिक अन्य राज्यों में रोजगार के लिए जा रहे हैं। ऐसे में संघीय ढांचे का ऐसा कोई मतलब नहीं हो सकता कि आंतरिक सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दे पर केंद्र और राज्यों के बीच विभाजन रेखा खिंची रहे। बेहतर हो कि हमारे नीति-नियंता इस पर विचार करें कि आतंकवाद सरीखी समस्याओं से निपटने के लिए कैसे कोई वैसा एकीकृत ढांचा बने जैसा कई लोकतांत्रिक देशों में बना हुआ है और जो सफलतापूर्वक काम भी कर रहा है।


इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि आतंकवाद का खतरा इसलिए भी गंभीर होता जा रहा है, क्योंकि राज्यों द्वारा अपने अधिकारों के नाम पर संकीर्ण राजनीतिक हितों को भी तरजीह दी जा रही है। कई राज्यों में तो सत्तारूढ़ दल का नेतृत्व रजवाड़ों की तरह व्यवहार कर रहा है। वह पुलिस का इस्तेमाल भी निजी जागीर की तरह करना चाहता है। इसी के चलते राष्ट्रीय आतंकवाद रोधी केंद्र यानी एनसीटीसी अस्तित्व में नहीं आ पा रहा है। एनसीटीसी को आतंकवाद से मुकाबले के लिए एक कारगर उपाय के रूप में देखा जा रहा है। अधिकांश सुरक्षा विशेषज्ञों की नजर में ऐसा कोई केंद्र बहुत पहले अस्तित्व में आ जाना चाहिए था, लेकिन राज्यों को लगता है कि इस केंद्र के बहाने केंद्रीय सत्ता उनके अधिकारों में दखल देना चाहती है। जहां यह आवश्यक है कि राज्यों को उनकी निराधार आपत्तिायों के बहाने एनसीटीसी की राह का रोड़ा नहीं बनने देना चाहिए वहीं यह भी जरूरी है कि केंद्र उनकी जायज चिंताओं का निराकरण करे। यह भी ठीक नहीं कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर केंद्र राज्यों से सलाह लिए बगैर एक के बाद एक संस्थाएं गठित करता रहे।


हैदराबाद में धमाकों के बाद एक बार फिर एनसीटीसी की आवश्यकता रेखांकित की जा रही है। इस संदर्भ में जहां गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने राज्यों की आपत्तिदूर करने की पेशकश की है वहीं विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की ओर से यह संकेत दिया गया है कि आम सहमति के बिना भी एनसीटीसी के गठन की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। देखना यह है कि ऐसा वास्तव में हो पाता है या नहीं, क्योंकि अपने देश में अक्सर नीतियों पर राजनीति हावी हो जाती है। कई बार उन मुद्दों पर भी आम सहमति नहीं बन पाती जो सीधे-सीधे राष्ट्रीय हितों से जुड़े होते हैं। पता नहीं क्यों राजनीतिक वर्ग यह समझने से इन्कार कर रहा है कि चाहे सुरक्षा का मसला हो अथवा आर्थिक नीतियों का, यदि राष्ट्रीय हितों को तरजीह देने के बजाय राजनीतिक स्वार्थो का संधान किया जाता रहेगा तो इसके परिणाम देश के लिए अनिष्टकारी ही होंगे। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वस्तु एवं सेवा कर अर्थात जीएसटी और प्रत्यक्ष कर संहिता यानी डीटीसी आम सहमति के अभाव में अर्थात राज्यों की आपत्तिके कारण एक लंबे समय से अटके हैं। नक्सलवाद पर नियंत्रण के मामले में भी राज्यों और केंद्र में मतभेद कायम हैं।


इसका कोई मतलब नहीं कि राष्ट्रीय समस्याओं पर केवल केंद्र की सत्ता का संचालन करने वाला दल ही चिंतित-सचेत नजर आए और राज्य सरकारें कुल मिलाकर केंद्र की पहल पर अड़ंगे लगाने का काम करें। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक के बाद एक ऐसे मसले सामने आ रहे हैं जो यह बताते हैं कि राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति राज्यों का रुख असहयोग वाला है। राज्यों के इस रवैये के कारण ही विभिन्न समस्याओं के समाधान में देरी हो रही है। इसमें संदेह नहीं कि इस देरी के दुष्परिणाम देश को भोगने पड़ रहे हैं। कम से कम राष्ट्र हित के मुद्दों पर तो राजनीतिक दलों को दलगत मतभेदों से ऊपर उठना ही चाहिए।


संजय गुप्त दैनिक जागरण के संपादक हैं


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