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भरोसा तोड़ने वाली राजनीति

संपादकीय ब्लॉग
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sajay jiiiiiiiरिटेल कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश विरोधी प्रस्ताव पर जिस तरह कुछ राजनीतिक दलों ने बहिर्गमन का सहारा लेकर लोकसभा और फिर राज्यसभा के संख्याबल को प्रभावित किया, कुछ वैसा ही अनुसूचित जातियों-जनजातियों के सरकारी कर्मचारियों की पदोन्नति में आरक्षण के मामले में भी होता दिख रहा है। बहुत संभव है कि सोमवार को राज्यसभा में पदोन्नति में आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन विधेयक पर बहस और वोटिंग के दौरान समाजवादी पार्टी के सदस्य या तो सदन से बहिर्गमन कर जाएं या फिर उन्हें किसी नियम या फिर मार्शल के जरिये बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए। इसके आसार इसलिए नजर आ रहे हैं, क्योंकि विधेयक पेश किए जाते समय ऐसा हो चुका है। गुरुवार को राज्यसभा में उक्त विधेयक जैसे ही लाया गया वैसे ही सपा सदस्यों ने हंगामा करना शुरू कर दिया।इस पर उपसभापति ने मार्शल बुला लिए। बाद में उन्होंने नियम-255 के तहत सपा के दो सदस्यों को सदन से बाहर निकालने का फरमान सुना दिया। इसके विरोध में बाकी सपा सदस्य भी बाहर चले गए। यही कहानी फिर दोहराई जा सकती है, क्योंकि सपा इस विधेयक को किसी भी सूरत में पारित होते हुए नहीं देखना चाहती। दूसरी ओर बसपा हर हाल में इस विधेयक को पारित कराने पर अड़ी है। यह साफ नजर आ रहा है कि सरकार बसपा के समक्ष नतमस्तक है। पता नहीं सच क्या है, लेकिन माना यह जा रहा है कि सपा इस विधेयक के विरोध में तो है, लेकिन वह उसके पारित होने में बाधक भी नहीं बनना चाहती और इसीलिए वह बहस और वोटिंग में शामिल होने के बजाय हंगामा, बहिर्गमन के रास्ते पर चल रही है।


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यह धारणा सच भी हो सकती है, क्योंकि रिटेल कारोबार में एफडीआइ विरोधी प्रस्ताव के दौरान सबने देखा-सुना कि जो सपा खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों के आगमन को खतरनाक बता रही थी और गांधी-लोहिया का उल्लेख कर सरकार को यह समझाने में लगी थी कि वह अपने फैसले से पीछे हट जाए उसी ने बाद में वह सब कुछ किया जिससे एफडीआइ विरोधी प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में गिर जाए। अंतत: ऐसा ही हुआ। रिटेल एफडीआइ विरोधी प्रस्ताव पर सपा जैसा रवैया बसपा का भी रहा। उसने लोकसभा में बहिर्गमन किया तो राज्यसभा में सरकार का साथ दिया। हास्यास्पद यह रहा है कि बाद में दोनों दलों ने एक-दूसरे को जमकर कोसा। आखिर यह कौन सी राजनीति है। दुर्भाग्य से अब ऐसी राजनीति आए दिन देखने को मिलती है। इस तरह की राजनीति संसदीय गरिमा और लोकतांत्रिक मूल्य-मर्यादा के खिलाफ तो है ही, जनता को भरमाने वाली भी है। विडंबना यह है कि इस तरह की राजनीति करने वाले दलों की संख्या बढ़ती चली जा रही है।



रिटेल एफडीआइ का द्रमुक ने विरोध तो किया, लेकिन जब वोटिंग की बारी आई तो वह सरकार के साथ खड़ी दिखी। इसके पहले सभी राजनीतिक दलों ने लोकपाल विधेयक के प्रावधानों को तो अपनी सहमति प्रदान कर दी, लेकिन जब विधेयक पारित कराने की बारी आई तो करीब-करीब सभी ने यह जतन किया कि वह पारित न होने पाए। यदि अनुसूचित जातियों-जनजातियों के सरकारी कर्मचारियों की पदोन्नति में आरक्षण संबंधी विधेयक के दौरान सपा अपने समर्थकों को खास संदेश देने की खातिर विरोध का प्रदर्शन भर करती है और बहस-वोटिंग में हिस्सा न लेकर सरकार का काम आसान कर देती है तो यह और विचित्र होगा, क्योंकि यह एक संविधान संशोधन विधेयक है। ऐसे विधेयकों के दौरान तो अनिवार्य रूप से वोट के जरिये यह स्पष्ट होना चाहिए कि कौन राजनीतिक दल किस तरफ है? आखिर राजनीतिक दलों को यह साधारण सी बात क्यों नहीं समझ आती कि लोकतंत्र संख्याबल का खेल है और उन्हें बहुमत का सम्मान करना ही होगा? यदि वे किसी प्रस्ताव या विधेयक से सहमत नहीं तो उनके लिए हंगामा, बहिर्गमन करने के बजाय बेहतर है सदन में अपनी बात कहना। यदि उनकी बात नहीं मानी जाती तो भी उनके लिए यह आवश्यक होना चाहिए कि वे बहस में अवश्य भाग लें अथवा वोट दें। यदि उन्हें लगता है कि किसी प्रस्ताव या विधेयक पर उनका ही नजरिया सही है तो फिर वे सदन के बाहर सक्रिय होकर जनमत अपने पक्ष में करने के लिए स्वतंत्र हैं। इसका कोई मतलब नहीं कि यदि सदन का बहुमत किसी राजनीतिक दल के विचार से सहमत नहीं तो वह बहिर्गमन कर जाए। सच तो यह है कि ऐसा करना निषेध होना चाहिए। विंडबना यह है कि कई बार सत्तापक्ष भी ऐसे दलों को बहिर्गमन के लिए प्रेरित करता है जिनके बाहर रहने से उसका काम आसान होता है। जब कभी ऐसा होता है तो सौदेबाजी का संदेह पैदा होता है।


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रिटेल एफडीआइ के दौरान ऐसा ही हुआ। राजनीतिक दलों को यह स्वीकार करना चाहिए कि सदन में बहुमत वाले को अपने हिसाब से काम करने का अधिकार है। इसी तरह विपरीत विचार वाले राजनीतिक दलों के पास भी यह अधिकार है कि वे जब बहुमत जुटा लें उस नियम-कानून या प्रावधान को बदल दें जिसे उनके अल्पमत में रहने के कारण स्वीकृति मिल गई थी। कई बार ऐसा हो चुका है। राजग सरकार पोटा कानून लाई तो संप्रग ने सत्ता में आते ही उसे खारिज कर दिया। किसी बहाने विरोध स्वरूप सदन से बहिर्गमन कर जाना तब और अनुचित होता है जब इससे सत्तापक्ष के उद्देश्यों की पूर्ति होती नजर आती है। यह तो बिलकुल स्वीकार नहीं हो सकता कि राजनीतिक दल सदन में कहें कुछ और करें कुछ और। इसी तरह एक सदन के विपरीत आचरण दूसरे सदन में करना तो एक तरह से जनता के साथ छल करना है। अब तो यह भी होने लगा है कि बयान विरोध के दिए जाते हैं, लेकिन आचरण समर्थन वाला होता है। सबसे विचित्र यह है कि सदन में अपनी बात रखने से इन्कार करने वाले दल बाद में सदन के बाहर अथवा टीवी चैनलों के स्टूडियो में अपना रवैया स्पष्ट करते नजर आते हैं। कई बार तो कुछ मुद्दों पर राजनीतिक दलों के परस्पर विरोधी विचारों के चलते जब संसद ठप पड़ी होती है तब संसद के बाहर उन्हीं मुद्दों पर विभिन्न मंचों पर जोरदार बहस हो रही होती है। इससे कुल मिलाकर संसद की अवमानना होती है। चूंकि इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा इसलिए अब तो सरकार भी कई बार संसद सत्र के दौरान नीतिगत घोषणा कर देती है। आखिर जो काम बाहर हो सकता है वह सदन के अंदर क्यों नहीं हो सकता? चूंकि ऐसा नहीं होता इसलिए जब-जब संसद ठप होती है तब-तब उसकी गरिमा छीज रही होती है।


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राजनीतिक दल संसद ठप कर सुर्खियों में तो आ सकते हैं, लेकिन अपने औचित्य को सही साबित नहीं कर सकते। उन्हें न केवल राजनीति के मौजूदा तौर-तरीकों में बदलाव लाने पर चिंतन-मनन करने की जरूरत है, बल्कि इस पर भी कि संसद सुचारू रूप से कैसे चले? यदि ऐसा नहीं किया जाता तो संसद के साथ-साथ राजनीतिक दलों की भी प्रतिष्ठा पर विपरीत असर पड़ना तय है। सच तो यह है कि विपरीत असर पड़ने भी लगा है। यह समझना मुश्किल है कि संसद की पवित्रता और उसकी महानता का उल्लेख करने वाले राजनीतिक दल छोटी-छोटी बातों पर उसकी कार्यवाही ठप करने पर क्यों आमादा हो जाते हैं? यह ठीक नहीं कि अब संसद का प्रत्येक सत्र हंगामा, बहिर्गमन के साथ-साथ काम के घंटों की बर्बादी के लिए अधिक जाना जाता है।


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इस लेख के लेखक संजय गुप्त हैं


Tag: fdi, foreign direct investment, fdi in retailing, politics, रिटेल कारोबार,प्रत्यक्ष विदेशी निवेश,लोकसभा, राज्यसभा

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