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केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद प्रधानमंत्री ने एक विशेष बैठक में अपने सभी मंत्रियों से जो कुछ कहा उससे एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया कि अर्थव्यवस्था की हालत कितनी पतली है। इसी बैठक में अर्थव्यवस्था की दयनीय दशा को और अच्छे से स्पष्ट किया वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने। उनके अनुसार 7500 करोड़ की सैकड़ों परियोजनाएं अटकी पड़ी हुई हैं और इनमें से तमाम वर्षो से अटकी पड़ी हैं और करीब तीन सौ तो ऐसी हैं जो विभिन्न सरकारी विभागों के कारण ही आगे नहीं बढ़ पा रही हैं। उनकी मानें तो इस हालत के चलते विदेशी ही नहीं देशी उद्योगपति भी निवेश करने से कन्नी काट रहे हैं। उन्होंने यह आशंका भी जताई कि अगर हालात नहीं सुधरे तो रेटिंग एजेंसियां भारत के दर्जे को और गिरा सकती हैं। इतने सबके बाद और कुछ कहने को नहीं रह जाता, लेकिन फिलहाल यह मानना भी कठिन है कि मंत्रियों की इस महा बैठक के बाद सब कुछ पटरी पर आ जाएगा। ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचना इसलिए भी कठिन है, क्योंकि ठीक इसी दिन पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने बिना सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर के दाम बढ़ाने के तेल कंपनियों के फैसले को रोक दिया और यह भी नहीं स्पष्ट किया कि ऐसा क्यों किया गया? इसी के साथ ऐसी खबरें भी आने लगीं कि केंद्र सरकार सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडर बढ़ाने पर विचार कर रही है। उसकी ओर से राज्यों को इस आशय की चिट्ठी लिखने की बात कही जा रही है कि वे भी रसोई गैस और केरोसिन की सब्सिडी का वहन करें। इसका मतलब है कि सरकार ईंधन सब्सिडी में कटौती के अपने फैसले से पीछे हट रही है।
हाल में सरकार ने जो दो बड़े फैसले लिए हैं उनमें एक ईंधन सब्सिडी में कटौती का है और दूसरा, रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश का। हालांकि रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश के फैसले को कोई बड़ा आर्थिक फैसला नहीं कहा जा सकता, लेकिन यदि एक क्षण के लिए इसे बड़ा फैसला मान भी लिया जाए तो भी फिलहाल इससे कुछ विशेष हासिल होता नहीं दिखता। इसमें संदेह है कि मौजूदा माहौल में विदेशी कंपनियां रिटेल कारोबार में पूंजी लगाने के लिए आगे आएंगी। लगभग सभी विरोधी दल जिस तरह रिटेल एफडीआइ का विरोध कर रहे हैं और केंद्र सरकार को अपनी बात समझाने के लिए रैली करनी पड़ रही है उससे यह नहीं लगता कि वह विदेशी पूंजी निवेशकों को आकर्षित कर पाएगी। इस संदर्भ में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विदेशी पूंजी निवेशक पहले से ही आशंकित हैं। वे जिस नीतिगत पंगुता का मामला उठाते रहे हैं वह अब एक हकीकत बन गया है और इसकी स्वीकारोक्ति खुद वित्तमंत्री ने मंत्रियों की महा बैठक में यह कहकर की कि लालफीताशाही ने तमाम परियोजनाओं को बाधित कर रखा है। इसी बैठक में प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों को नसीहत देते हुए यह भी कहा कि वे आरोपों की परवाह किए बिना तेजी के साथ काम करें।
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कोई भी समझ सकता है कि उनका आशय उन आरोपों से है जो कांग्रेसी नेताओं अथवा उनके करीबियों पर लग रहे हैं। एक ऐसे समय जब घपले-घोटालों के आरोप लगातार सामने आ रहे हैं और कुछ लोग किस्म-किस्म के घोटाले उजागर करने में ही लग गए हैं तब यह कहने से काम चलने वाला नहीं है कि मंत्री उनकी परवाह न करें। ध्यान रहे कि अब तो इन आरोपों की चपेट में खुद गांधी परिवार भी आ गया है। यह ठीक है कि सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के बीच संदिग्ध जमीन सौदे को कांग्रेस भी नकार रही है और केंद्रीय सत्ता भी, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इस सौदे को लेकर जो आरोप लगाए गए हैं वे निराधार हैं। कांग्रेस और केंद्र सरकार सुब्रमण्यम स्वामी की ओर से सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर लगाए गए ताजा आरोपों को भी खारिज कर रही है, लेकिन जिस तरह कांग्रेस महासचिव यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हुए कि पार्टी ने एसोसिएटेड जर्नल्स को 90 करोड़ रुपये का लोन दिया था उससे आम जनता को यही संदेश गया कि कहीं कुछ गड़बड़ है। यदि केंद्र सरकार के नीति-नियंता यह समझ रहे हैं कि घपले-घोटाले से जुड़े आरोपों की परवाह न करके वे आर्थिक माहौल को दुरुस्त कर लेंगे तो यह सही नहीं। नकारात्मक आर्थिक माहौल को सकारात्मक तभी किया जा सकता है जब सरकार हर मुद्दे पर पाक-साफ दिखेगी। केंद्र सरकार को यह आभास होना चाहिए कि आर्थिक माहौल की नकारात्मकता के पीछे एक के बाद एक सामने आए घोटाले भी हैं।
पहले राष्ट्रमंडल खेलों में घपलेबाजी का मामला सामने आया और फिर 2जी स्पेक्ट्रम और इसके बाद कोयला खदानों के आवंटन में घोटाले का। अब तो आरोपों की झड़ी सी लगी हुई है। ऐसे माहौल में केंद्रीय सत्ता उद्योग जगत को निवेश के लिए प्रोत्साहित नहीं कर सकती और न ही अपनी मंत्रिपरिषद और नौकरशाही को इसके लिए प्रेरित कर सकती है कि वह बिना डरे हुए काम करे। कारपोरेट जगत निवेश के लिए तभी सक्रियता दिखाएगा जब वह सरकार को हर तरह से सक्षम पाएगा। फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है और इसके लिए सरकार किसी अन्य को दोष नहीं दे सकती। सरकार को इससे परिचित होना चाहिए कि उद्योग जगत चाहकर भी सक्रियता नहीं दिखा पा रहा है। यदि वह कभी ऐसा करता भी है तो सशंकित नौकरशाही का रवैया उसके कदम रोक लेता है। आर्थिक माहौल की नकारात्मकता और उसके चलते उद्योग जगत की निराशा इसलिए भी बढ़ रही है, क्योंकि अब एक तरह से समस्त राजनीतिक नेतृत्व आरोपों की चपेट में आ गया है। नितिन गडकरी पर लगे आरोपों के बाद भाजपा भी कठघरे में खड़ी दिखने लगी है। विडंबना यह है कि आरोपों से जूझते ये दोनों राष्ट्रीय दल इस पर एकमत नहीं दिखते कि चाहे जिस पर आरोप लगें, उसकी जांच होनी ही चाहिए। यदि आरोपों की जांच ही नहीं होगी तो फिर संदेह भरा माहौल दूर होने वाला नहीं और ऐसे माहौल में तरक्की की ओर नहीं बढ़ा जा सकता।
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इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि आर्थिक मोर्चे पर सुस्ती का एक कारण वैश्विक आर्थिक माहौल है, जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा, लेकिन इससे बड़ा कारण वह नकारात्मक माहौल है जो भ्रष्टाचार के मामलों पर केंद्र सरकार के रवैये के कारण उत्पन्न हो गया है। चिंताजनक यह है कि हाल के आर्थिक फैसलों और केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के बावजूद यह माहौल दूर होता नहीं दिखता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सरकार लगातार ऐसे आरोपों से घिरती जा रही है जो उद्योग जगत के मन में संदेह पैदा कर रहे हैं। पता नहीं क्यों हमारे नीति-नियंता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्हें जितना ध्यान आर्थिक मोर्चे पर देने की जरूरत है उतना ही घपले-घोटालों के आरोपों पर भी। यदि आरोपों की परवाह नहीं की जाएगी तो फिर संशय एवं अनिश्चितता का वह माहौल घना ही होगा जो एक लंबे समय से जारी है और जिसके कारण देश-विदेश के निवेशक सशंकित हैं।
लेखक – संजय गुप्त
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