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जोखिम भरे सुधार

संपादकीय ब्लॉग
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देश-विदेश में तमाम आलोचना के बाद संप्रग सरकार ने आखिरकार अपनी दूसरी पारी में बड़े आर्थिक सुधारों की शुरुआत करने का साहस दिखाया। मनमोहन सिंह सरकार की ओर से यह साहस तब दिखाया गया जब देश में आर्थिक प्रगति की रफ्तार लगातार घटती जा रही है और इसके चलते विश्व में भारत की साख भी प्रभावित हो रही है। पिछले दिनों योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने जब सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में वृद्धि दर महज पांच फीसदी ही रहने की संभावना व्यक्त की थी तभी यह महसूस किया जाने लगा था कि बड़े आर्थिक सुधारों में देरी बहुत भारी पड़ने जा रही है। सरकार के पास इसके अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था कि वह सुधार कार्यक्रमों की शुरुआत नए सिरे से करे। डीजल की कीमत में वृद्धि तथा सब्सिडी वाले घरेलू गैस सिलेंडरों की संख्या सीमित करने के निर्णय के साथ इन सुधारों की शुरुआत कर दी गई। इसके अगले ही दिन मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ को मंजूरी देने के लंबित फैसले पर मुहर लगाने के साथ ही प्रमुख सरकारी कंपनियों में विनिवेश को हरी झंडी देने जैसे महत्वपूर्ण फैसले लेकर केंद्र सरकार ने नीतिगत निष्कि्रयता से बाहर निकलने का ऐलान कर दिया। इन फैसलों का विपक्षी दलों के साथ-साथ सरकार में शामिल और उसे बाहर से समर्थन दे रहे राजनीतिक दलों ने भी विरोध आरंभ कर दिया है। इस विरोध के पीछे जो तर्क दिए जा रहे हैं वे देश हित से अधिक दलगत हित पूरे करने वाले अधिक नजर आ रहे हैं।


डीजल के दाम में वृद्धि से महंगाई बढ़ने की बात कही जा रही है, लेकिन यह दलील देने वाले दल भूल रहे हैं कि डीजल और एलपीजी में दी जा रही सब्सिडी के कारण राजकोषीय घाटा जिस तरह बढ़ता जा रहा है उसका प्रत्यक्ष-परोक्ष असर आम जनता पर ही पड़ना है। राजकोषीय घाटा आर्थिक मंदी की चुनौती बढ़ाने का काम कर रहा है। वैसे यह भी एक तथ्य है कि डीजल और एलपीजी के मामले में सरकार का निर्णय राजकोषीय घाटे की बहुत मामूली भरपाई ही कर सकेगा। यह विचित्र है कि केंद्र सरकार ने डीजल और एलपीजी के संदर्भ में तो कुछ साहसिक फैसला लिया, लेकिन केरोसिन के मामले में वह ऐसा नहीं कर सकी। केरोसिन पर दी जा रही सब्सिडी में कोई कटौती न करने का फैसला तब किया गया जब हर कोई जानता है कि केरोसिन की या तो कालाबाजारी होती है या इसका इस्तेमाल डीजल में मिलावट करने में किया जाता है। देश में जितना केरोसिन बिकता है उसका एक बड़ा भाग डीजल में मिलावट करने में इस्तेमाल होता है। उचित यह होता कि सरकार केरोसिन के संदर्भ में कड़ा फैसला करती। इसका कोई औचित्य नहीं कि गरीबों के नाम पर दी जा रही सब्सिडी का लाभ कालाबाजारिये उठाते रहें और वोट बैंक की राजनीति के कारण सरकार कोई ठोस कदम उठाने से इन्कार करती रहे। बात केवल डीजल अथवा केरोसिन पर दी जाने वाली सब्सिडी की ही नहीं है, बल्कि उर्वरक सब्सिडी की भी है। आम आदमी के नाम पर दी जाने वाली इस राहत का भी अनुचित इस्तेमाल हो रहा है।


राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण के लिए केवल यही आवश्यक नहीं कि डीजल के मूल्य में कुछ वृद्धि कर दी जाए, बल्कि संप्रग सरकार को केरोसिन और उर्वरक सब्सिडी में भी कमी लानी होगी। आम जनता को भी यह समझना होगा कि मुद्रास्फीति की दर तभी कम रहेगी जब राजकोषीय घाटा नियंत्रण में होगा और तभी रिजर्व बैंक भी ब्याज दरों में कमी लाने की हिम्मत जुटा सकेगा। इसी के साथ यह भी समझने की जरूरत है कि सब्सिडी एक किस्म की सुविधा है, अधिकार नहीं। जहां तक मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआइ को मंजूरी देने के फैसले का प्रश्न है तो केंद्र सरकार ने इस फैसले को लागू करने का अधिकार राज्यों पर छोड़ दिया है। ऐसा लगता है कि यह निर्णय पिछले अनुभव के आधार पर लिया गया है। जब केंद्र सरकार ने राज्यों को यह सुविधा दे दी है कि वे इस फैसले को चाहें तो लागू करें तो फिर राज्यों के विरोध का कोई मतलब नहीं रह जाता। तृणमूल कांग्रेस की इस शिकायत का आधार हो सकता है कि उससे सलाह लिए बिना रिटेल में एफडीआइ को मंजूरी देने का फैसला ले लिया गया, लेकिन केवल विरोध के लिए विरोध ठीक नहीं।


आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार ने जो भी फैसले लिए वे एक तरह से कांग्रेस के फैसले बन गए हैं, क्योंकि उनका विरोध तृणमूल कांग्रेस ही नहीं, बल्कि एक अन्य घटक दल द्रमुक और सरकार को बाहर से समर्थन दे रही सपा व बसपा द्वारा भी किया जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस ने तो इन फैसलों को वापस लेने के लिए 72 घंटे का अल्टीमेटम दे दिया है। देखना यह है कि अपने दूसरे कार्यकाल में पहली बार आर्थिक मामलों में मजबूती का परिचय दे रहे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहयोगी दलों के दबाव का सामना कर पाते हैं या नहीं? यदि वह दबाव में झुक जाते हैं तो फिर सरकार की साख रसातल में पहुंच जाएगी और अगर सरकार अपने फैसलों पर डटी रहती है, जिसके आसार दिख रहे हैं तो भी यह तय है कि देश को तात्कालिक रूप से कुछ हासिल नहीं होने वाला, क्योंकि इन फैसलों का असर सामने आने में समय लगेगा। कहीं ऐसा तो नहीं सरकार ने मजबूरी में ऐसे जोखिम भरे कदम उठा लिए, जिनसे देश में न सही विदेश में उसकी कुछ साख बढ़े? जो भी हो, सरकार के इन फैसलों से राष्ट्रीय राजनीति में एक तूफान आने के संकेत नजर आ रहे हैं, क्योंकि कुछ ही दिन पहले सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने भी मध्यावधि चुनाव की बात कही थी। यह आश्चर्यजनक है कि संप्रग सरकार को अपने इस कार्यकाल में विपक्ष से ज्यादा अपने घटक दलों के दबाव का सामना करना पड़ रहा है। इसका एक बड़ा कारण सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस तथा घटक दलों के बीच समन्वय का अभाव है।


समन्वय के इस अभाव के कारण ही बड़े फैसले नहीं हो पा रहे हैं और सरकार पर नीतिगत निष्कि्रयता के आरोप लग रहे हैं। एक अन्य कारण समय पर सही फैसले लेने का साहस न जुटा पाना है। यदि सरकार ने उक्त फैसले अपने कार्यकाल के प्रारंभ में ले लिए होते तो आज हालात दूसरे होते। चूंकि केंद्र सरकार ने आर्थिक मामलों में जो साहसिक कदम उठाए उनका देश की अर्थव्यवस्था को तत्काल कोई लाभ नहीं मिलने वाला इसलिए पहले से महंगाई से त्रस्त आम जनता किसी फौरी राहत की आशा भी नहीं कर सकती। देश के अनेक राजनीतिक दल आम जनता की इसी नाराजगी का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं। खुद कांग्रेस के लिए भी आर्थिक सुधारों के इन निर्णयों के राजनीतिक असर से बचना आसान नहीं होगा। कांग्रेस को कोई राजनीतिक लाभ तभी मिलेगा जब वह आम जनता को यह समझाने में कामयाब होगी कि जो फैसले लिए गए हैं वे उसके भले के लिए हैं और उनके बगैर काम नहीं चल सकता था। अगर कांग्रेस ऐसा नहीं कर पाती तो ये फैसले उसे भारी भी पड़ सकते हैं।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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