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आखिरकार वही हुआ जिसका डर था, कोयला घोटाले पर संसद नहीं चली। सत्तापक्ष अपनी जिद पर कायम है और विपक्ष अपनी। सत्तापक्ष ने विपक्ष की कोई मांग नहीं मानी-न कोयला खदान आवंटन निरस्त करने की और न आवंटन की जांच कराने की। विपक्ष की प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग तो माने जाने का सवाल ही नहीं था। खुद प्रधानमंत्री ने इस्तीफा देने से दो टूक इन्कार कर दिया। दरअसल आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री को किसी घपले-घोटाले के कारण इस्तीफा देना पड़ा हो। प्रधानमंत्रियों ने इस्तीफे तभी दिए हैं जब वे बहुमत के खेल में पराजित हो गए अथवा उनकी पराजय सुनिश्चित हो गई या फिर उन्हें भीतर-बाहर से समर्थन देने वालों ने अपने कदम पीछे खींच लिए। नि:संदेह इसका यह मतलब नहीं कि उपरोक्त कारणों के बगैर कोई प्रधानमंत्री त्यागपत्र दे ही नहीं सकता। प्रधानमंत्री किसी भी मामले में नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पद छोड़ सकता है। यह स्पष्ट है कि मनमोहन सिंह ऐसा नहीं करने वाले। वह इसके लिए स्वतंत्र भी हैं, लेकिन उन्होंने कोयला घोटाले पर इस्तीफा न देने के जो तमाम कारण गिनाए उनमें एक यह भी है कि वह प्रधानमंत्री पद की मर्यादा की खातिर अपनी कुर्सी नहीं छोड़ेंगे। यह तर्क हास्यास्पद है, क्योंकि तथ्य यह है कि उनके ही कार्यकाल में इस पद की मर्यादा सबसे अधिक गिरी है। वह पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें जनता के बजाय उसके द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों ने चुना।
प्रधानमंत्री पद की गरिमा जिन कारणों से गिरी उनमें एक तो यह धारणा है कि उनके पास फैसले लेने की पूरी शक्ति नहीं है और दूसरे यह तथ्य कि उनका कार्यकाल घोटालों से दो-चार होता रहा और वे उन्हें रोक नहीं सके। यह धारणा समय के साथ और मजबूत हुई है कि प्रधानमंत्री बड़े और कड़े फैसलों के लिए सोनिया गांधी के मोहताज हैं। पहले यह एक गंभीर आरोप माना जाता था कि प्रधानमंत्री कमजोर हैं, लेकिन अब यह धारणा इतनी पुष्ट हो गई है कि किसी को यह आरोप उछालने की जरूरत ही नहीं रह गई है। प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी की चाहे जितनी दुहाई दी जाए, सच्चाई यह है कि देश इस नतीजे पर पहुंच चुका है कि वह अपने इर्द-गिर्द के भ्रष्ट तत्वों पर भी लगाम लगाने में समर्थ नहीं रह गए हैं। राष्ट्रमंडल खेलों में घपले-घोटालों और तैयारियों में देरी को लेकर जब पहले-पहल हंगामा मचा तो प्रधानमंत्री ने सब कुछ समय पर होने का आश्वासन दिया। यह आश्वासन पूरा नहीं हो सका। देश ने यह महसूस किया कि यदि वह चाहते तो राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले भी रोक सकते थे और देरी को भी। देश ने तब भी ऐसा ही महसूस किया जब 2जी घोटाला सामने आया। दुर्भाग्य से उन्होंने घोटाले की चर्चा शुरू होते ही पहला काम ए.राजा को क्लीन चिट देने का किया। इतना ही नहीं जब देश नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के इस आकलन से अवाक था कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में एक करोड़ 76 लाख करोड़ की राजस्व हानि हुई तब प्रधानमंत्री इससे असहमति जता रहे थे। कोई भी समझ सकता है कि इससे प्रधानमंत्री पद की गरिमा गिरी ही होगी।
प्रधानमंत्री ने जिन ए. राजा को क्लीनचिट दी थी उन्हीं के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देने में आनाकानी पर जब सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताई और हलफनामा मांगा तब सरकार ने यह स्पष्टीकरण देकर अपनी जान छुड़ाई कि हलफनामा पीएमओ से मांगा गया है, पीएम से नहीं। इस स्पष्टीकरण के बावजूद देश यह समझ गया कि यदि पीएम ने अपना काम सही तरह किया होता तो पीएमओ को सर्वोच्च न्यायालय की खरी-खोटी नहीं सुननी पड़ती। प्रधानमंत्री पद की गरिमा तब भी गिरी जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के रूप में पीजे थामस की नियुक्ति रद कर दी। इस नियुक्ति के खिलाफ पीएम को आगाह किया गया था, लेकिन उसकी जानबूझकर उपेक्षा की गई। प्रधानमंत्री पद की गरिमा पर तब भी सवाल उठे जब उनकी नाक के नीचे देवास एंट्रिक्स सौदे के नाम पर घोटाला होते-होते बचा। इस संदिग्ध सौदे में पीएमओ भी शामिल था, लेकिन सजा दी गई सिर्फ इसरो के वैज्ञानिकों को। पता नहीं कोयला घोटाला किसने अंजाम दिया, लेकिन यह सबको पता है कि जब कोयला खदानों का आवंटन हुआ तब कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के पास ही था। प्रधानमंत्री ने यह सफाई दी है कि विकास को गति देने के लिए राज्यों के आग्रह पर बगैर नीलामी कोयला खदानों का आवंटन किया गया। जब यह सवाल उठाया गया कि 57 कोयला खदानों में तो कोई काम ही नहीं हुआ तो कहा गया कि पर्यावरण मंत्रालय की आपत्तियों का निस्तारण न होने से ऐसा हुआ। अब यह बताया जा रहा है कि इन खदानों को हासिल करने वाली कंपनियों ने पर्यावरण मंजूरी मांगी ही नहीं। स्पष्ट है कि दाल में कुछ नहीं, बहुत कुछ काला है।
चूंकि कोयला खदानों के आवंटन में गड़बड़ी प्रधानमंत्री के कोयला मंत्री रहते हुई इसलिए इस घिसे हुए तर्क के लिए कोई गुंजाइश नहीं बनती कि उन पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। प्रधानमंत्री का सबसे मजबूत पक्ष था उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी। वही अब छीज गई है। एक समय मोरारजी देसाई की व्यक्तिगत ईमानदारी पर भी चोट पहुंचाने की कोशिश की गई थी। मशहूर अमेरिकी पत्रकार सेमूर हर्श ने प्राइस आफ पावर नामक पुस्तक में यह आरोप लगाकर सनसनी फैला दी थी कि वह सीआइए एजेंट थे। मोरारजी ने सेमूर हर्श पर मुकदमा किया। दुर्भाग्य से वह यह मुकदमा हार गए, लेकिन देश में किसी ने-यहां तक कि उनके कट्टर विरोधी भी यह मानने को तैयार नहीं हुए कि मोरारजी वैसा कुछ करते रहे होंगे जैसा सेमूर हर्श दावा कर रहे हैं।
लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं
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