Menu
blogid : 133 postid : 1999

पुलिस व्यवस्था में सुधार जरूरी

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

Nishikant Thakurराजनीतिक और सामाजिक स्तर पर सुधार के चाहे कितने ही प्रयास क्यों न कर लिए जाएं, लेकिन भारतीय पुलिस अंग्रेजी शासनकाल की अपनी मानसिकता से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं है। वह अभी रौब की उसी मानसिकता में जी रही है, जहां उसकी भूमिका केवल सत्ता के लिए आम जनता के दमन तक सीमित मानी जाती रही है। हर समय आपके लिए आपके साथ या आपकी मित्र जैसे नारे केवल नारों तक ही सीमित हैं। हाल ही में इसका एक उदाहरण प्रस्तुत किया पंजाब पुलिस ने। रूपनगर जिले में पहले तो बीमार विचाराधीन कैदी को जंजीरों से बांधकर इलाज कराया और बाद में दैनिक जागरण में यह समाचार छपने पर अखबार की प्रतियां ही बाजार से गायब करवा दीं। इस तरह मानवाधिकारों का उल्लंघन तो किया ही गया, मामला उठाए जाने पर मीडिया का मुंह बंद किए जाने की साजिश भी रची गई। यह वह पुलिस कर रही है, जिस पर पूरे राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है। बाद में जब उच्चाधिकारियों को मालूम हुआ तो उन्होंने जांच की बात कही। पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ के निकटवर्ती शहर में ही अगर ऐसा हो सकता है तो राज्य के दूर-दराज इलाकों में क्या होता होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।


विचाराधीन कैदी जगतार सिंह के हाथ-पैर जंजीरों से बांध कर उसे रूपनगर के सिविल अस्पताल में रखा गया। जगतार सिंह पर लगाया गया आरोप सही है या गलत, इसका निर्णय तक अभी नहीं हो सका है। अगर एक प्रतिशत भी यह संभावना हो कि जगतार सिंह निर्दोष हो सकता है, तो उसकी मानसिक पीड़ा का अंदाजा कौन लगा सकता है? किसी निर्दोष व्यक्ति के लिए किसी तरह का आरोप झेलना अपने आपमें बहुत बड़ी मानसिक यंत्रणा है और इससे भी अधिक कष्टकारी उसके हाथ-पैर बांध दिया जाना है। आखिर ऐसी कौन सी स्थिति आ गई कि अस्पताल में उसे यह पीड़ा भी अलग से दी गई? आम तौर पर हर जेल में अस्पताल होता है। बीमार पड़ने पर कैदियों की जांच जेल के डॉक्टर से ही कराई जाती है। छोटे-मोटे मामलों का इलाज भी वहीं हो जाता है। कायदे से जेल के बाहर उन्हीं कैदियों को ले जाया जाता है, जिनकी स्थिति गंभीर होती है। क्या ऐसी स्थिति में उस पर निगरानी नहीं रखी जा सकती थी? अगर पंजाब पुलिस के जवान जंजीरों से बांधे बगैर एक बीमार कैदी की निगरानी तक कर पाने की स्थिति में भी नहीं हैं तो फिर उनके सिर राच्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी कैसे छोड़ी जा सकती है? अब तक यह मामला पुलिस के सभी बड़े अधिकारियों की जानकारी में आ चुका है। यहां तक कि पंजाब राच्य मानवाधिकार आयोग ने भी इस प्रकरण पर रिपोर्ट तलब की है।


राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इस मामले का नोटिस लिया है। इस सिलसिले में सभी जिम्मेदार पुलिसकर्मियों से भी जवाब-तलब किया जा चुका है। लेकिन यह सब तब हुआ है, जब मामला काफी ऊपर तक पहुंच गया। इसके पहले मामला तो क्या, उसे उठाने वालों को भी दबाने की पुरजोर कोशिश की गई। सीधे तौर पर अखबार जब्त करने का आदेश तो नहीं किया जा सकता था, लेकिन बंडल गायब करवा कर कोशिश यही की गई। इस तरह जाहिर तो यही होता है कि स्थानीय स्तर पर बजाय कैदियों के प्रति अपना व्यवहार सुधारने के मामले को दबाने-छिपाने की ही कोशिश की गई। अगर स्थानीय स्तर पर ही स्थितियों को सुधारने की कोशिश की जाती और पुलिसकर्मियों को इसके प्रति सचेत किया जाता तो शायद स्थितियां भिन्न होतीं। तब शायद ये दिन न देखने पड़ते। पुलिस सुधारों की बात चाहे जितनी कर ली जाए, लेकिन सच्चाई यही है कि अभी सारे सुधार केवल कागजी स्तर तक ही सीमित होकर रह गए हैं। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में पुलिस जैसी होनी चाहिए और आम जनता के साथ उसका जैसा व्यवहार होना चाहिए, उसकी कल्पना भी अभी पंजाब तो क्या पूरे भारत में कहीं नहीं की जा सकती। अंग्रेजी शासनकाल के अंतिम दिन भी जो सिपाही भर्ती हुआ होगा वह भी अब तक रिटायर हो चुका होगा।


पुलिस सेवाओं के लिहाज से देखें तो पूरी दो पीढि़यां चली गई होंगी, लेकिन पुलिस के तौर-तरीके में कोई खास बदलाव नहीं आया। वह पहले भी अपना काम आम जनता का दमन जानती थी और दुर्भाग्य यह है कि आज भी वही जानती है। उस मानसिकता से उबरने की जरूरत न तो पुलिस ने समझी और न उसे उबारने की जरूरत हमारी राजनीतिक व्यवस्था के कर्णधारों ने समझी। यहां तक कि जनता के प्रति पुलिस के कुछ कर्तव्य और जिम्मेदारियां भी हैं, यह जानने की आवश्यकता भी पुलिस को महसूस नहीं हुई। आखिर क्या कारण है इसका? सच तो यह है कि आज भी हमारी पुलिस को अधिकतर मामलों में विफलता का सामना करना पड़ता है। इस विफलता का सबसे प्रमुख कारण यह है कि उसे आम जनता का जैसा सहयोग मिलना चाहिए, नहीं मिल पाता। आखिर क्या कारण है कि आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी हमारी पुलिस को जगह-जगह जनता के असहयोग का सामना करना पड़ रहा है? पुलिस ने इस सवाल का जवाब कभी अपने-आपसे पाने की कोशिश नहीं की। छवि सुधारने की बात तो दूर, उसने छवि की कभी कोई चिंता ही नहीं की। वह यह मानकर चलती है कि उसकी जवाबदेही केवल कुछ अफसरों और मंत्रियों तक सीमित है। जनता के प्रति उसकी कोई जिम्मेदारी है, ऐसा वह आज भी महसूस नहीं करती। वह स्वयं को जनता का सेवक नहीं, शासक मानकर चलती है।


पूरा देश औपनिवेशिक शासन से उबर कर लोकतांत्रिक व्यवस्था अपना चुका, लेकिन पुलिस अभी भी उसी मानसिकता में चल रही है। वह अभी भी आम जनता को डरा कर ही रखना जरूरी मानती है। वाजिब मामलों में रपट तक दर्ज न करना और नाराज हो जाए तो किसी निर्दोष पर भारतीय दंड विधान की दर्जनों धाराएं थोप देना, वह आज भी अपना अधिकार मानती है। यह बात पुलिस के उच्चाधिकारी भी जानते हैं और सरकार भी कि इस तरह व्यवस्था नहीं चल सकती। इसके बावजूद पुलिस महकमे में सुधारों की प्रक्रिया इतनी धीमी गति से चल रही है कि खुद उसे भी महसूस नहीं हो रहा है। सुधारों पर विचार के लिए कई बार कमेटियां बनाई गई और हर बार तमाम महत्वपूर्ण सुझाव भी आए। लेकिन आखिरकार सब बेकार साबित हुए, क्योंकि वे फाइलों से बाहर कभी निकलने ही नहीं पाए। इससे जाहिर होता है कि सरकारें पुलिस व्यवस्था में कोई सुधार चाहती ही नहीं हैं, वे केवल इसकी औपचारिकता निभाती हैं। हमें औपचारिकता निभाने की इस मानसिकता से ऊपर उठना होगा और पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए अब तक जो सुझाव आए हैं, उन पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा। यह काम जितनी जल्दी किया जा सके, देश के लिए उतना ही फायदेमंद साबित होगा। केवल क्षुद्र स्वार्थो के लिए सुधारों की प्रक्रिया को लंबित करना घातक साबित हो सकता है।


निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं.

Crime Blog , Hindi, English, Social Issue in Hindi, Political Issue in Hindi


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh