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कोयला आवंटन में घोटाले को लेकर संसद के दोनों सदनों में शोरगुल के बावजूद प्रधानमंत्री ने अपना बयान दे दिया। चूंकि उनका यह बयान विपक्षी सांसदों के शोर में दबकर रह गया इसलिए उन्होंने मीडिया के समक्ष भी अपनी बात कही। उनकी मानें तो कैग का आकलन विवादास्पद है और उन पर लगाए गए सभी आरोप बेबुनियाद हैं। उन्होंने यह भी कहा कि बगैर नीलामी कोयला खदानों के आवंटन के लिए भाजपा सरकारों ने दबाव बनाया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने एक शेर भी अर्ज किया, जिसका कोई तुक नहीं बनता। मुश्किल वक्त में प्रधानमंत्री ऐसा ही करते हैं-कभी कोई शेर पढ़ देते हैं और कभी सीजर की पत्नी को आगे कर देते हैं। यदि संसद सही ढंग से चलती तो प्रधानमंत्री अपनी बात विस्तार से कहते। इसमें संदेह है कि वह इत्मिनान से दिए गए अपने वक्तव्य से जनता को संतुष्ट कर पाते, क्योंकि जो कुछ उन्होंने शोरगुल के बीच कहा वही तो पिछले दस दिनों से कांग्रेस प्रवक्ता और केंद्रीय मंत्री कहते चले आ रहे हैं। कैग रिपोर्ट के आधार पर प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांग रही भाजपा उनके बयान के बाद चाहे जो रवैया अपनाए, संसद न चलने देने की तोहमत उसके सिर ही मढ़ी जाएगी। हो सकता है कि संसद न चलने देने से उसे कुछ हासिल हुआ हो, लेकिन देश को कुछ भी नहीं मिला।
शायद आगे भी नहीं मिले, क्योंकि सत्तापक्ष यह मानने वाला नहीं कि कोयला खदान आवंटन में कोई अनियमितता हुई है। नियमानुसार कैग की रपट का मूल्यांकन लोक लेखा समिति करेगी। पता नहीं वह किस नतीजे पर पहुंचेगी, लेकिन 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन पर कैग रपट का जैसा हश्र लोक लेखा समिति में हुआ उससे बहुत कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। सभी को स्मरण होगा कि डॉ. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली लोक लेखा समिति में तख्ता पलट की कोशिश की गई थी। कहीं कोई नियम-प्रावधान न होते हुए भी सत्तापक्ष के सदस्यों ने डॉ.जोशी को हटाकर अपना अध्यक्ष चुन लिया था। इसके बाद जब डॉ. जोशी ने अपनी रपट लोकसभा अध्यक्ष को पेश की तो उसे स्वीकार नहीं किया गया। कोई नहीं जानता कि अब उस रपट का भविष्य क्या होगा? 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाले को रेखांकित करने वाली कैग की रपट आने के बाद संसद में कहीं ज्यादा हंगामा हुआ था। अभी तो संसद का एक सप्ताह ही बर्बाद हुआ है। तब पूरा एक सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया था, क्योंकि कांग्रेस घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन को तैयार नहीं थी। आखिरकार उसने जूते और प्याज खाने वाली कहावत चरितार्थ की। संयुक्त संसदीय गठित होने के बाद यह जो हल्की सी उम्मीद बंधी थी कि अब दूध का दूध और पानी का पानी होगा वह अब दम तोड़ती नजर आ रही है। इस समिति को गवाही के लिए प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को तलब करने में संकोच हो रहा है, लेकिन एक समय वह अटल बिहारी वाजपेयी और जार्ज फर्नाडीज को बुलाने पर विचार कर रही थी। संसदीय समितियों के ऐसे आचरण के बाद भी इस तरह की दलीलें देश के साथ मजाक के अलावा और कुछ नहीं कि वे दलगत हितों से ऊपर उठकर काम करती हैं।
सच्चाई इसके सर्वथा विपरीत है। तय मानिए कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर काम कर रही संयुक्त संसदीय समिति लीपापोती ही करेगी। हर किसी को इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि कोयला-खदान आवंटन पर कैग रपट की छानबीन करने वाली लोक लेखा समिति किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकेगी। यदि ऐसी कोई कोशिश होगी भी तो उसे विफल करने के वैसे ही जतन किए जाएंगे जैसे 2जी मामले में किए गए। जब संसद नहीं चलती अथवा उसे नहीं चलने दिया जाता या फिर कोई उस पर आक्षेप लगाता है तो उसकी महानता-सर्वोच्चता के तराने गाए जाने लगते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि किसी भी मुद्दे पर संसद में बहस होने भर से हालात बदलते नहीं। लोकपाल विधेयक पर हमारी महान संसद 43 वर्षो से बहस कर रही है, नतीजा शून्य है। 2008 से संसद के प्रत्येक सत्र में महंगाई पर चर्चा होती है, नतीजा शून्य है। राष्ट्रमंडल खेलों में घोटाले को लेकर संसद चर्चा करती रही और फिर भी घोटाले होते रहे। एक प्राकृतिक संसाधन-स्पेक्ट्रम के आवंटन में घोटाले पर संसद हिल गई, लेकिन इसके बाद दूसरे प्राकृतिक संसाधन-कोयले के आवंटन में मनमानी करने से बाज नहीं आया गया। मौजूदा व्यवस्था में संसद का कोई विकल्प नहीं, इसलिए उसके काम करने को, उसके चलने को और वहां बहस होने देने को समस्याओं के समाधान के रूप में पेश करना आम जनता से छल करना है। सच्चाई यह है कि संसद और उसकी समितियों का क्षरण हो चुका है। संसद निरीह है, यह कई बार साबित हो चुका है। यह दयनीय है कि उन मामलों में भी कोई फैसला नहीं हो पाता जिनमें संसद सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर देती है।
लोकपाल के मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों ने जो प्रस्ताव पारित किया था वह करीब-करीब रद्दी की टोकरी में जा चुका है। अभी जब अनिष्ट की आशंका से घबराकर पूर्वोत्तर के करीब 40 हजार लोग आंध्र, कर्नाटक और महाराष्ट्र से पलायन कर गए तो संसद ने एक स्वर से कहा-कृपया ऐसा न करें, लौट आएं, आपकी रक्षा की जाएगी। क्या कोई दावा कर सकता है कि पूर्वोत्तर का कोई बाशिंदा संसद की यह पुकार सुनकर लौटा होगा? यदि संसद जन आकांक्षाओं का वास्तव में प्रतिनिधित्व कर रही होती तो फिर अन्ना हजारे, बाबा रामदेव आदि को अपना काम छोड़कर हल्ला-गुल्ला क्यों करना पड़ता? यदि कोई दल बहुमत हासिल कर लेता है तो फिर वह लोकतंत्र की दुहाई देकर संसद में और उसके बाहर मनमानी करने में समर्थ हो जाता है। फिलहाल यही हो रहा है।
लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं
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