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डर नहीं है समाधान

संपादकीय ब्लॉग
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पिछले दिनों असम और म्यांमार में हुई हिंसा के दौरान अल्पसंख्यकों पर हुए कथित असर को लेकर विरोध प्रदर्शनों ने अप्रत्याशित रूप से उग्र रूप ले लिया था। मुंबई के बाद इसने उत्तर प्रदेश को भी चपेट में लिया और राजधानी लखनऊ के साथ-साथ कानपुर और इलाहाबाद में भी भारी उपद्रव हुआ। किसी की भी समझ में उस समय यह बात नहीं आ रही थी कि म्यांमार की हिंसा के खिलाफ हमारे देश में तोड़-फोड़ क्यों हो रही है। ठीक इसी तरह असम में हिंसा की प्रतिक्रिया महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में क्यों हो रही है। उधर कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों को एसएमएस के जरिये लगातार मिल रही धमकियों के पीछे का सच भी उस समय समझ से परे था। बेंगलूर पुलिस ने इस मामले में कार्रवाई करते हुए कई लोगों को गिरफ्तार भी किया, लेकिन दूसरे राज्यों में काफी समय तक इसके लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका था। अब जाकर यह मामला खुला है कि इसके पीछे पाकिस्तान के कुछ शरारती तत्वों के हाथ हैं। वहां से कुछ वेबसाइटों के जरिये अफवाहें फैलाई जा रही हैं और मुख्य इरादा भारत की शांति-व्यवस्था बिगाड़नी है। स्थितियां बिगड़ने के पीछे किसी भी अफवाह पर बिना सोचे-समझे भरोसा कर लेना और भय से पलायन की मानसिकता भी कम जिम्मेदार नहीं है। बिना सिर-पैर की बातों पर विश्वास कर लेना और धमकियों से डर जाना आम भारतीय की मानसिकता बन चुकी है। हम किसी भी बात पर सोचे-समझे बगैर विश्वास कर लेते हैं। यह सोचे बगैर कि क्या ऐसा हो सकता है और अगर हो सकता है तो कैसे और क्यों। इसका एक कारण हमारे भीतर व्याप्त भय है।


किसी ने कोई धमकी दी, वह चाहे सामने आया या नहीं, और हम डर गए। परदे के पीछे, यहां तक कि एसएमएस और सोशल नेटवर्किग साइटों के जरिये मिलने वाली धमकियों से भी डरने लगते हैं। यह भी नहीं समझ पाते कि जिसमें सामने आकर अपनी बात कहने का दम भी नहीं है, वह हमारा कुछ बिगाड़ने की हिम्मत कैसे कर सकता है। हमारा देश कोई कानूनविहीन देश नहीं, एक संवैधानिक लोकतंत्र है। यहां कानून का शासन है। अगर किसी भी तरह से किसी की धमकी आई तो सबसे पहले तो पुलिस को सूचित किया जाए। अगर स्थानीय पुलिस कार्रवाई नहीं करती है तो उसके आगे अन्य अधिकारियों, प्रशासन, न्यायपालिका से गुहार लगाई जाए। देश की प्रशासनिक व्यवस्था इतनी तो नहीं बिगड़ी है कि कहीं कोई सुनवाई ही न हो। इन सभी तथ्यों के बावजूद यहां स्थितियां लगातार नियंत्रण से बाहर ही जाती दिख रही हैं। यहां तक कि त्रासद स्थितियों में बार-बार केंद्र और राज्य सरकारों की अपील का भी कोई असर पड़ता नहीं दिखता। हालांकि इसके लिए लोगों से ज्यादा सरकारें खुद जिम्मेदार हैं। अकसर ऐसा देखा जाता है कि सरकारें अपने किए हुए वादे को पूरा नहीं कर पातीं। कई बार तो यह भी देखा जा चुका है कि इसके लिए गंभीर कोशिशें भी नहीं करतीं। भयमुक्त प्रशासन देने का वादा और दावा हर सरकार करती है, लेकिन अराजकता पूरे देश में लगातार बढ़ती ही चली जा रही है। ऐसी स्थिति में कोई सरकार के वादों पर भरोसा कैसे करे? कथनी और करनी का यह अंतर सरकार और जनता के बीच अविश्वास की खाई को लगातार और गहरी बनाता जा रहा है।


सरकारों पर से लोगों का भरोसा छीजता ही गया है। यह देश भर में अराजकता बढ़ने का सबसे प्रमुख कारण है। देश में शांति-व्यवस्था बनी रहे, इसके लिए सबसे पहली शर्त यह है कि अपनी सरकार पर लोगों का पूरा भरोसा बना रहे। सरकार जो भी कहे, उस पर लोग आंखें मूंद कर विश्वास कर सकें। ऐसा तभी होगा, जब सरकार हमेशा वह करके दिखाए, जो वह कहे। दुर्भाग्य से हो इसका उलटा रहा है। सरकार हमेशा यह कहती है कि अराजक तत्वों से सख्ती से निबटा जाएगा और होता यह है कि वे अधिकतर पकड़ से बाहर रहते हैं और अगर पकड़ में आए भी तो उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलते। इसकी वजह यही होती है कि तब तक वे पकड़ में आते ही नहीं, जब तक कि वे अपने खिलाफ सारे सबूत नहीं मिटा लेते। आखिर कैसे उन्हें इतना मौका मिल जाता है और क्यों? क्या किसी प्रशासनिक व्यवस्था की चुस्ती और इच्छाशक्ति के बावजूद यह संभव है? अगर संभव है, तो फिर यह सबसे बड़ा प्रश्नचिन्ह उस व्यवस्था की सक्षमता पर ही है। ऐसी सरकार को यह उम्मीद ही नहीं करनी चाहिए कि लोग उस पर भरोसा करें। सरकारों की सक्रियता का आलम यह है कि अभी तक केवल एक राज्य कर्नाटक में ही इस तरह के एसएमएस भेजने के लिए जिम्मेदार तत्व पकड़े जा सके हैं। जबकि पूर्वोत्तर के लोगों का पलायन आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु से हुआ है।


आखिर इन राज्यों की पुलिस क्या कर रही है? क्या इनके पास ऐसे अपराधियों को पकड़ने का कोई तंत्र और तकनीक नहीं है? ऐसा हो ही नहीं सकता कि पुलिस चाहे और अपराधियों को पकड़ न सके। सही बात यह है कि उसके भीतर इच्छाशक्ति नहीं है। नेता देश के नागरिक को मनुष्य के रूप में देखने की आदत ही छोड़ चुका है। उसकी नजर मनुष्य की कुल कीमत एक वोट तक सीमित है। अगर उसके वोट बैंक का हिस्सा बन सके तो वह बंग्लादेशियों को भारत की नागरिकता दिलवा सकता है, पूरा सरकारी तंत्र इस बात को ठीक से जानता है। इसीलिए वह भी सरकार के आश्वासन को बहुत गंभीरता से नहीं लेता। वह जानता है कि यह सब सिर्फ कहने की बातें हैं। सच तो यह है कि देश की व्यवस्था के लिए जिम्मेदार लोगों का जनता के सुख-दुख से कोई मतलब ही नहीं रह गया है। राजनेता जब तक खुद जनता के सुख-दुख के प्रति गंभीर नहीं होंगे और इसे वे अपने काम से साबित नहीं करेंगे, सरकारी अमला जनता के हितों का खयाल रखने वाला नहीं है। इस हाइटेक दौर में लोगों को खुद भी इतना सक्षम और समझदार बनना होगा कि वे अफवाहों और निरर्थक धमकियों से खुद अपने स्तर पर ही निपट सकें। धमकियों से डरें नहीं, बल्कि धमकियां देने वालों से जूझना सीखें। चाहे वे कहीं भी रह रहे हों, वहां से डर कर भागना किसी समस्या का समाधान नहीं है। समाधान तो समस्या का सामना करके ही निकाला जा सकता है। अफवाहों पर विश्वास करने से बचें। एक ऐसे दौर में जबकि कुछ सिरफिरे तत्व सूचना के परंपरागत और भरोसेमंद साधनों की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर बेवजह सवाल उठा रहे हों, तब सोशल नेटवर्किग साइटों जैसे साधनों पर विश्वास करने से पहले भी हमें सोचना चाहिए।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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