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बिजली के क्षेत्र में बदहाली

संपादकीय ब्लॉग
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पूरे देश में बिजली के दिन-प्रतिदिन गहराते संकट के कारणों की तह में जा रहे हैं संजय गुप्त


पिछले सप्ताह 48 घंटे के भीतर जिस तरह एक के बाद एक तीन ग्रिड फेल हुए और लगभग आधे भारत में बिजली के बिना जनजीवन ठप सा हो गया उससे देश में ऊर्जा क्षेत्र की दयनीय दशा दुनिया भर में उजागर हो गई। इसे भी दयनीय ही कहा जाएगा कि इस गड़बड़ी के बाद केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक-दूसरे पर दोष मढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया, जबकि सच्चाई यह है कि ऊर्जा क्षेत्र की दुर्दशा के लिए दोनों ही बराबर के उत्तरदायी हैं। वैसे तो ऊर्जा मंत्रालय का काम सीधे तौर पर बिजली का उत्पादन अथवा वितरण करना नहीं है, लेकिन विकास की पहली जरूरत मानी जाने वाली ऊर्जा के क्षेत्र का प्रबंधन करना तो उसकी जिम्मेदारी है ही। एक के बाद एक तीन ग्रिड फेल होने के मामले ने इस धारणा पर मुहर लगा दी कि ऊर्जा मंत्रालय ऐसी व्यवस्थाएं नहीं कर पाया जिससे कम से कम दोबारा ग्रिड फेल होने और इस कारण पूरी दुनिया में भारत की जगहंसाई होने की नौबत नहीं आती। समस्या यह है कि पिछले लगभग एक दशक के दौरान देश में बिजली का ढांचा पूरी तरह जर्जर हो चुका है। सही नीतियों के अभाव में न तो उत्पादन के क्षेत्र में कोई प्रगति हो पा रही है और न ही वितरण और पारेषण के क्षेत्र में।


बिजली के ढांचे की दुर्दशा का आलम यह है कि कुछ राज्यों में लाइन हानियों का प्रतिशत चालीस तक पहुंच गया है। मुश्किल यह है कि राज्य सरकारें बिजली के उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में काम कर रहीं सरकारी कंपनियों की हालत सुधारने और निजी क्षेत्र का सहयोग ले पाने में सफल नहीं हो पा रही हैं? इसका एक बड़ा कारण भ्रष्टाचार तो है ही, वोट बैंक की राजनीति भी है, जो उपभोक्ताओं को सस्ती अथवा मुफ्त बिजली देने के लोकलुभावन फैसलों पर आधारित है। इसका नतीजा यह है कि बिजली कंपनियों के लिए उत्पादन की लागत निकालना भी कठिन हो गया है। यह किसी से छिपा नहीं कि बिजली के हर तरह के सामान की खरीद में भारी कमीशनखोरी होती है और इसके चलते गुणवत्ता को हाशिये पर रख दिया जाता है। अपनी जेबें भरने के लिए गुणवत्ता से किया जाने वाला समझौता बिजली के वितरण में बड़े पैमाने पर हानि को जन्म देता है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार पारेषण के स्तर पर होने वाले बिजली के

नुकसान की दर छह-सात प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए, लेकिन भारत में यह बीस प्रतिशत के आसपास है। बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में तो नुकसान की यह दर तीस प्रतिशत से भी अधिक है। इसका अर्थ है कि बिजली का जो उत्पादन होता है उसका एक तिहाई हिस्सा लाइन हानियों के रूप में बर्बाद हो जाता है। अगर इसे आर्थिक रूप में देखें तो एक तिहाई बिजली की कोई कीमत ही वसूल नहीं हो पाती। अगर इस नुकसान पर काबू पा लिया जाए अथवा उसे अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप सीमित कर लिया जाए तो वर्तमान उत्पादन के आधार पर ही बिजली की किल्लत का एक हद तक समाधान किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि हमारे नीति-नियंता इस तथ्य से परिचित न हों, लेकिन व्यवस्था को ठीक करने के लिए जो उपाय किए जाने चाहिए वे भ्रष्टाचार और लालफीताशाही के कारण नहीं हो पा रहे हैं। केंद्रीय सत्ता के कामकाज में जो शिथिलता और नेतृत्व का अभाव नजर आ रहा है उसका प्रभाव बिजली के क्षेत्र में भी स्पष्ट है। संप्रग सरकार अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत से जिस आत्ममुग्धता की शिकार है वह देश पर बहुत भारी पड़ रही है।


विडंबना यह है कि यह आत्ममुग्धता तब है जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ही नहीं, बल्कि कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने भी संप्रग सरकार की दूसरी पारी की शुरुआत के समय ही इससे बचने की नसीहत दी थी। केंद्रीय मंत्रियों के बीच अहं और वरिष्ठता के संघर्ष और उनमें समन्वय के अभाव के कारण नीतिगत स्तर पर सरकार का कामकाज ठप-सा पड़ गया है। रही-सही कसर सहयोगी दलों की दबाव की राजनीति ने पूरी कर दी है। सहयोगी दलों की आपत्ति यह है कि कांग्रेस एकतरफा फैसले ले रही है। प्रणब मुखर्जी की सरकार से विदाई के बाद कांग्रेस के लिए हालात और अधिक कठिन हो गए लगते हैं। अपने लंबे राजनीतिक अनुभव के आधार पर प्रणब मुखर्जी ने अपनी छवि राजनीतिक संकटमोचक की बना ली थी। वित्तमंत्री के रूप में वह भले ही अपेक्षित सफल न रहे हों, लेकिन सहयोगी दलों के साथ तालमेल स्थापित करने का काम उन्होंने उल्लेखनीय तरीके से किया। उनके राष्ट्रपति बन जाने के बाद वित्त मंत्रालय का जिम्मा अपेक्षा के अनुरूप पी. चिदंबरम के पास फिर से आ गया, लेकिन सबसे अधिक आश्चर्यजनक रही ग्रिड फेल होने वाले दिन ही बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे की गृहमंत्री के रूप में पदोन्नति। यह समझना कठिन है कि जो सुशील कुमार शिंदे बिजली मंत्री के रूप में पूरी तरह असफल साबित हुए उन्हें पदोन्नति देने का क्या औचित्य? शिंदे को गृहमंत्री बनाने के साथ ही जिस तरह लोकसभा में नेता सदन का पद भी दे दिया गया उससे यह स्पष्ट है कि कांग्रेस नेतृत्व को ऊर्जा मंत्री के रूप में उनके काम-काज से कोई मतलब नहीं। अब यह और अधिक साफ है कि केंद्र सरकार में सब कुछ दुरुस्त नहीं।


भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों का सामना कर रही संप्रग सरकार ने अपनी निष्कि्रयता के चलते एक ऐसी स्थिति बना ली है कि उसके लिए चाहकर भी अपने शेष कार्यकाल में स्थितियों को ठीक करना आसान नहीं रह गया है। देश का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जिस पर संतोष जताया जा सके। बिजली, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य सरीखे आधारभूत ढांचे अव्यवस्थासे घिरे हैं। पिछले लगभग डेढ़-दो वर्षो से समस्याओं की हर स्तर पर चर्चा तो हो रही है, लेकिन सुधार की दिशा में कदम बढ़ते नजर नहीं आते। विचित्र यह है कि एक ओर घरेलू व्यवस्थाएं ठीक होने का नाम नहीं ले रहीं और दूसरी ओर देश के विकास के लिए विदेशी निवेश की तरफ देखा जा रहा है। कुछ अर्थशास्त्री भी विदेशी निवेश और खासकर खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ को समस्याओं के समाधान का एकमात्र मार्ग मान रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि सरकार अगर चाहे तो पेट्रोलियम पदार्थो से लेकर बिजली और उर्वरक में दी जाने वाली सब्सिडी में कुछ कटौती कर बड़े पैमाने पर धन की बचत कर सकती है, लेकिन वोट बैंक की राजनीति के कारण ऐसा कोई कदम उठाने से बचा जा रहा है। गरीबों को अपना वोट बैंक बताने वाले दल यह भूल रहे हैं कि मध्यम वर्ग उनकी गलत आर्थिक नीतियों से आजिज आ चुका है। यदि संप्रग में शामिल दलों को अभी भी यह लगता है कि लोकलुभावन राजनीति उन्हें लगातार तीसरी बार सत्ता में ला सकती है तो वे भूल कर रहे हैं। इस राजनीतिक माहौल में यदि कुछ राहतकारी है तो वित्तमंत्रालय में चिदंबरम की वापसी। सौभाग्य से उन पर प्रणब मुखर्जी की तरह तमाम राजनीतिक समितियों की अध्यक्षता का बोझ नहीं है। वह एक दृढ़निश्चयी राजनीतिज्ञ हैं, लेकिन देखना यह है कि क्या वह आर्थिक नीतियों में ऐसा बदलाव ला पाएंगे जिससे देश की गिरती हुई अर्थव्यवस्था संभल जाए और बुनियादी ढांचे, जिसमें ऊर्जा क्षेत्र अहम है, में नई जान आ सके?


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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