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भीड़ से जागने वाली सरकार

संपादकीय ब्लॉग
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Rajeev Sachanजिस तरह कुंभकर्ण तब जागता था जब छह माह की नींद पूरी कर लेता था उसी तरह भारत सरकार भी तब चेतती है जब उसे अपने विरोध में भारी भीड़ नजर आने लगती है। फिलहाल वह जन लोकपाल के लिए जंतर-मंतर पर अनशन कर रहे अन्ना हजारे और उनके साथियों के अनशन पर ऐसा रवैया अपनाए हुए है जैसे कुछ हो ही न रहा हो। इस अनशन पर कोई संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बजाय केंद्रीय मंत्री आम लोगों को गुमराह करने अथवा चिढ़ाने वाले बयान देने में लगे हुए हैं। कांग्रेस के घोषित-अघोषित प्रवक्ता इस तरह के बयान देने में कुछ ज्यादा ही आगे हैं। अन्ना और उनके साथियों को खलनायक करार देने में माहिर दिग्विजय सिंह नए सिरे से अपने पुराने बयान दोहरा रहे हैं। कांग्रेस और केंद्र सरकार का रवैया यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि वह अपने से असहमत लोगों को देश के लिए खतरा बताने से भी परहेज नहीं करती। कांग्रेस की मानें तो अन्ना हजारे और उनके साथी भाजपा एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंट हैं। क्या इन संगठनों के एजेंटों को यह कहने-मांग करने का अधिकार नहीं है कि लोकपाल विधेयक पारित किया जाना चाहिए? क्या भाजपा और संघ प्रतिबंधित संगठन हैं? क्या उनकी स्थिति सिमी, उल्फा, लिट्टे अथवा लश्कर जैसी है? 25 जुलाई को जब टीम अन्ना के सदस्य अनशन पर बैठे और जंतर-मंतर पर अपेक्षित भीड़ नहीं जुटी तो सरकार और अन्ना विरोधियों को बड़ा सुकून मिला। इन सभी ने यह जाहिर किया कि उन्हें तो पहले से पता था कि ऐसा ही होगा।


रविवार, 29 जुलाई को अन्ना के अनशन पर बैठते ही भीड़ उमड़ पड़ी। बावजूद इसके सवाल यह नहीं उठ रहा है कि सरकार अब क्या करेगी या करना चाहिए, बल्कि यह कहा जा रहा है कि देखना है कि सोमवार, मंगलवार, बुधवार. यानी बगैर छुट्टी वाले दिनों में अन्ना के समर्थन में भीड़ उमड़ती है या नहीं? क्या अब इस देश में किसी की तब सुनी जाएगी जब वह अपने पक्ष में भारी भीड़ खड़ी कर लेगा? क्या किसी कानून का निर्माण इस आधार पर होगा कि उसके पक्ष में भीड़ जुटती है या नहीं? यदि ऐसा ही है तो केंद्र और राज्य सरकारें यह भी बता दें कि कितनी बड़ी भीड़ उनकी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त होगी-पांच-दस-पचास हजार या फिर दो-चार-छह लाख की भीड़? माना कि लोकतंत्र में संख्या बल का महत्व है, लेकिन यह तो सिर्फ विधायी सदनों तक सीमित है। क्या लोकतंत्र और सभ्य समाज का यह तकाजा नहीं कि यदि इतने बड़े देश में दो लोग भी कोई तार्किक बात कहें तो उस पर गौर किया जाए? आखिर यह कौन सी मानसिकता है जिसके तहत देश का कानून मंत्री यह कहता है कि सोनिया-राहुल गांधी से टकराना हाथी से टकराना है? लोकपाल की मांग करना सोनिया-राहुल से टकराना कैसे हो गया? वैसे हाथी की श्रवणशक्ति तो बड़ी तीव्र होती है।


आखिर कांग्रेस के ये कैसे हाथी हैं जो यह भांप नहीं पा रहे हैं कि लोकपाल विधेयक पारित न होने के कारण जनता उद्वेलित है? इसमें दो राय नहीं हो सकती कि किसी भी कानून का निर्माण संसद ही करेगी और अपनी सहमति-समझ के आधार पर करेगी, लेकिन आखिर लोकपाल के मामले में अब भी आम सहमति का राग अलापने का क्या मतलब? क्या संसद के दोनों सदन वह प्रस्ताव पारित नहीं कर चुके जिसमें अन्ना की तीन मांगों पर बहस के बाद सहमति बन गई थी? यह आम जनता से धोखाधड़ी तो नहीं और क्या है कि जो लोकपाल विधेयक लोकसभा से पारित हुआ वह राज्यसभा में अटका दिया गया? यदि यह मान लिया जाए कि कुछ तार्किक आपत्तियों के चलते लोकपाल विधेयक राज्यसभा में अटका तो भी उसकी सुध न लेने का क्या मतलब? पिछले वर्ष शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन लोकपाल विधेयक के राज्यसभा में अटकने के बाद उसे इसी सदन की प्रवर समिति को सौंप दिया गया था। तब से उसका कुछ अता-पता नहीं है। संसद का बजट सत्र गुजर गया और लोकपाल विधेयक पारित होने की उम्मीद लगाए लोग गुबार देखते रह गए। यदि अन्ना अनशन पर नहीं बैठते तो शायद मानसून सत्र में भी कोई लोकपाल विधेयक की परवाह करने वाला नहीं था।


अभी भी इसके आसार कम हैं कि इस सत्र में लोकपाल विधेयक पर कोई विचार होगा, क्योंकि प्रवर समिति के अध्यक्ष सत्यव्रत चतुर्वेदी कह रहे हैं कि इस तरह के कामों में समय लगता है। नि:संदेह इस तरह का काम आनन-फानन नहीं होते, लेकिन आखिर समय की कोई सीमा है या नहीं? क्या किसी विधेयक पर विचार-विमर्श के लिए छह माह का समय पर्याप्त नहीं? क्या संसद ने इतना ही समय लाभ के पद संबंधी विधेयक में भी लिया था? क्या यह तथ्य नहीं कि लाभ का पद विधेयक तत्काल पारित हो, इसकी चिंता सत्तापक्ष और विपक्ष के साथ प्रधानमंत्री को भी थी? लोकपाल की मांग कर रहे अन्ना हजारे और उनके साथियों के तौर-तरीकों में तमाम खामियां हो सकती हैं, लेकिन इसके आधार पर लोकपाल में देरी करने का कोई मतलब नहीं। मुद्दा यह नहीं है कि अन्ना क्या कह रहे हैं अथवा किसे अपने अगल-बगल बैठा रहे हैं? मुद्दा यह है कि लोकपाल में देरी क्यों हो रही है? चूंकि अन्ना अनशन पर बैठ गए हैं और लोकपाल विधेयक जल्द पारित करने पर जोर दे रहे हैं इसलिए इसके भरे-पूरे आसार हैं कि एक बार फिर यह बेसुरा राग अलापा जाएगा कि संसद सर्वोच्च है-महान है-संप्रभु है और कोई उसे निर्देशित नहीं कर सकता। क्षमा करें, यह निरा झूठ है। जनाकांक्षाओं से मुंह मोड़ने वाली संसद महान नहीं हो सकती? कहीं ऐसा तो नहीं कि संसद उतनी ही जर्जर हो चुकी है जितनी कि उसकी इमारत?


लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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