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एक घातक अनदेखी

संपादकीय ब्लॉग
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जिस तरह बाहरी दुश्मनों से देश की सीमाओं की रक्षा करने की जिम्मेदारी सेना पर है, ठीक उसी तरह देश के भीतर के अराजक तत्वों से समाज की रक्षा की जिम्मेदारी पुलिस की है। दोनों की बनावट और बुनावट में थोड़ा अंतर जरूर है, लेकिन काम लगभग एक जैसा ही है। अगर सेना के जवान स्वस्थ न हों तो क्या हम देश की रक्षा के संबंध में पूरी तरह आश्वस्त रह सकते हैं? ऐसा सोचना भी मुश्किल है। बिलकुल यही बात पुलिस के मामले में भी है। अगर पुलिस के जवान स्वस्थ और किसी भी तरह की परिस्थिति का सामना करने के लिए आत्मविश्वास से भरपूर न हों, तो हम समाज के शत्रुओं से नागरिकों की रक्षा की कल्पना भी नहीं कर सकते। दिल्ली पुलिस के जवानों की तोंद को लेकर बार-बार सवाल उठते रहे हैं, लेकिन अब एक स्वास्थ्य परीक्षण से यह बात साबित हो गई है कि वास्तव में वह बहुत विपरीत परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम नहीं है। राजधानी दिल्ली में ही द्वारका के एक निजी अस्पताल द्वारा की गई जांच के जो नतीजे सामने आए हैं, वे चौंकाने वाले हैं। अलग-अलग थानों में लगाए कैंपों से जाहिर हुआ है कि कई पुलिसकर्मी तो हृदय संबंधी रोगों से पीडि़त हैं। यही नहीं, कई पुलिसकर्मी अल्कोहल के आदी पाए गए। कई डिप्रेशन, अनिद्रा, कब्ज और गैस्ट्राइटिस जैसी बीमारियों से भी पीडि़त पाए गए। इसके अंतर्गत विभिन्न थानों के ढाई सौ से अधिक पुलिसकर्मियों की सेहत की जांच की गई और इसमें बमुश्किल कुछ को ही पूरी तरह स्वस्थ पाया गया।


अधिकतर पुलिसकर्मी किसी न किसी तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्या झेल रहे हैं। यह स्थिति अकेले दिल्ली की हो, ऐसा नहीं है। अगर जांच कराई जाए तो शायद यह पाया जाए कि देश के दूसरे राज्यों की स्थिति यहां से भी बदतर है। दिल्ली में तो लोगों ने काफी पहले ही पुलिसकर्मियों की तोंद पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे, लेकिन देश के दूसरे कई हिस्सों में इसे बिलकुल आम बात माना जाता है। भारत के अधिकतर राज्यों में अभी भी मोटापे को अच्छे स्वास्थ्य का लक्षण माना जाता है। ऐसी भ्रांतियां तो इस समस्या के बढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती ही हैं, पुलिसकर्मी जिन परिस्थितियों में काम करते हैं, उनका भी इसमें कम योगदान नहीं होता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में जितने पुलिसकर्मियों की जरूरत है, उतने हैं नहीं। सभी बड़े राज्यों में पुलिसकर्मियों की कमी एक गंभीर समस्या है। इससे भी बड़ा संकट यह है कि जो पुलिसकर्मी हैं, उनमें से बड़ी संख्या में वीआईपी डयूटी में लगे रहते हैं। आम जन की सुरक्षा और नागरिक आवश्यकताओं के लिए कुछ ही बचते हैं। जो बचते हैं, उन्हें भी केवल शिफ्टों में अनियमित रूप से काम ही नहीं करना पड़ता, अकसर निर्धारित समय से बहुत अधिक देर तक डयूटी देनी पड़ती है। यह कोई एक-दो दिन की बात नहीं है, ऐसा अकसर होता ही रहता है। इसमें कई बार विभागीय आवश्यकताएं कारण होती हैं और कई बार वे स्वयं।


कुछ खास समय हैं, जब ऊपरी आमदनी की आशा कुछ अधिक ही होती है और यह उम्मीद भी कई बार उनकी जान की दुश्मन बन जाती है। कोई और इसकी परवाह करके भी क्या करेगा, जब उन्हें खुद इसकी परवाह नहीं है? इतना ही नहीं, पुलिसकर्मियों को जिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है, उनका भी इनमें बड़ा हाथ होता है। एक तो कई शिफ्टों में काम करने और आए दिन शिफ्टें बदलते रहने के कारण उनकी दिनचर्या कभी नियमित हो ही नहीं पाती। दिनचर्या नियमित न हो पाने के कारण वे आम तौर पर कोई फिटनेस रुटीन भी नहीं अपना पाते। इसके अलावा उन्हें अकसर खड़े होकर डयूटी करनी होती है। ऐसी जगहों पर, जहां धूप या बरसात से बचने के लिए छांव का कोई इंतजाम तो नहीं ही होता, प्रदूषण भी बेहिसाब होता है। यह प्रदूषण भी कोई एक तरह का नहीं, बल्कि हर तरह का होता है। लगातार आते-जाते वाहनों की चिल्ल-पों, सड़क पर और इधर-उधर से उड़ती धूल और धुआं सभी तरह के प्रदूषण से उन्हें जूझना पड़ता है। इन स्थितियों से बचाव के लिए वे स्वयं कोई उपाय करके कम ही चलते हैं। वे जिन चीजों से बचाव के उपाय सोचते या करते हैं, केवल विपरीत मौसम तक सीमित हैं। जाड़े के दिन हुए तो गर्म कपड़े ले लिए और बरसात में रेनकोट। प्रदूषण के बारे में शायद सोच भी नहीं पाते। ऐसे पुलिसकर्मियों के भरोसे अगर हम अपने समाज की सुरक्षा की बात सोचेंगे तो कोरी कल्पना ही साबित होगा। वे वाकई वह काम कर सकें, जिसके लिए उन्हें रखा गया है, इसके लिए जरूरी है कि अंग्रेजों के जमाने में बनाए गए और अब केवल फाइलों तक सीमित रह गए नियमों-मानदंडों से उबर कर उन्हें नए दौर के लिए नए हिसाब से तय किया जाए।


यह सही है कि पुलिसकर्मी विपरीत परिस्थितियों पर नियंत्रण के लिए ही होते हैं, लेकिन इसका यह मतलब तो बिलकुल नहीं है कि बेवजह उनकी सेहत से खिलवाड़ किया जाए और जब वास्तव में जरूरत पड़े तो वे बेकार साबित हों। ऐसा न हो, इसके लिए जरूरी है कि खराब मौसम और प्रदूषण से उनकी सुरक्षा के लिए उपाय किए जाएं। डयूटी इस तरह लगाई जाए कि उनका रुटीन कम से कम डिस्टर्ब हो। उन्हें इस बात के लिए भी प्रेरित किया जाए कि वे फिटनेस रुटीन को अपनाएं। उन्हें फिट रहने के फायदे तो बताए ही जाएं, फिट रहना उनकी सेवा शर्तो में शामिल किया जाए। वैसे ही, जैसे कि सेना में है। सच तो यह है कि न केवल सेहत, बल्कि फिटनेस धीरे-धीरे राष्ट्रीय चिंता का विषय बनता जा रहा है। आज पुलिस या सेना में भर्ती होने के लिए युवक जाते हैं और परीक्षण के दौरान दौड़ते समय वे बीच में ही गश खाकर गिर पड़ते हैं। अगर युवाओं की क्षमता का यही हाल रहा तो देश का भविष्य क्या होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। असल में इसकी वजह केवल सेहत के बारे में लोगों की अज्ञानता ही नहीं, बल्कि कई तरह की भ्रांतियां भी हैं। इन भ्रांतियों को जानना होगा। यह समझना होगा कि लंबे समय तक स्वस्थ और फिट बने रहने के लिए क्या करना जरूरी है और क्या नहीं किया जाना चाहिए। मोटे होने को हमारे देश की शहरी आबादी भले ही खराब मानती हो, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी भी मोटापे को समस्या के बजाय स्वस्थ, सुखी और संपन्न होने का प्रतीक माना जाता है। भारत में अब भी बहुत लोग नहीं जानते कि अति दुबलेपन की तरह अति मोटापा या कम वजन की तरह वजन का बहुत ज्यादा होना भी कुपोषण का नतीजा है। इन दोनों ही स्थितियों से बचा जा सके, इसके लिए संतुलित आहार और नियमित दिनचर्या अनिवार्य है। इस बारे में सरकार को न केवल पुलिसकर्मियों, बल्कि आम जनता में भी जागरूकता के उपाय करने चाहिए।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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