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जातिगत राजनीति का नतीजा

संपादकीय ब्लॉग
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बिहार के आरा जिले में पिछले हफ्ते जिस तरह ताबड़तोड़ गोलियां मार कर बरमेश्वर नाथ सिंह उर्फ मुखिया की हत्या की गई और उसके बाद इसके विरोध में जो उग्र प्रदर्शन हुए, ये दोनों ही स्थितियां नए खतरे की आहट दे रही हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के शासन में भय और शोषणमुक्त होने की जो छवि बनी थी, वह फिर से बिगड़ने लगी है। जिस तरह वहां लोगों ने सड़क पर उतर कर विरोध प्रदर्शन किया, सरकारी संपत्तियों को आग के हवाले किया गया, उससे ऐसा लगने लगा है कि अराजक तत्व फिर से हावी होने लगे हैं। इससे यह भी जाहिर होता है कि पूरा सरकारी तंत्र मुखिया की जान के खतरे और उसके बाद होने वाली भयावह प्रतिक्रिया का आकलन करने में विफल रहा। बरमेश्वर सिंह पर करीब ढाई सौ हत्याओं के आरोप थे और हत्या के बीस से अधिक मामलों में वे स्वयं आरोपी थे। इनमें से कई मामलों में सबूतों के अभाव के कारण वे बरी किए जा चुके थे। कुछ मामले उन पर अब भी चल रहे थे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि न्यायपालिका अपना काम कर रही थी और वह देर-सबेर कभी न कभी सच तक पहुंच भी जाती ही। इसके पहले ही किसी को कानून हाथ में ले लेने का कोई हक नहीं है और न किसी को इस तरह की प्रतिक्रिया करने का ही हक है। दुखद बात यह है कि यह प्रवृत्ति समाज में लगातार बढ़ती ही जा रही है। जिस गति से असहिष्णुता बढ़ रही है, उसी गति से अधीरता भी। न तो लोग अब किसी को बर्दाश्त करना चाहते हैं और न वैधानिक प्रक्रिया के संपन्न होने के लिए इंतजार ही कर पाते हैं। वे न्याय पाने के बजाय अपने ढंग से स्वयं बदला ले लेने में ज्यादा यकीन रखने लगे हैं। बरमेश्वर सिंह का उभार और उनकी हत्या, दोनों ही कमोबेश इसी बात का ही नतीजा है।


अफसोस यह है कि जो लोग इस तरह के संगठनों के उभार और ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए जिम्मेदार हैं, वे इसकी सुध तक लेने के लिए तैयार नहीं हैं। सब कुछ जानते हुए भी वे इस दिशा में सही कदम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। बल्कि वे लगातार ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं, जिनसे ऐसी प्रवृत्तियों को और ज्यादा बल ही मिल रहा है। वे यह सोचने की जरूरत तक नहीं समझ रहे हैं कि यह स्थिति देश को किस गर्त में ले जाएगी और इसका नतीजा आखिरकार क्या होगा। हालांकि यह मसला बहुत ही जटिल है और इस पर सहज ढंग से कुछ कह देना मसले का अति सरलीकरण करने जैसा होगा। अति सरलीकरण किसी भी मसले का ठीक नहीं होता। इसीलिए बरमेश्वर जिस संगठन के प्रमुख थे, उसके उभार और पतन तथा उनकी निजी प्रवृत्तियों को भी देखना जरूरी है। यह बात सभी जानते हैं कि मुखिया के नेतृत्व वाली रणवीर सेना का गठन नक्सलियों के अत्याचार की प्रतिक्रिया में हुआ था। बिहार में नक्सली संगठनों ने कब वर्ग संघर्ष छोड़ कर जाति संघर्ष शुरू कर दिया, इसका पता ही नहीं चला। उनके साथ अधिकतर पिछड़े कहे जाने वाले तबकों के लोग थे और अगड़ी कही जाने वाली जातियों के लोगों के घर-खेत से लेकर धन तक पर जबरिया कब्जा करने के अलावा मान-सम्मान के साथ खेलने जैसी घिनौनी हरकतें भी करने लगे। इस जाति संघर्ष से न तो पिछड़ी कही जाने वाली जातियों का हित सधना था और न अगड़ी या सवर्ण कहे जाने वाली जातियों का ही।


कुल मिलाकर इस संघर्ष के तहत केवल घात-प्रतिघात का दौर शुरू हो गया। बदले की इन्हीं कार्रवाइयों ने एक-एक करके कई जातिगत निजी सेनाओं को जन्म दिया, जिनमें अगड़े-पिछड़े सभी शामिल थे और जो पूरी तरह अवैधानिक था। राजनीतिक नेतृत्व ने अगर चाहा होता तो इसे शुरुआती दौर में ही रोका जा सकता था। दुख इस बात का है कि राजनेताओं ने इसे रोकने की कोशिश तो की ही नहीं, उलटे अपने विभिन्न निर्णयों से इसे और ज्यादा बढ़ाने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी। पूरी भारतीय राजनीति आज जाति और संप्रदाय आधारित राजनीति हो चुकी है। जो लोग जाति तोड़ने के सिद्धांतों की बात करते हैं, वही जातीय संघर्ष को और अधिक मजबूत बनाने के सारे उपाय करते हैं। ये उपाय कभी तो वे आरक्षण के नाम पर करते हैं, कभी असमानता वाले कानूनों के नाम पर और कभी सांप्रदायिक विद्वेष फैला कर। जनता यह भी देख रही है कि वे किस तरह अपनी ही बात आए दिन बदलते रहते हैं। जो लोग कभी सवर्णो के खिलाफ विषवमन करते थे, उन्हें ही जब किसी सवर्ण बहुल इलाके से चुनाव लड़ना होता है तो पिछड़ों या दलितों के खिलाफ विष उगलने लगते हैं और कई बार तो यही सब राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर भी होता है। गिरगिट की तरह रंग बदलने की उनकी इस प्रवृत्ति को जनता पहचान चुकी है, लेकिन मजबूरी विकल्पहीनता की है। अब जनता यह भी देख और समझ रही है कि राजनेता उसे केवल मूर्ख बना रहे हैं और इनके ऐसे आश्वासनों या विष वमन से लाभ किसी का भी नहीं होना है। लेकिन जब इन जातिगत निजी सेनाओं के बनने-बिगड़ने का दौर शुरू हुआ था, वह राजनीतिक समझ का सबसे संवेदनशील दौर था।


राजनेताओं ने अपनी महत्वाकांक्षा के लिए लोगों को ही जाति-धर्म के नाम पर एक-दूसरे के खून का प्यासा बना दिया था और लोग इस चाल को समझ नहीं पा रहे थे। इसका ही नतीजा यह हुआ कि एक के बाद एक तमाम सेनाएं बनती-बिगड़ती चली गई और सभी एक-दूसरे से भिड़ती रहीं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश की शांतिप्रिय जनता को इस मोड़ तक ले आने के लिए जिम्मेदार जाति और धर्म आधारित राजनीति है। यह वह स्थिति है, जब दिग्भ्रम के शिकार लोग अपराधियों और आतंकियों तक को अपना मसीहा समझने लगते हैं और उनका साथ देने लगते हैं। अफसोस यह है भारतीय राजनीति अपनी यह दिशा बदलने के लिए तैयार नहीं दिखाई देती। सच तो यह है कि देश की सभी राजनीतिक पार्टियों को अपनी रीति-नीति में तुरंत और व्यापक बदलाव करने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं किया गया और जातिगत राजनीति इसी तरह जारी रही तो जातीय संघर्ष का यह दौर थमने वाला नहीं है। अगर यह सोचा जाए कि एक-दो संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करके या उनका दमन करके ही हम इस समस्या से मुक्त हो जाएंगे तो यह बड़ी भारी भूल होगी। क्योंकि एक-दो व्यक्तियों या संगठनों के दमन से शांति स्थापित नहीं हो सकती। शांति की स्थापना तो केवल समस्या के समाधान से ही होगी। यह राजनेताओं को ही तय करना होगा कि कैसे संवैधानिक प्रक्रिया के अंतर्गत वंचितों को उनका हक मिल सके और कैसे समाज के सभी तबकों का सम्मान सुनिश्चित किया जा सके। अगर इस दिशा में यथाशीघ्र कार्य शुरू नहीं किया गया तो फिर इस तरह की निजी सेनाओं के गठन, फिर हत्याओं और उन पर तीखी प्रतिक्रियाओं के सिलसिले को रोकना संभव नहीं होगा। आखिरकार इसका नतीजा क्या होगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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