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नई भूमिका में मोदी

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptनरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अगला आम चुनाव लड़ने में ही भाजपा का हित देख रहे हैं संजय गुप्त

 

पहले राष्ट्रीय कार्यकारिणी और फिर पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से संजय जोशी के इस्तीफे से यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि भाजपा अगले लोकसभा चुनाव के लिए ऐसी कोई कलह नहीं बनाए रखना चाहती जिससे दल की एकजुटता खतरे में पड़े और उसकी चुनावी संभावनाएं भी प्रभावित हों। माना जा रहा है कि संजय जोशी की भाजपा से विदाई इसलिए हुई, क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी उनके साथ सहज महसूस नहीं करते। नरेंद्र मोदी और संजय जोशी के बीच तनातनी लगभग एक दशक से चल रही थी और इसके चलते भाजपा में एक प्रकार के शीतयुद्ध की भी स्थिति थी। यह अलग बात है कि इन दोनों ने अपना राजनीतिक कॅरियर लगभग एक ही समय पर शुरू किया। आज भले ही मोदी और जोशी में पट न रही हो, लेकिन यह एक यथार्थ है कि गुजरात में नरेंद्र मोदी की सत्ता स्थापित करने में संजय जोशी की भी भूमिका थी। बाद में वर्चस्व को लेकर दोनों के बीच खटास पैदा हुई और इसका परिणाम यह हुआ कि उनके बीच आपसी संवाद भी समाप्त हो गया। 2005 में एक विवादित सीडी के चलते संजय जोशी को भाजपा छोड़नी पड़ी, लेकिन बाद में इस मामले से क्लीन चिट मिलने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दखल पर वह पार्टी में वापस लौटे। यह स्वाभाविक ही है कि संजय जोशी का फिर से भाजपा में सक्रिय होना और उन्हें उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी मिलना नरेंद्र मोदी को रास नहीं आया। अपनी इस नाराजगी के कारण उन्होंने पार्टी की बैठकों में भाग लेना भी बंद कर दिया। वह उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार में भी नहीं आए।

 

भाजपा को निर्देशित-नियंत्रित करने वाले संघ ने जब यह महसूस किया कि यह टकराव पार्टी की एकजुटता पर भारी पड़ सकता है तो उसने नरेंद्र मोदी के दबाव के आगे झुकने में ही भलाई समझी। मोदी की इच्छा के अनुसार जिस तरह संजय जोशी को पीछे हटना पड़ा उससे यह भी स्पष्ट हो गया कि संघ भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में एक और मौका देने के लिए तैयार नहीं। आडवाणी को मुकाबले से हटने की नसीहतें कई वर्षो से दी जा रही थीं, लेकिन शायद वह प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने का मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं। भाजपा ने पिछला लोकसभा चुनाव उन्हें ही आगे कर लड़ा था, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। अब जब अगले लोकसभा चुनावों में दो वर्ष से भी कम समय बचा है तो भाजपा और संघ, दोनों ही ऐसी कोई स्थिति नहीं रखना चाहते जिससे नेतृत्व को लेकर शीर्ष नेता आपस में उलझे हुए दिखाई दें। अगले चुनाव की तैयारियों के कारण ही गडकरी को पार्टी संविधान में परिवर्तन कर दोबारा अध्यक्ष बनाने का रास्ता साफ किया गया है। इस फैसले के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण यही नजर आता है कि गडकरी संघ की पसंद हैं और यदि इस समय अध्यक्ष बदला जाता है तो गुटबाजी और कलह और अधिक बढ़ सकती है। भाजपा फिलहाल इस दुविधा में नजर आ रही है कि वह अगले लोकसभा चुनाव में किसे प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के रूप में पेश कर लड़े। मोदी इस समय स्वाभाविक रूप से भाजपा के सबसे शक्तिशाली नेता नजर आ रहे हैं। वह खुद भी केंद्रीय राजनीति में आने के इच्छुक हैं, लेकिन उनकी यह राह आसान नहीं है।

 

भाजपा भले ही मोदी के नाम पर धीरे-धीरे सहमत होती नजर आ रही हो, लेकिन गठबंधन राजनीति के इस दौर में यह कहना कठिन है कि मोदी राजग के सर्वमान्य नेता के रूप में उभरकर सामने आएंगे। इस संदेह का सबसे बड़ा कारण मोदी के प्रति जनता दल (यू) का दृष्टिकोण है। यह किसी से छिपा नहीं कि जनता दल (यू) के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मोदी को पसंद नहीं करते। इस स्थिति में यह भी संभव है कि भाजपा अपने किसी नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीवार घोषित किए बिना चुनाव में उतरे। वैसे यदि जनता दल (यू) को छोड़ दिया जाए तो मोदी के नाम पर राजग के अन्य सहयोगी दलों को कोई ऐतराज नहीं है। इसका एक बड़ा कारण मोदी की गुजरात के बाहर लोकप्रियता तो है ही, उनका खुद को विकास पुरुष के रूप में स्थापित करना भी है। उन्होंने विकास के मोर्चे पर जो कुछ कर दिखाया है उसकी सराहना उनके विरोधियों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी करता है। यह भी एक तथ्य है कि भावी प्रधानमंत्री के दावेदारों में वह सबसे आगे चल रहे हैं। इसके अतिरिक्त वह भाजपा की हिंदूवादी दल की छवि को भी पूरा करते हैं।

 

हालांकि गुजरात दंगों के कारण मोदी के विरोधी उन पर हमला करते रहे हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले कुछ समय से खुद वह भी अपने को सर्वमान्य नेता के रूप में उभारने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में भाजपा के हित में यही है कि वह खुद को मोदी के नेतृत्व में अगला आम चुनाव लड़ने के लिए तैयार करे। देश में इस समय जैसे आर्थिक हालात हैं और केंद्र की सत्ता संभाल रहे संप्रग में शामिल कांग्रेस और सहयोगी दलों के बीच मतभेद जिस तरह बढ़ते जा रहे हैं उससे मध्यावधि चुनाव से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। इस वर्ष के अंत में गुजरात विधानसभा के चुनाव होने हैं, जिन्हें मोदी के लिए एक और अग्निपरीक्षा के रूप में देखा जा रहा है। फिलहाल ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मोदी इस परीक्षा में भी सफल होंगे। यदि ऐसा होता है तो स्वाभाविक रूप से राष्ट्रीय भूमिका में आने की उनकी दावेदारी और अधिक मजबूत होगी। वैसे भी वह भाजपा के पोस्टर ब्वाय माने जाते हैं। उनमें अपने गृहराज्य से बाहर भी पार्टी को वोट दिलाने की क्षमता है। यदि भाजपा समय रहते यह फैसला कर लेती है कि उसे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाना है तो इससे खुद उन्हें अपनी भावी भूमिका की तैयारी में सहूलियत मिलेगी।

 

संजय जोशी की भाजपा से पूरी तरह विदाई कराकर नरेंद्र मोदी ने अपनी शक्ति का ही प्रदर्शन किया है। उनकी नेतृत्व क्षमता पर शायद ही किसी को संदेह हो। चूंकि राष्ट्रीय प्रभाव के लिहाज से भाजपा में मोदी की बराबरी करने वाला कोई नेता नजर नहीं आता इसलिए यह पार्टी की मजबूरी भी है कि वह उनके पीछे डटकर खड़ी हो। भाजपा में जिस तरह मोदी का प्रभाव बढ़ रहा है उसे देखते हुए कांग्रेस और विशेषकर गांधी परिवार के लिए यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अगले चुनाव में उसे मोदी का सामना करना होगा। फिलहाल कांग्रेस राष्ट्रपति चुनाव में अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए पूरा जोर लगा रही है। देखना यह होगा कि आने वाले समय में दोनों राष्ट्रीय दलों की राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ती है?

 

 इस आलेख के लेखक संजय जोशी हैं

 

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