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बीते शनिवार को एक जैसे दो समाचार आए। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को एक लाख रुपये की रिश्वत लेने के आरोप में चार साल की सजा सुनाई गई। इसके अलावा दिल्ली के एक पूर्व न्यायाधीश गुलाब तुलस्यानी को दो हजार रुपये की घूस के बदले तीन साल के लिए जेल भेज दिया गया। पहले मामला का निपटारा 11 साल बाद हुआ और दूसरे का 26 साल बाद। दोनों ही मामलों में फैसला सीबीआइ की विशेष अदालतों ने सुनाया। इसी दिन यह स्पष्ट हो गया कि इन दोनों मामलों को ऊंची अदालतों में चुनौती दी जाएगी यानी अभी अंतिम फैसला आना शेष है। कोई नहीं जानता कि यह कब होगा, लेकिन अंतत: न्याय का चक्र घूमा और भ्रष्ट तत्वों को दंड मिला। ऐसा होना ही चाहिए, लेकिन क्या इतने वर्षो बाद? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या कम राशि की रिश्वत (दो हजार और एक लाख रुपये) लेने वाले ही सजा पाएंगे अथवा उन्हें ही दंडित करना आसान है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि करोड़ों इधर-उधर करने वालों का बाल बांका होता नहीं दिखता। ध्यान दें कि चारा घोटाले में बड़े नेताओं का निपटारा होना शेष है और माया-मुलायम के ज्ञात स्रोतों से अधिक आय के मामले भी अधर में हैं। शायद ही कोई यह मानकर चल रहा हो कि राष्ट्रमंडल खेलों में अनगिनत घपलों और 2जी घोटालों के जिम्मेदार लोगों को हाल-फिलहाल सजा मिलने जा रही है। रसूख वाले लोग जिस तरह तारीख पर तारीख का खेल खेलने में सक्षम हैं उसे देखते हुए यही लगता है कि कलमाड़ी, राजा आदि के मामलों का निपटारा होने में दशकों लग सकते हैं।
सभी जानते हैं कि प्रभावशाली लोग न्याय प्रक्रिया से खेलने-खिलवाड़ करने में माहिर हैं, लेकिन किसी को इसकी चिंता नहीं कि न्याय समय पर मिले। कम से कम नेताओं-नौकरशाहों को तो इसकी चिंता बिल्कुल भी नहीं। यदि किसी को चिंता है भी तो सुप्रीम कोर्ट को। अगस्त 2009 में प्रधानमंत्री ने कहा था कि भ्रष्टाचार की बड़ी मछलियों पर निर्भय होकर शिकंजा कसने की जरूरत है, लेकिन इसका कहीं कोई असर नहीं दिखा। दिखता भी कैसे? ऐसी बड़ी मछलियों को खुद वही संरक्षित जो कर रहे थे। याद कीजिए, यह वही समय था जब राजा और कलमाड़ी मनमानी कर रहे थे और वह मौन साधे थे। उनका मौन टूटा तो भी उन्होंने राजा को क्लीनचिट दे दी और कलमाड़ी के खिलाफ की जा रही शिकायतों से मुंह फेर लिया। हालांकि इसी 20 अप्रैल को विधि आयोग ने अपनी रपट में कहा है कि प्रभावशाली व्यक्तियों के मामलों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है, लेकिन यह तय मानिए कि कोई भी इस रपट पर गौर नहीं करने जा रहा है। विधि आयोग के मुताबिक रसूखदार लोगों के संज्ञेय अपराधों की जांच अधिकतम छह माह में हो और उनके मामलों की सुनवाई बिना किसी बाधा के होनी चाहिए।
आयोग ने स्थानीय निकायों के प्रमुखों, विधायकों, सांसदों, पूर्व एवं वर्तमान मंत्रियों आदि को रसूखदार माना है। बंगारू लक्ष्मण और गुलाब तुलस्यानी भले ही एक समय महत्वपूर्ण पदों पर रहे हों, लेकिन अब वे रसूखदार नहीं रह गए थे। यदि उनका रसूख-जलवा कायम होता तो शायद अभी उन्हें सजा नहीं मिलती। अन्य रसूख वाले लोगों की तरह वे भी अदालत-अदालत खेलते रह सकते थे। बंगारू लक्ष्मण और गुलाब तुलस्यानी सहानुभूति के पात्र नहीं हो सकते। उन्होंने जो काम किए उनकी अपेक्षा नहीं की जाती थी। बावजूद इसके इसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि लक्ष्मण को एक तरह से फंसाया गया। उनका मामला कुछ वैसा ही है जैसे शेर की गुफा के आगे कोई बकरी बांध आए और जब शेर उसे खा जाए तो यह शोर मचाया जाए कि दुष्ट शेर ने एक बकरी की जान ले ली। बंगारू लक्ष्मण के समर्थक यह कह रहे हैं कि जिस स्टिंग आपरेशन में वह पकड़े गए वह तो फर्जी रक्षा सौदे का था। नि:संदेह यह नितांत फर्जी रक्षा सौदा था, जो न तो होना था और न हुआ, लेकिन उन्होंने जो एक लाख रुपये लिए वे तो असली थे। बंगारू लक्ष्मण लालच के सामने डिग गए। वह नैतिक रूप से भ्रष्ट साबित हुए। वह बेचारे भले ही माने जा रहे हों, लेकिन यह तथ्य है कि उन्होंने घूस ली और इसीलिए सजा के पात्र बने। उन्हें ऐसे समय सजा सुनाई गई जब बोफोर्स तोप सौदे में दलाली का मामला एक बार फिर सतह पर था।
परिणाम यह हुआ कि भाजपा-कांग्रेस में बंगारू-बोफोर्स को लेकर एक-दूसरे को कमतर बताने की होड़ शुरू हो गई। यह कुछ वैसी ही होड़ थी जैसे कीचड़ से निकले दो व्यक्ति इस आधार पर खुद को साफ-सुथरा बताने लगें कि तुम्हारी कमीज में मेरी कमीज से ज्यादा कीचड़ लगा है। यह भारतीय राजनीति का घटिया रूप है। भ्रष्टाचार करने-कराने और भ्रष्ट तत्वों को संरक्षण देने के मामले में सारे दल करीब-करीब एक जैसे हैं। भाजपा-कांग्रेस में कुछ ज्यादा ही समानता है। देश का दुर्भाग्य है कि यह समानता खत्म होती नहीं दिखती। दरअसल इसी कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई ठोस पहल भी नहीं हो रही। बंगारूलक्ष्मण बेचारे हैं या नहीं, इस पर विवाद-बहस होती रहेगी, लेकिन यह तय मानिए कि जिन्होंने असली रक्षा सौदे में करोड़ों डकार लिए उन्हें सजा मिलनी मुश्किल है। यह अच्छा है कि टाट्रा ट्रक सौदे की जांच शुरू हो गई है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं। अब देश दशकों तक देखेगा कि इस घोटाले में लिप्त माने जा रहे लोग किस तरह अदालत-अदालत खेलते हैं। बोफोर्स तोप तो तब भी बढि़या थी। टाट्रा ट्रक तो घटिया बताए जा रहे हैं। हमने घटिया माल भी खरीदा और करोड़ों गंवाए भी। क्या किसी को इसमें संदेह है कि भ्रष्टाचार तरक्की पर है?
राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं
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