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हरियाणा में बिजली की दरों में मामूली बढ़ोतरी के बावजूद बिजली निगमों को घाटा बना ही रहेगा। इससे भी बड़ा मसला बिजली संकट का है। राज्य को जितनी बिजली की जरूरत है, उतनी बिजली उसके पास है नहीं। मुश्किल यह है कि बिजली की जरूरत लगातार बढ़ती जा रही है, जबकि उसकी आपूर्ति के लिए कोई उपाय दिखाई नहीं दे रहा है। हरियाणा में बिजली की मांग पहले 7 से 8 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ती रही है, लेकिन अब वृद्धि की यह दर 14 प्रतिशत वार्षिक हो गई है। यही नहीं, दिल्ली से सटे उसके गुड़गांव और फरीदाबाद शहरों में तो यह मांग 25 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। जबकि उत्पादन के मामले में हरियाणा के पास कोई खास स्त्रोत नहीं हैं। बिजली उत्पादन के लिए आवश्यक प्राकृतिक स्त्रोत ही हरियाणा के पास बहुत मामूली हैं। इसके पास सीमित थर्मल उत्पादन क्षमता पर निर्भर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। पनबिजली परियोजना अभी तक हरियाणा में कोई है ही नहीं। हालांकि अब मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा इस दिशा में सोच रहे हैं। उन्होंने हाल ही में कहा है कि वे दूसरे राज्यों के साथ मिलकर पनबिजली परियोजना शुरू करने पर विचार कर रहे हैं। अगर इस दिशा में कोई कदम उठाया जाता है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। इन संभावनाओं का जिक्र हुड्डा ने हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित पावर विजन 2012 सम्मेलन में किया था।
हरियाणा सरकार अपने राज्य में पनबिजली परियोजनाएं शुरू करने के लिए वस्तुत: हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर का सहयोग लेना चाहती है। मुख्यमंत्री के प्रयासों को देखते हुए ऐसा लगता है कि वे वास्तव में इसके प्रति गंभीर हैं और इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने का उनका इरादा भी है। यह उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि हरियाणा की बिजली उत्पादन की क्षमता पिछले पांच-छह वर्षो में दूनी से भी अधिक बढ़ी है और अभी इसे इन्हीं हालात में और आगे बढ़ाने का उनका इरादा है। ऐसा तब है, जबकि हरियाणा में बिजली उत्पादन के लिए आवश्यक संसाधन ही उपलब्ध नहीं हैं। न तो यहां बिजली उत्पादन के लिए पानी है और न कोयले की खदानें ही कोई निकट हैं। वायु से भी बिजली बना पाने की सुविधा फिलहाल हरियाणा में नहीं है। इसके बावजूद वहां कुछ भी और जैसे भी हो सकता है, वह करने की कोशिश अवश्य हो रही है।
चीनी मिलों से भी बिजली उत्पादन की कोशिश हरियाणा में सफलतापूर्वक चल रही है और हाल ही में प्रदेश में करीब छह करोड़ यूनिट बिजली उत्पादन की सूचना मिली थी। यह बिजली संयंत्रों को आपूर्ति की गई। दूसरे राज्यों के सहयोग से पनबिजली बनाने की मुख्यमंत्री की सोच वाकई स्वागत योग्य है। बेहतर तो यह है कि सभी राज्यों को इस दिशा में सोचना चाहिए। अगर भारत के सभी राज्य आपस में अपने संसाधनों के सुविचारित बंटवारे की दिशा में सोच सकें तो न केवल बिजली, बल्कि कई और समस्याएं भी हल हो जाएंगी। कई आधारभूत समस्याएं हमारे देश में केवल इसीलिए हैं क्योंकि हम अपने संसाधनों को ठीक से वितरण नहीं कर पा रहे हैं। इन आधारभूत समस्याओं में बिजली, सिंचाई, अनाज और सड़क से लेकर पेयजल और बाढ़ तक शामिल हैं। अगर पूरे देश के हिसाब से देखें तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत में कमी किसी चीज की नहीं है, लेकिन हर स्तर पर केवल दो कारण हमारे सभी संकटों के मूल में हैं। इनमें पहला संसाधनों के समुचित वितरण में आड़े आ रही क्षुद्र स्वार्थो की राजनीति है और दूसरा कुप्रबंधन। अगर जनता के स्तर पर देखा जाए तो इसमें किसी प्रकार का कोई एतराज भी किसी को नहीं है। आम जनता का इस बात से कोई मतलब आम तौर पर नहीं होता है कि पंजाब का पानी हरियाणा या हिमाचल ले, या कर्नाटक का पानी आंध्र या तमिलनाडु ले या फिर महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश या बिहार के लोग नौकरियां या व्यवसाय कर रहे हों।
आम जनता आम तौर पर पूरे देश को उसकी समग्रता में ही देखती है और वैसे ही देखते रहना चाहती है। उसके सामने संकट केवल तब आ जाता है जब कुछ लोग रातोरात बड़े नेता बनने और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के फेर में कोई झूठमूठ का बवाल खड़ा कर देते हैं। अब यह बात भी जाहिर होने लग गई है कि छोटी-छोटी बातों को लेकर हिंसा फैलाने की ऐसे लोग पूरी तैयारी पहले से रखते हैं। आगे जनता इनके दुष्प्रचार के फेर में फंसकर अनुकरण के लिए विवश हो जाती है और इसका ही नतीजा है जो बिना बात बवाल हो जाते हैं। प्राकृतिक संसाधनों के सम्यक वितरण को लेकर राज्यों के बीच अक्सर उठने वाले सवाल भी कुछ ऐसे ही हैं। अगर हमें अपनी समस्याओं से पार पाना है और विकसित देशों की श्रेणी में खड़े होना है तो फिर ऐसे सवालों से जूझना सीखना होगा। न केवल आम जनता, बल्कि नेताओं को भी। उन राजनेताओं को ऐसे अराजक तत्वों पर काबू पाना होगा जो राजनीति के लिए किसी शॉर्टकट की तलाश में हैं और देश को पीछे की ओर धकेल रहे हैं। अभी स्थिति यह है कि देश के बड़े और गंभीर राजनेता क्षुद्र सोच वाले कुछ लोगों द्वारा तैयार किए गए ओछी मानसिकता वाले एजेंडे को पूरा करते दिखाई दे रहे हैं।
राजनेताओं को इन पर नियंत्रण करना सीखना होगा, न कि इनसे नियंत्रित होते रहना है। उन पर नियंत्रण करके ही प्राकृतिक संसाधनों का सही तरीके से आपस में साझेदारी का रास्ता निकाला जा सकेगा। पहले यह बात समझ लेनी जरूरी है कि राज्यों के बीच प्राकृतिक संसाधनों का लेन-देन कोई किसी का हक लेने-देने जैसी बात नहीं, बल्कि आपसी साझेदारी का मामला है। अगर हम आपस में यह साझेदारी शांतिपूर्वक कर लें तो अपनी कई समस्याएं बिना किसी विदेशी मदद के हल कर लेंगे। सच तो यह है कि यह प्रक्रिया हमें एक न एक दिन सीखनी होगी। इसे जितनी जल्दी हम सीख लें, उतना ही बेहतर होगा। अगर राजनेता वाकई जनता की भलाई और देश के विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं तो उन्हें चुनाव, पार्टी और गुट जैसी संकीर्ण मानसिकता से उबरना होगा। जब भी इस तरह का प्रयास कहीं से हो तो उसे हतोत्साहित करने के बजाय प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अगर देश को वास्तव में विकास की दिशा में ले जाना है तो राजनेताओं को यह आदत डालनी होगी कि वे देशहित को पार्टी हितों से ऊपर रखें। इसके लिए सभी को मिलकर ऐसे प्रयासों को बल देना चाहिए। यह बात केवल हरियाणा के मुख्यमंत्री के इस प्रयास के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि ऐसे सभी प्रयासों के मामले में होनी चाहिए। ऐसे प्रयासों का खुले मन से स्वागत करके ही हम देश को विकास के रास्ते पर ले जा सकेंगे।
लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं
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