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लोकतांत्रिक प्रक्रिया में मध्यवर्ग

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हवाई वायदों और बेजा तुष्टीकरण के जरिये मतदाताओं को भरमाने की नीति त्यागना समय की जरूरत बता रहे हैं निशिकान्त ठाकुर


बीते सप्ताह विधानसभा के लिए दो प्रदेशों में मतदान संपन्न हुआ। सुखद आश्चर्य की बात है कि दोनों ही प्रदेशों में मतदान का प्रतिशत अप्रत्याशित रूप से उत्साहजनक रहा। उत्तराखंड में कुछ लोगों के बहिष्कार के बावजूद 70 प्रतिशत मतदान हुआ और पंजाब में तो यह 78 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गया। ऐसा तब हुआ जबकि इस बार निर्वाचन आयोग ने बहुत तरह की पाबंदियां लगा रखी थीं। निर्वाचन निर्विघ्न, स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से संपन्न हो सके तथा इस दौरान अराजक तत्व किसी प्रकार की हिंसा न कर सकें, इसके लिए चुनाव आयोग ने पूरी सख्ती बरती थी। मतदान के संबंध में लोगों के अपना मन बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित न किया जा सके, यह सुनिश्चित करने के लिए प्रत्याशियों या पार्टियों की ओर से मतदाताओं को वाहन आदि भी उपलब्ध नहीं कराने दिए गए। इतनी सख्ती के बीच भी इतना भारी मतदान होना यह जाहिर करता है कि लोग अपने लोकतांत्रिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुए हैं। लोगों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ है और इसीलिए वे अपने कर्तव्य के निर्वाह के लिए स्वयं आगे बढ़ रहे हैं। निश्चित रूप से इसमें शिक्षा के प्रसार की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही इसके लिए मीडिया द्वारा चलाए गए जागरूकता अभियान तथा चुनाव आयोग की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है।


आम तौर पर भारतीय लोकतंत्र का अनुभव यह रहा है कि जब भी कहीं बड़े पैमाने पर मतदान हुआ तो वहां बदलाव हुआ है। इसीलिए इसे अक्सर मौजूदा विधायक अथवा सांसद या राज्य अथवा केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के प्रति मतदाताओं के गुस्से के रूप में देखा जाने लगा है। राजनीतिक विश्लेषक इस बार भी इसे ऐसे ही संदर्भो से जोड़ कर देखने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ लोग तो इसे सत्ता विरोधी लहर के रूप में देखने का प्रयास भी कर रहे हैं। उनका विश्लेषण कितना सही है और कितना गलत है, फिलहाल इस पर विचार करने का हमारा इरादा नहीं है। किसी भी प्रदेश सरकार के कायरें और दायित्वों का दायरा बहुत विस्तृत होता है। सबकी सभी अपेक्षाओं पर खरा उतर पाना किसी भी सरकार के वश की बात नहीं है। इसलिए किसी भी सरकार के प्रति लोगों के मन में विरोध की भावना का होना अस्वाभाविक नहीं है। ठीक इसी तरह हर सरकार कुछ न कुछ ऐसा भी जरूर करती है जिससे अधिकतर लोग लाभान्वित होते हैं। अगर सभी नहीं तो समाज के एक-दो तबके तो जरूर लाभान्वित होते हैं। इसलिए अनेक लोगों के सरकार के समर्थन में मतदान करने की बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।


इन दो संभावनाओं के इतर इसे एक अन्य रूप में भी देखा जाना चाहिए। वह है लोगों की अपने अधिकारों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के प्रति जागरूकता। इसे अपने प्रतिनिधियों के चयन और अपनी सरकार के गठन में सक्रिय भागीदारी की भावना के रूप में देखा जाना चाहिए। वास्तव में यह इस बात का प्रतीक है कि लोगों को अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों का एहसास हुआ है। आम जनता ने यह बात समझी है कि सरकार की कामयाबी पर केवल उसकी तारीफ करना या नाकामियों पर बैठे-बैठे खीजते रहना कोई समाधान नहीं है। अगर हम अपनी मनपसंद सरकार लाना चाहते हैं या नाकाम सरकार को सबक सिखाना चाहते हैं तो मतदान के दिन छुट्टी मनाने के बजाय लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय हिस्सेदारी करनी होगी। लोग तो करेंगे ही, एक हमारे मतदान करने या न करने से क्या होता है, इस सोच से उबरना होगा। यह समझ शिक्षा के प्रसार तथा मीडिया की जागरूकता मुहिम के चलते ही आई है। शिक्षा के प्रति भी भारतीय समाज में जिस तरह जागरूकता बढ़ी है उसे देखते हुए लगता है कि अगले दो दशकों में हम शत-प्रतिशत शिक्षा का लक्ष्य भी हासिल कर ही लेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर शत-प्रतिशत शिक्षा का लक्ष्य हासिल किया जा सके तो शत-प्रतिशत मतदान भी अपने आप होने लगेगा। तभी संपूर्ण समाज का आर्थिक विकास भी हो सकेगा।


इतनी बड़ी संख्या में मतदान होने का साफ मतलब है कि इस बार वह वर्ग भी भारी संख्या में मतदान केंद्रों तक पहुंचा है जिसे मतदान न करने के लिए कोसा जाता रहा है। पूरे देश में यह धारणा सी बन गई है कि मध्यवर्ग बेहद आरामतलब है। वह अपनी अनिवार्य जिम्मेदारियों और जरूरी लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रयोग के लिए भी विपरीत मौसम एवं परिस्थितियां झेलने को तैयार नहीं है। लेकिन पंजाब और उत्तराखंड में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की ऐसी सफलता मध्यवर्ग की हिस्सेदारी के बगैर संभव नहीं है। मध्यवर्ग ने अब यह बात समझ ली है कि इस दिन आलस्य करके असल में वह पूरे पांच साल के लिए अपने ही हितों के साथ खिलवाड़ करता है। इस समझ से उपजी सोच ने ही मतदान के लिए सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति के तौर पर काम किया है। ऐसी समझ को विकसित करने में मीडिया ने भी अपनी जिम्मेदारी निभाई तथा चुनाव आयोग ने इसके लिए एक भयमुक्त माहौल उपलब्ध कराया। निश्चित रूप में इसके पीछे सरकार के अपने सार्थक प्रयासों और विभिन्न जनसंगठनों के आंदोलनों की भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।


मध्यवर्ग की ऐसी जागरूकता राजनीतिक संदर्भ में दूरगामी परिणामों की ओर भी संकेत करती है। दुनिया के किसी भी समाज में हुए किसी भी बड़े बदलाव के पीछे हमेशा मध्यमवर्ग की ही बड़ी भूमिका रही है। इसकी वजह यह है कि अपने संदर्भ में मध्यवर्ग का जोर हमेशा शिक्षा पर ही रहा है। शिक्षित होने के नाते वह दुनिया की नवीनतम सोच को अपनाने और बदलाव का बिगुल बजाने में भी आगे रहा है।


भारतीय राजनीति में अब तक उसकी भूमिका लगभग निष्क्रियता की रही है। चुनाव लड़ना तो दूर, वह मतदान तक नहीं करता रहा है। चुनाव लड़ने से दूर भागने के पीछे उसकी अपनी कुछ मजबूरियां रही हैं। एक तो पिछले दशकों में चुनावी प्रक्रिया में धनबल का प्रयोग जिस तरह बढ़ा है, उसमें किसी मध्यवर्ग के व्यक्ति का ठहर पाना संभव नहीं रहा है। इसके पहले अराजक तत्वों का बोलबाला और हिंसा के खेल से भी वह डरा हुआ था। लेकिन इधर चुनाव आयोग की सार्थक सक्रियता और राजनेताओं की नई पीढ़ी में उच्च शिक्षित लोगों की बढ़ती संख्या ने उसे भय के इन दोनों कारणों से मुक्त किया है।


सच तो यह है कि अब मध्यवर्ग राजनीतिक प्रक्रिया में हर स्तर पर सक्रिय भागीदारी के लिए स्वयं को तैयार कर रहा है। इस बार उत्तर प्रदेश के चुनावी परिदृश्य में कई उच्च शिक्षित लोगों के देखे जाने की पूरी संभावना है। बहुत हद तक संभव है कि इसमें मध्यवर्ग से भी कई लोग हों। इससे जहां एक तरफ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सबकी आस्था बढ़ने की बात जाहिर होती है, वहीं रूढि़वादी राजनेताओं के लिए यह खतरे की घंटी भी है। उन लोगों को अब संभल जाना चाहिए जो अब तक बिना किसी कार्ययोजना के हवाई वायदों और बेजा तुष्टीकरण के जरिये मतदाताओं को भरमाने की नीति पर चलते रहे हैं। क्योंकि भारत की आम जनता अब सिर्फ विकल्प की तलाश तक ही सीमित नहीं रहने वाली है, वह स्वयं विकल्प बनने की ओर भी बढ़ रही है। ऐसे परिदृश्य में उन राजनेताओं की क्या और कितनी भूमिका रह जाएगी जो जनता के प्रति सचमुच सहानुभूति नहीं रखते, इस पर नए सिरे से विचार की जरूरत है।


लेखक निशिकान्त ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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