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स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कराने में जुटे चुनाव आयोग की मुश्किलें बयान कर रहे हैं संजय गुप्त
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की सरगर्मी चरम पर जाती दिख रही है। इस सरगर्मी के बीच चुनाव आयोग इस पर पैनी नजर बनाए हुए है कि राजनीतिक दल मतदाताओं को अनुचित ढंग से प्रभावित कर उनका अपने पक्ष में ध्रुवीकरण न कर सकें, लेकिन उसके कुछ निर्णय चकित भी कर रहे हैं। सबसे अधिक चकित किया उत्तर प्रदेश में मायावती और हाथियों की मूर्तियों को ढकने के उसके आदेश ने। इस आदेश पर यथासंभव अमल भी हो गया, लेकिन उसकी निरर्थकता भी दिख रही है। जब लखनऊ और नोएडा के पार्को में मायावती अपनी और हाथियों को मूर्तियां स्थापित करा रही थीं तब पूरा देश यह जान रहा था कि आगे चलकर ये पार्क बसपा के प्रचार का माध्यम बनेंगे। पिछले वर्ष इन पार्को का उद्घाटन हो गया और लोगों ने वहां जाना भी शुरू कर दिया। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद किसी ने भी इन पार्को में स्थापित मायावती और हाथियों की मूर्तियों को मुद्दा नहीं बनाया, लेकिन जब चुनाव आयोग ने उन्हें ढकने का आदेश इस आधार पर दिया कि उनका निर्माण सरकारी पैसे से सरकारी भूमि पर किया गया है तो सभी का ध्यान उनकी ओर गया। चूंकि लखनऊ और नोएडा में मायावती और हाथियों की पॉलीथीन से ढकी मूर्तियां लोगों का ध्यान पहले की अपेक्षा अधिक आकृष्ट करने के साथ-साथ चर्चा का विषय बन गई हैं इसलिए चुनाव आयोग की पहल निरर्थक साबित हो रही है।
दशकों पुराने अन्य स्मारकों और पार्को के विपरीत मायावती द्वारा स्थापित पार्को और स्मारकों को आम आदमी उनकी राजनीतिक महत्ता के हिसाब से भी देख रहा था। जब ये पार्क और स्मारक निर्मित हो रहे थे कुछ विरोधी दलों ने यह कहा था कि यदि वे सत्ता में आए तो उन्हें हटा दिया जाएगा। इस पर मायावती ने इन पार्को और स्मारकों को दलित स्वाभिमान के प्रतीक स्थल बताकर एक ऐसी राजनीतिक चाल चली जिसकी काट किसी के पास नहीं। दलित समाज के लिए ये स्थल सचमुच उनके स्वाभिमान के प्रतीक बन गए हैं और आज कोई भी दल उन्हें हटाने की बात नहीं कह सकता। यह स्वाभाविक है कि चुनाव आयोग का आदेश दलित समाज और विशेष रूप से बसपा से जुड़े वर्ग को उद्वेलित कर रहा हो। शायद यही कारण है कि चुनाव आयोग के आदेश को बसपा अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रही है।
चुनाव आयोग ने एक अन्य निर्णय के तहत चुनाव होने तक केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक आरक्षण संबंधी निर्णय पर रोक लगा दी। इसके तहत अल्पसंख्यकों को अन्य पिछड़ा वर्गो के 27 प्रतिशत आरक्षण में से साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया गया था। यह फैसला चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के दो दिन पहले ही लिया गया और इसका उद्देश्य विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यकों और विशेष रूप से मुसलमानों को प्रभावित करना था। इसके पहले लोकपाल विधेयक में भी अल्पसंख्यक समाज को आरक्षण का प्रावधान किया गया था। कांग्रेस यह तर्क दे रही है कि उसने ये फैसले चुनाव संबंधी आचार संहिता लागू होने के पहले लिए थे, लेकिन सच्चाई यही है कि इन फैसलों के जरिये मुस्लिम मतदाताओं को रिझाया गया। कांग्रेस यह भूल जाती है कि वह जब-जब मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए चुनावों की पूर्व संध्या पर ऐसे फैसले लेगी तब-तब भाजपा हिंदुत्व का मुद्दा उठाकर मतदाताओं का अपने पक्ष में धु्रवीकरण करने की कोशिश करेगी। इस पर आश्चर्य नहीं कि भाजपा नेता उमा भारती ने कांग्रेस पर समाज को मजहब के आधार पर बांटने और एक और विभाजन की आधारशिला रखने का आरोप लगाया। हालांकि मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने का काम सपा-बसपा भी करती हैं, लेकिन भाजपा तीखे तेवर तब अपनाती है जब कांग्रेस इन दोनों दलों की राह पर चलने लगती है। कांग्रेस केवल अल्पसंख्यकों को साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण पर ही नहीं रुकी, केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने चुनाव प्रचार के दौरान यह घोषणा करनी भी शुरू कर दी कि यदि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई तो वह मुसलमानों को नौ प्रतिशत आरक्षण देगी। इस पर जब चुनाव आयोग ने उन्हें नोटिस दिया तो उन्होंने उसकी खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी। इस पर मुख्य चुनाव आयुक्त ने न केवल प्रधानमंत्री से उनकी शिकायत की, बल्कि चुनाव तक अल्पसंख्यक आरक्षण के अमल पर रोक भी लगा दी।
हालांकि कांग्रेस को सलमान खुर्शीद के बयान को उनका निजी विचार बताना पड़ा और प्रधानमंत्री को भी मुख्य चुनाव आयुक्त को पत्र लिखकर स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी, लेकिन यह हर कोई महसूस कर रहा है कि यदि चुनाव आयोग को केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक आरक्षण संबंधी फैसले पर रोक लगानी थी तो चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करते ही लगा देनी चाहिए थी। चुनाव आयोग ने यह फैसला लेने में जो देर की उसका परिणाम यह है कि अब अल्पसंख्यक आरक्षण एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बन चुका है। कांग्रेस और भाजपा अपनी-अपनी तरह से अल्पसंख्यक आरक्षण का जिक्र कर रहे हैं। किसी के लिए भी इसे रोकना कठिन है।
चुनाव आयोग ने चुनावों में धन के इस्तेमाल को रोकने के लिए पुलिस और आयकर विभाग की मदद से जो अभियान चलाया हुआ है उसे खासी सफलता मिल रही है। यह पैसा उस रकम का बहुत छोटा हिस्सा है जो चुनाव में चोरी-छिपे खर्च किया जाएगा। खुद चुनाव आयोग यह मान रहा है कि पंजाब, उत्तर प्रदेश और गोवा में धन का इस्तेमाल रोकना कठिन है। नि:संदेह चुनावों में धनबल का इस्तेमाल रुकना चाहिए, लेकिन खर्च सीमा को व्यावहारिक बनाए बगैर चुनावों में धनबल रोकना मुश्किल है। चुनाव आयोग के लिए यह संभव नहीं कि ज्यादा खर्च वाले प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने से रोक दे, क्योंकि ऐसे फैसलों से निर्वाचन प्रक्रिया ही ठप पड़ जाएगी।
चुनाव आयोग की मुश्किलें इसलिए बढ़ती जा रही हैं, क्योंकि वांछित चुनाव सुधार दो दशक से अटके हैं। न तो चुनाव खर्च सीमा व्यावहारिक हो पा रही है, न आपराधिक इतिहास वाले लोगों को चुनाव लड़ने से रोका जा पा रहा है। राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना का मुद्दा भी चर्चा से बाहर है। राजनीतिक दलों के रवैये के कारण न तो लंबित चुनाव सुधार आगे बढ़ पा रहे हैं और न ही गठबंधन राजनीति के नियम-कानून तय हो पा रहे हैं। सच तो यह है कि राजनीतिक दल इस बारे में चर्चा भी नहीं करना चाहते। हालांकि अटके पड़े चुनाव सुधारों के कारण विकृत होते लोकतंत्र से चुनाव आयोग चिंतित है, लेकिन चुनाव सुधार तो तभी हो सकेंगे जब राजनीतिक दल इस बारे में चिंता करेंगे और उन्हें आगे बढ़ाएंगे।
इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं
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