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बीते बरस का बड़ा सवाल

संपादकीय ब्लॉग
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Sanjay Guptलोकपाल विधेयक के मसले पर पूरे राजनीतिक वर्ग के रवैये पर सवाल खड़े कर रहे है संजय गुप्त


लोकपाल विधेयक का जैसा हश्र लोकसभा और फिर राज्यसभा में हुआ उससे यह साफ हो गया कि राजनीतिक दल यह चाह ही नहीं रहे थे कि यह विधेयक कानून में तब्दील हो। जहां सत्तापक्ष राज्यसभा में अपनी अल्पमत स्थिति से पूरी तरह परिचित होने के बावजूद विपक्ष की आपत्तियों को न मानने के लिए अड़ा रहा वहीं विपक्ष के साथ-साथ सरकार में शामिल दलों ने भी ऐसी चाल चली कि मौजूदा रूप में यह विधेयक पारित ही न होने पाए। लोकपाल के जिन मुद्दों पर दोनों पक्षों में विरोधाभास था उनमें एक लोकायुक्त संबंधी प्रावधान था और दूसरा सीबीआइ की स्वायत्ताता का। एक अन्य अहम मुद्दा लोकपाल के चयन और हटाने के अधिकार को लेकर था। लोकायुक्त के प्रावधान का कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को छोड़कर शेष सभी दल एकजुट होकर विरोध कर रहे थे। सत्तापक्ष इस प्रावधान को संसद की ओर से सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव की भावना के अनुरूप बता रहा था वहीं विपक्ष एवं सरकार के सहयोगी दल उसे राज्यों के अधिकारों पर अतिक्रमण और साथ ही संघीय ढांचे पर प्रहार करने वाला बता रहे थे। विपक्षी दलों की आपत्तिके कुछ तकनीकी आधार हो सकते हैं, लेकिन यह समझना कठिन है कि वे लोकपाल जैसा कानून राज्यों में क्यों नहीं चाह रहे? आखिर इसका क्या मतलब कि संघीय ढांचे की दुहाई देकर राजनीति और सरकारी मशीनरी में व्याप्त भ्रष्टाचार दूर करने वाली व्यवस्था केंद्र में अलग तरीके से बने और राज्यों में अलग तरीके से? क्या राज्यों का भ्रष्टाचार केंद्र के भ्रष्टाचार से अलग है?


आम जनता ने अन्ना हजारे के नेतृत्व में लोकपाल व्यवस्था बनाने का जो दबाव सरकार पर बनाया था और जिसके चलते संसद में एक प्रस्ताव पर सहमत हुआ गया था उसमें राज्यों में लोकायुक्त की स्थापना प्रमुख मांग थी। सत्तापक्ष के इस तर्क को सही कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के निर्माण संबंधी संयुक्त राष्ट्र संधि को अमल में लाने के लिए उसने लोकपाल के साथ लोकायुक्त का प्रावधान रखा, लेकिन बीते वर्ष का सबसे बड़ा सवाल यह है कि वह इससे जुड़ी आशंकाओं को दूर करने में नाकाम क्यों रहा? कोई नहीं जानता कि सरकार ने विपक्ष और साथ ही अपने सहयोगी दलों की यह मांग क्यों नहीं मानी कि दो राज्यों की सहमति के जरिये लोकपाल विधेयक संसद में लाया जाए ताकि अन्य राज्यों के लिए उसका अनुसरण करना आवश्यक हो जाए? लोकसभा में बहस के दौरान ही यह स्पष्ट हो गया था कि विपक्षी दल लोकपाल विधेयक के प्रारूप से संतुष्ट नहीं, लेकिन सरकार ने उनसे विचार-विमर्श करना जरूरी नहीं समझा और इसी कारण वह लोकपाल को संवैधानिक दर्जा नहीं दिला सकी। लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने संबंधी प्रस्ताव खारिज होने से सरकार की अच्छी खासी किरकिरी हुई, लेकिन उसने कुछ सबक सीखने के बजाय अडि़यल रवैया अपना लिया।


लोकपाल विधेयक पर विपक्षी दलों की यह आपत्तिभी सही थी कि सीबीआइ के सरकार के नियंत्रण में रहते हुए लोकपाल प्रभावी ढंग से जांच नहीं कर सकेगा। इस पर तो बहस हो सकती है कि सीबीआइ लोकपाल के दायरे में रहे या न रहे, लेकिन इसका तो कोई मतलब ही नहीं कि वह सरकार के नियंत्रण में बनी रहे। सीबीआइ को लेकर यह तर्क तो सही है कि इस एजेंसी के पास भ्रष्टाचार के अलावा अन्य मामले भी होते हैं अत: उसे लोकपाल के तहत नहीं रखा जा सकता, लेकिन क्या इसका यह मतलब है कि वह सरकार के अधीन बनी रहे? विपक्ष की यह आपत्तिभी सही थी कि लोकपाल के चयन और उसे हटाने का अधिकार केवल सरकार के पास नहीं रहना चाहिए था, लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी और वह भी तब जब उसे यह पता था कि राज्यसभा में वह विपक्ष और उनके साथ जा खड़े हुए अपने सहयोगी दलों के सामने अल्पमत में होगी? सरकार ने संसदीय समिति और फिर सर्वदलीय बैठक में तो विपक्ष से लोकपाल पर विचार विमर्श किया, लेकिन लोकसभा और राज्यसभा में उसने अपनी ही चलाई। यह भी आश्चर्यजनक है कि विपक्ष ने संसदीय समिति में लोकायुक्त के प्रावधान पर आपत्तिक्यों नहीं जताई? भले ही जनता को दिखाने के लिए राज्यसभा में लोकपाल पर रात 12 बजे तक जमकर बहस हुई हो, लेकिन सत्तापक्ष जिस तरह विपक्ष की आपत्तिायों को दूर न करने पर अड़ा रहा और विपक्ष 187 संशोधन लेकर आया उससे यह साफ हो गया कि दोनों ही पक्ष इस विधेयक को उलझाना चाहते थे।


पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा में विवाद का विषय बने मुद्दों का हल तलाशने की तनिक भी कोशिश न किए जाने से आम जनता यह मानने के लिए बाध्य हुई कि राजनीतिक दल लोकपाल संस्था का निर्माण नहीं होने देना चाहते। कुछ राजनीतिक दलों ने तो ऐसा साफ-साफ कहा भी। किसी ने कहा कि ऐसी किसी व्यवस्था की जरूरत ही नहीं और किसी ने कहा कि यह तो हमारे गले का फंदा बन जाएगा। इससे तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए तैयार ही नहीं और वे अपनी राजनीति के साथ-साथ सरकारी मशीनरी को भ्रष्टाचार के साथ ही चलाना चाहते हैं। राज्यसभा की कार्यवाही से देश को यही पता चला कि कानून बनाने वाली संसद किस तरह कानून बनाने से बचती है। अन्ना हजारे और उनके साथी तथा तमाम देशवासी भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक सुधार की जो परिकल्पना कर रहे हैं उससे राजनीतिक दल दूर भागते दिख रहे हैं। देश से वायदा करने के बावजूद लोकपाल के साथ भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाले अन्य कानून न बनाना आम जनता के मुंह पर तमाचा है। एक ऐसे समय जब आम आदमी आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नाकामी से पिस रहा है तब उसे यह संदेश दिया गया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है।


बीता वर्ष देश के साथ-साथ दुनिया के लिए भी अत्यधिक चुनौतीपूर्ण रहा। अमेरिका और यूरोप में चली आर्थिक उथल-पुथल ने पूरी दुनिया को मंदी की कगार पर ला खड़ा किया। आश्चर्यजनक रूप से भारत पर इसका कुछ ज्यादा ही असर पड़ा। देश की आर्थिक स्थिति इसलिए और खराब होती चली गई, क्योंकि सरकार जरूरी आर्थिक फैसले लेने में नाकाम रही। आर्थिक फैसलों में देरी के पीछे गठबंधन राजनीति की खामियां भी जिम्मेदार हैं। सरकार में शामिल घटक दल संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचने के लिए तैयार नहीं। केंद्र सरकार बीते वर्ष अनेक महत्वपूर्ण आर्थिक मसलों पर घटक दलों के दबाव में फैसले लेने से बचती रही और इसके दुष्परिणाम देश को भोगने पड़े। यदि गठबधन की राजनीति के नियम-कायदे निर्धारित नहीं किए जाते तो नए वर्ष में भी दबाव वाली यह राजनीति देश के विकास को रोक सकती है। लोकतात्रिक प्रक्रिया में यह स्वाभाविक भी है और उचित भी कि प्रत्येक दल के विचार सामने आएं, लेकिन राष्ट्रीय महत्व के मसलों को लटकाने का कोई मतलब नहीं। केंद्र सरकार देश को ध्यान में रखकर किसी निर्णय पर पहुंचती है, जबकि घटक दल अक्सर केवल अपने नफे-नुकसान की परवाह करते हैं। बेहतर हो कि आने वाले साल में गठबधन राजनीति को लेकर नए सिरे से चितन-मनन हो। यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि पाच राज्यों, विशेषकर उत्तार प्रदेश और पजाब के चुनाव के बाद गठबधन राजनीति की खामिया नए सिरे से उभर सकती हैं।


इस आलेख के लेखक संजय गुप्त हैं


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