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कुशासन का एक बरस

संपादकीय ब्लॉग
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Rajeev Sachanसुशासन के बड़े-बड़े वायदों के बावजूद भ्रष्टाचार और महंगाई के मोर्चे पर केंद्र सरकार के हाथ खाली देख रहे हैं राजीव सचान


अब यह और स्पष्ट होता जा रहा है कि केंद्र सरकार जिस तरह महंगाई और भ्रष्टाचार पर लगाम लगा पाने में नाकाम है उसी तरह आर्थिक समस्याओं का समाधान करने में भी अक्षम है। एक के बाद एक उद्यमी इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं कि मनमोहन सरकार में निर्णय लेने की प्रक्रिया शिथिल पड़ती जा रही है। हाल ही में यह बात मुकेश अंबानी ने कही। इसके पहले यही बात अजीम प्रेमजी, नारायण मूर्ति एवं अन्य प्रमुख उद्यमी कह चुके हैं। कुछ तो इस संदर्भ में प्रधानमंत्री को चिट्ठी भी लिख चुके हैं, लेकिन सरकार अपनी गलती मानने के बजाय इन उद्यमियों को ही गलत ठहराने में लगी हुई है। उसका कुछ ऐसा ही रवैया महंगाई और भ्रष्टाचार के मामले में भी है। महंगाई बढ़ने के कारणों पर वह इतने बहाने बना चुकी है कि अब आम जनता इस नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश है कि केंद्र सरकार ने इस काम में अर्थात बहाने गढ़ने में महारत हासिल कर ली है। हाल ही में खुद वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने इस धारणा को तब और पुख्ता किया जब उन्होंने यह कहा कि त्यौहारों के कारण महंगाई बढ़ी है। भ्रष्टाचार के मामले में बहाने तो नहीं बनाए जा रहे, लेकिन कोरे आश्वासन अवश्य दिए जा रहे हैं।


पिछले वर्ष दिसंबर में कांग्रेस के पूर्ण अधिवेशन के मंच से जब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए सख्त कदम उठाने की बात कही थी तो देश को यह भरोसा हुआ था कि कुछ न कुछ अवश्य किया जाएगा, लेकिन दिसंबर आने वाला है और सरकार के पास इस बारे में बताने के लिए कुछ भी नहीं है कि उसने भ्रष्टाचार को थामने के लिए क्या किया है? यह तब है जब मजबूत लोकपाल व्यवस्था के लिए अन्ना हजारे देश को आंदोलित करने के साथ ही केंद्र सरकार को शर्मिदा भी कर चुके हैं। अभी भी किसी को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि शीतकालीन सत्र की समाप्ति के साथ ही देश के पास एक मजबूत लोकपाल व्यवस्था होगी। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की मानें तो ऐसा होने में तीन-चार माह लगेंगे। कहीं इसका यह मतलब तो नहीं कि इस सत्र में लोकपाल विधेयक तो आएगा, लेकिन वह पारित नहीं होगा? पता नहीं सच क्या है, लेकिन कभी-कभी यह लगता है कि अन्ना हजारे और उनके साथियों की बेचैनी सही है। उनका उतावलापन गलत भी हो सकता है, लेकिन क्या इसका यह अर्थ है कि उन्हें बदनाम किया जाए? केंद्र सरकार न सही, उसका नेतृत्व करने वाली कांग्रेस यही कर रही है। उसके सबसे मुखर और ताकतवर समझे जाने वाले महासचिव का एकसूत्रीय एजेंडा अन्ना को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आदमी साबित करना है। क्या कांग्रेस में यह संभव है कि पार्टी के न चाहने के बावजूद उसके महासचिव किसी पर कीचड़ उछालते रहें?


अन्ना हजारे पर कीचड़ उछालने में जुटे कांग्रेसी नेताओं का कुछ बिगड़े या न बिगड़े, कांग्रेस की छवि जरूर बिगड़ रही है, क्योंकि आम जनता को यह संदेश जा रहा है कि अन्ना को लांछित करने का काम कांग्रेस नेतृत्व के इशारे पर हो रहा है। कांग्रेस अन्ना को लांछित करने के लिए जितनी मेहनत कर रही है उससे आधी मेहनत भी यदि उसने केंद्रीय सत्ता को सक्रिय-सजग बनाने में की होती तो शायद आज हालात दूसरे होते। कांग्रेस विरोधी दलों और खासकर गैर कांग्रेसी राज्यों पर हमलावर है, लेकिन अपने राजनीतिक विरोधियों पर उसका गर्जन-तर्जन तब व्यर्थ नजर आने लगता है जब उसे येद्दयुरप्पा का भ्रष्टाचार तो नजर आता है, लेकिन गोवा के मुख्यमंत्री का नहीं। वह उत्तर प्रदेश में मायावती के कुशासन पर तो आगबबूला होती है, लेकिन उसे राजस्थान में अशोक गहलोत का कुशासन नजर नहीं आता।


फूलपुर में राहुल गांधी की रैली के पहले इलाहाबाद में लगाया गया बैनर-माता बीमार मंत्रिमंडल लाचार संबंधित कांग्रेस नेता की शरारत अथवा उसके अल्पज्ञान का नतीजा हो सकता है, लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल की लाचारी को लेकर अब कोई संदेह नहीं रह गया है। समस्या इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि केंद्र सरकार शासन करने की इच्छाशक्ति का भी प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। पीछे मुड़कर देखें तो करीब एक वर्ष पहले तक हालात इतने खराब नहीं थे। हालांकि राष्ट्रमंडल खेल घोटाले ने मनमोहन सरकार की छवि पर बुरा असर डाला था, लेकिन इन खेलों के समापन के साथ ही जिस तरह घोटालों की जांच के आदेश दिए गए थे उससे यह उम्मीद बंधी थी कि सरकार बिगड़ी बात बनाने के लिए संकल्पबद्ध है। दुर्भाग्य से इस संकल्पबद्धता का प्रदर्शन होता कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में कुछ सनसनीखेज खुलासे सामने आ गए। इन खुलासों ने सरकार को पंगु बना दिया। धीरे-धीरे पूरी सरकार पर अकर्मण्यता तारी हो गई और वह तब भी दूर नहीं हुई जब खुद मनमोहन सिंह ने कहा कि वह लाचार प्रधानमंत्री नहीं हैं। दरअसल उनकी इस सफाई ने संदेह बढ़ाने का काम किया और हालात तब और बिगड़ गए जब यह स्पष्ट हुआ कि प्रधानमंत्री चाहते तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को रोक सकते थे। इस घोटाले को रोकने में प्रधानमंत्री की असफलता ने उनकी सबसे बड़ी पूंजी अर्थात उनकी नेकनीयती का हरण कर लिया। देश न चाहते हुए भी यह मानने को विवश हुआ कि प्रधानमंत्री अपने इर्द-गिर्द के बेईमानों पर लगाम लगा पाने में समर्थ नहीं। प्रधानमंत्री की छवि का क्षरण होने के साथ ही उनके काबिल मंत्रियों की भी कलई खुलने लगी। कपिल सिब्बल, पी. चिदंबरम और संकटमोचक कहे जाने वाले प्रणब मुखर्जी आज उतने ही निस्तेज-निष्प्रभावी नजर आते हैं जितने खुद प्रधानमंत्री। यदि कांग्रेस खुद के साथ केंद्रीय सत्ता को संकट से उबारना चाहती है तो उसे एक बरस पीछे लौटकर देखना होगा कि उससे क्या गलती हुई, क्योंकि संभवत: उसकी दिशाहीनता और अकर्मण्यता की जड़ें उन्हीं गलतियों में छिपी हुई हैं।


लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं


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