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जान-माल पर भारी पड़ता भरोसा

संपादकीय ब्लॉग
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Nishikant Thakur ट्रेनों में होने वाली जहरखुरानी एक आम समस्या है। जाने कितने लोग थोड़ी-सी लापरवाही के चलते अपना धन व कीमती सामान तो खोते ही हैं, जान से भी हाथ धो बैठते हैं। इस तरह की घटनाएं किसी एक क्षेत्र में नहीं, बल्कि पूरे देश में दिन होती रहती हैं। रेलवे के फिरोजपुर मंडल ने इससे निपटने और यात्रियों की सुरक्षा के लिए विशेष कदम उठाए हैं। इसके तहत रेलवे अब अमृतसर, लुधियाना, जालंधर और जम्मू रेलवे स्टेशनों पर आने-जाने वाली सभी मुख्य ट्रेनों की विडियोग्राफी करेगी। निश्चित रूप से रेलवे का यह प्रयास सराहनीय है और अगर उसके सुरक्षा बल भी पूरी तरह मुस्तैद हो जाएं तो ट्रेनों में होने वाली लूटपाट व जहरखुरानी जैसी दुर्घटनाओं को बहुत हद तक रोका जा सकेगा। हालांकि इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए सिर्फ यही पर्याप्त नहीं है। रेलवे या पुलिस-प्रशासन से ज्यादा जरूरी इस सिलसिले में यात्रियों-नागरिकों की स्वयं अपनी जागरूकता है। क्योंकि अधिकतर ऐसी घटनाओं को अंजाम धोखाधड़ी के जरिये दिया जाता है और इसका मुख्य कारण हमारा सहज विश्वास बनता है।


देश भर में आए दिन घटने वाली घटनाओं पर नजर डालें तो मालूम होता है कि न केवल जहरखुरानी, बल्कि सीधे हत्या व छिनैती की तमाम घटनाएं आए दिन रेलवे के दायरे से बाहर भी होती रहती हैं। मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली ये घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं कि देश में कानून-व्यवस्था की क्या स्थिति है तथा मनुष्यता के नैतिक मूल्य किस तरह पीछे छूटते जा रहे हैं। कई बार ऐसी ही धोखाधड़ी पुश्तैनी या पुराने झगड़ों में की जाती है। हाल ही में लुधियाना में एक ऐसे गिरोह के पकड़े जाने की खबर मिली थी, जो सुपारी लेकर हत्याएं करता था। ये इतने निर्मम लोग थे जिन्हें एक-दो लाख रुपये लेकर किसी के हाथ-पांव काट देने में भी गुरेज नहीं था। यह सिर्फ एक गिरोह की बात नहीं है और लुधियाना अकेला ऐसा शहर भी नहीं है, जहां इस तरह के गिरोह हों। देश के लगभग हर राज्य और शहर में, यहां तक कि ग्रामीण इलाकों में भी दिल दहला देने वाली ऐसी घटनाएं होती हैं। शहरों में ऐसे हादसे प्लॉट, फ्लैट या गाडि़यां टकराने पर होते हैं तो गांवों में खेत-मेड़ या नहर के झगड़ों के चलते हो जाते हैं। ठीक उस समय समझदारी कहीं नहीं बरती जाती और देखते-देखते बहुत बड़ी दुर्घटना घट जाती है। जब भी ऐसी कोई घटना होती है तो हम आम तौर पर उसके लिए सरकार को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऐसी घटनाएं बढ़ने के लिए सरकार जिम्मेदार होती भी है।


देश में कानून-व्यवस्था का अनुपालन सुनिश्चित करना और शांति-व्यवस्था बनाए रखना किसी भी सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है। लेकिन हमें यह बात भी स्वीकार करनी होगी कि सरकार की इस विफलता के लिए सबसे पहले जिम्मेदार हम स्वयं होते हैं। यह कौन सरकार कहती है कि आप खुद अपनी सुरक्षा का ध्यान न रखें? ज्यादा नहीं, अगर कुछ घटनाओं का ही विश्लेषण कर लें तो इसका पता चल जाता है। हाल में पकड़े गए लुधियाना के इस गिरोह का ही मुख्य कार्य विवादित जमीनों पर कब्जा कराना है। सवाल यह है कि इसकी जरूरत किन्हें और क्यों पड़ती है? आमतौर पर यह स्थिति तभी आती है, जब कोई व्यक्ति या तो कोई विवादित जमीन खरीद लेता है या जबरिया उस पर कब्जा करना चाहता है। हर राज्य में नियम है कि कोई जमीन खरीदने से पहले आप उसके बारे में पूरी जानकारी हासिल कर लें। जानकारी न केवल पूछताछ के जरिये, बल्कि वैधानिक माध्यमों से भी पुख्ता कर ली जानी चाहिए। इसके बावजूद लोग यह कार्य नहीं करते और बेचने वाले या उसके दलालों की बात पर भरोसा करते हुए जमीन खरीदने की कार्यवाही शुरू कर देते हैं। कई बार तो लोग जमीन का पूरा दाम तक चुका देते हैं और उसके कागजात नहीं देखते और न ले ही पाते हैं।


वर्षो बाद जब उन्हें पता चलता है कि वे तो ठगे गए, तो फिर गंुडे-बदमाशों के जरिये संपत्ति पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं। न केवल शहरों, बल्कि समूचे भारतीय समाज का यह सच है कि अधिकतर अपराधों के पीछे बड़ी वजह जमीन से संबंधित विवाद होते हैं। गांवों में कई जगहों पर हदबंदी के ठोस उपाय न होने के कारण कुछ दबंग लोग जबर्दस्ती कब्जे की साजिश करते देखे जाते हैं, तो कमजोर लोग अकसर इसके प्रतिरोध में खड़े होते हैं। इसी उपक्रम में कई बार भयावह स्थितियां बन जाती हैं। फिर यह बात केवल संपत्ति तक ही सीमित नहीं रह जाती है, इसे आगे आन-बान से जोड़ा जाने लगता है और ऐसे झगड़े कई पीढि़यों तक खिंचते हैं। फिर केवल हत्याएं ही नहीं, जाने कितने तरह के जघन्य अपराध होते चले जाते हैं। इसके विपरीत शुरुआती दौर में ही अगर जालसाजों के बहकावे में न आकर पूरी एहतियात बरती जाए तो हमेशा के लिए सुकून हासिल किया जा सकता है। जिन मामलों में भरोसा सिर्फ दस्तावेजों पर किया जाना चाहिए, उनमें किसी व्यक्ति की बात को कोई महत्व देने का कोई अर्थ नहीं है। ठीक इसी तरह रास्ते में चलते समय भी किसी जरूरतमंद की मदद कर देना और बात है, लेकिन सुरक्षा उपायों को दरकिनार कर किसी पर भरोसा कर लेना अलग बात है। बहुत दिन नहीं हुए, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ही एक ऐसा गिरोह पकड़ा गया था जो रेलवे स्टेशन पर रात में ट्रेन से उतरने वाले यात्रियों को अपना शिकार बनाता था। वे खाली टैक्सी के बहाने कम किराये का लालच देकर उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा लेते। इसके बाद किसी सुनसान जगह पर पहुंच कर धन तो लूटते ही, हत्या भी कर देते। इसके बावजूद यह देखा जाता है कि आम तौर पर लोग ऐसे वाहनों की सेवाएं लेते ही रहते हैं, जिनका उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।


कई बार सहयात्री के रूप में दोस्ताना व्यवहार करके भी ऐसे गिरोह आम लोगों को लूट लेते हैं। ऐसी घटनाएं आए दिन होती रहती हैं और हम सभी इनकी खबरें भी अखबारों में पढ़ते रहते हैं। इसके बावजूद खुद वक्त आने पर भूल जाते हैं। सच तो यह है कि हम भारतीय लोग 21वीं सदी में भी स्वयं अपनी सुरक्षा के मामले में 16वीं शताब्दी के उपाय अपनाए चले आ रहे हैं। हम अभी भी वैसे ही रास्ते चलते किसी भी व्यक्ति पर विश्वास कर लेते हैं, जैसे मध्यकाल में लोग किया करते थे। सोचने की बात है कि इस हाइटेक दौर में ऐसे विश्वास के लिए स्थान कहां है? अभी भी नियम-कानून को ताक पर रख कर चलना और मामूली बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेना हमारी सामान्य आदत है। बहुत छोटी-छोटी बातों को लेकर लोग मरने-मारने पर उतर आते हैं। हालांकि अगर उसी समय विवेक का उपयोग किया जाए तो ऐसी कई घटनाएं टाली जा सकती हैं। जब तक ऐसे मामलों में हम स्वयं सतर्कता नहीं बरतेंगे और स्वयं अपने विवेक का उपयोग नहीं करेंगे, तब तक कोई भी सरकार न तो अपराधों पर पूरा नियंत्रण कर पाएगी और न ही हमारी सुरक्षा के प्रभावी उपाय।


लेखक निशिकांत ठाकुर दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं


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