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सक्षम देश का अक्षम नेतृत्व

संपादकीय ब्लॉग
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“भारत के लिए एबटाबाद सरीखी कार्रवाई क्यों दूर की कौड़ी है, इसकी तह में जा रहे हैं आर विक्रम सिंह.”


ओसामा के ठिकाने पर हमले से पहले अमेरिका को चाहिए था कि वह पाकिस्तान को ओसामा के वहां होने के सबूतों की खेप पहुंचाता जैसा कि हमने 26/11 मुंबई हमले के बाद किया था। नाहक उन्होंने व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले को राष्ट्रीय मुद्दा बनाते हुए युद्ध घोषित कर दिया और 30 खरब डालर खर्च कर डाले। अच्छा होता अगर वह हमारी तरह मरे हुए लोगों के परिवारों को मुआवजा और सरकारी नौकरी देकर झगड़ा खत्म करता। हमसे वह भी तो कुछ सीख सकता है!


क्या हम कभी अमेरिका की तरह अपने शत्रुओं पर हमला कर पाएंगे? ओसामा तो गया, दाऊद को बचाकर रखो-आइएसआइ का नया मंत्र मालूम पड़ता है। इसीलिए शुजा पाशा हमें धमकियां दे रहे है। भारत पर हमले की योजनाओं का उन्होंने रिहर्सल भी कर रखा है। हमारी परेशानी यह है कि हम अमेरिकी उपलब्धियों से अपनी तुलना तो करते हैं, लेकिन यह नहीं देखते कि हमारी और उसकी सोच में जमीन-आसमान का फर्क है। 1947 में कश्मीर पर कबायली हमले के साथ ही हमारी जो सोच सामने आई वह आज भी कायम है। हमारी सेनाओं को जब गिलगित बालतिस्तान तक पहुंच जाने का मौका था तो हमने उन्हें उड़ी में ही रोक दिया और कश्मीर मुद्दे को लेकर सयुक्त राष्ट्र में चले गए। सेनाएं कश्मीर को मुक्त करा ले जातीं, लेकिन हमारे नेतृत्व को न जाने क्यों यह गवारा नहीं था। हम अपने नेताओं में रणनीति और राष्ट्रहित की समझ न होने के दुष्परिणाम झेलते रहे हैं। मिश्च के राष्ट्रपति नासिर ने जब स्वेज नहर पर कब्जा किया तो उन्हें अंदाजा था कि कितने बड़े अंतरराष्ट्रीय प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। नासिर झुके नहीं। इस विजय ने नासिर को नासिर बनाया। 1965 और 1971 के युद्धों की सैन्य उपलब्धियों को हमने अंतरराष्ट्रीय दबाव में गवाया है। अगर 1971 का युद्ध 15 दिन और चलता तो शायद पाकिस्तान चार राष्ट्रों में बटा होता।


अमेरिका ने अपनी रणनीतिक आवश्यकताओं के मद्देनजर पाकिस्तानी परमाणु अभियान की जानबूझकर अनदेखी की। पाकिस्तान को लेकर अमेरिकी नीतियों में परिवर्तन की निकट भविष्य में कोई गुंजाइश नहीं है। अफगानिस्तान से वापसी तक अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत है। लादेन का आठ वषरें से पाकिस्तान में रहना पाकिस्तानी सेना की शह पर ही सभव हुआ है। उसके बाद भी यदि अमेरिका खून का घूंट पीकर उसे अपना रणनीतिक साथी बता रहा है तो इसके पीछे भूराजनीतिक बाध्यताएं हैं। पाकिस्तान का तो जवाब नहीं। जिस अलकायदा सरगना को वह पनाह देता रहा, उसी के विरुद्ध अभियान में वह अमेरिका का पार्टनर भी है। मैकियावेली भी पाकिस्तान के सामने स्कूली छात्र हैं।


अपने अंदरूनी हालात के बावजूद पाकिस्तानी सेना अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा बड़ी मजबूती से कर रही है। अफगान समस्या का ऐसा उपयोग उन्होंने किया है कि अमेरिका उन्हें अपना रणनीतिक साथी बनाए रखने के लिए मजबूर है। चीन से भी उनके संबंध इतने गहरे हैं कि गुलाम कश्मीर में चीनी अब रक्षा दायित्व निभाने की ओर बढ़ रहे हैं। पहले स्टेपल वीजा विवाद, अब चीनी सेनाएं! हम कश्मीर को घिरते हुए नहीं देख पा रहे हैं। कश्मीर के लिए उनकी सयुक्त तैयारियां सामने है। उन्हे अफगानिस्तान से बस अमेरिका प्रस्थान का इंतजार है। इसके तुरंत बाद कश्मीर मोर्चा खुलेगा। पाकिस्तान की रणनीतिक मशा तो कश्मीर को समाहित कर और अफगानिस्तान को अपने पाले में लेकर एक सशक्त देश के रूप में उभरने की है। इसे वह ‘सामरिक गहराई’ का खूबसूरत सा नाम देता है। पाकिस्तान सेना इस महत्वाकाक्षा के प्रति प्रतिबद्ध प्रतीत होती है। पाकिस्तान का कारगिल ऑपरेशन इसी उद्देश्य को लेकर किया गया प्रयास रहा है। मुशर्रफ को मालूम था कि भारत के पास परमाणु बम हैं। उन्हें यह भी ज्ञान था कि भारतीय सेना सशक्त प्रतिवाद करने की स्थिति में है। फिर भी उन्होंने कारगिल में घुसपैठ की। वह ऐसा इसलिए कर सके, क्योंकि उन्हें हमारे नेतृत्व की सोच का भी अच्छी तरह पता रहा होगा। रणनीतिक सोच वाले राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए तो कारगिल का पाकिस्तानी एडवेंचर एक स्वर्णिम अवसर भी हो सकता था। कारण, युद्ध हमने प्रारंभ नहीं किया था। हम अपने क्षेत्र को मुक्त कराते हुए उन क्षेत्रों तक भी पहुंच सकते थे, जिनका उपयोग भविष्य के हमलों के लिए पाकिस्तान कर सकता था। इसी हल्ले में हम सियाचिन के झगड़े का समाधान कर सकते थे, लेकिन हम एक बार फिर 1947 की तरह शाति के पुजारी बनने लगे। हमने अपनी ही सेनाओं को प्रतिबधित कर दिया कि तुम एलओसी पार नहीं करोगे। हम भूल गए कि एलओसी के पार का भी इलाका कश्मीर का ही हिस्सा है।


हमारी इसी सोच का अगला उदाहरण 26/11 को मुंबई पर हुआ पाकिस्तानी हमला है। यह पाकिस्तानी सरकार का ऑपरेशन था, इसमें अब सदेह की गुजाइश नहीं है। अगर अमेरिका ने 9/11 और मुंबई हमले को एक ही तराजू से तौलने से इंकार किया है तो इसके लिए सिर्फ हम जिम्मेदार हैं। हमने अमेरिका से ऐसी उम्मीद क्यों लगा रखी है कि हमारी लड़ाई जो हम खुद नहीं लड़ रहे हैं वह अमेरिका लड़ेगा। इजरायल जैसे देश ने द्वितीय विश्वयुद्ध के यहूदियों के हत्यारे नाजियों को दुनियाभर में खोज-खोजकर मारा। एक हम हैं जो सुबूतों, साक्ष्यों, गवाहों की फाइलें बनाते रहे। गाधीवाद के बोझ से दबी राजनीति ने यहां सामरिक हितों की कोई समझ ही नहीं पैदा होने दी।


सेना प्रमुख जनरल वीके सिह का बयान है कि हमारी सेनाएं एबटाबाद जैसी कार्रवाई करने में सक्षम है। सवाल है कि इस सक्षमता का उपयोग क्या है? सेनाएं उतनी ही शक्तिशाली होती हैं, जितनी कि हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति। वह सोच जो 1947 में मुजफ्फराबाद की ओर बढ़ती हुई सेनाओं को उड़ी में रोक देती है, जो 1965 में लाहौर पर कब्जा नहीं करती, जो 1971 में इकतरफा युद्धविराम घोषित करती है, जो कारगिल में अपने ही सैनिकों के हाथ बाध देती है, उस मानसिकता को बदले बगैर सीमापार आतकी ठिकानों पर हमला कर पाना सिर्फ दूर की कौड़ी है।


ऐसा लगता है कि जैसे हम एक मुर्दा गांव के मुर्दा निवासी हों। हम अनगिनत आतकी हमलों में मारे गए साथियों की लाशें उठाते रहे। समस्याओं के समाधान के लिए हम पहल के बजाय प्रतिक्रिया ही करते रहे हैं। अगर पहल की गई होती तो पाकिस्तान आज हमारी चुनौती न बन पाता। हमारी सत्ताओं ने राष्ट्रीय हित, राष्ट्रीय अस्मिता और सम्मान को प्राथमिकता नहीं दी। हम जानते ही नहीं कि आर्थिक शक्ति को किस प्रकार सशक्त सामरिक शक्ति में बदला जा सकता है। एक प्रसिद्ध पद है, ‘साधो ई मुरदन के गांव..’। संत कबीर की यह पंक्ति जैसे कबीर ग्रंथावली से उठकर हमारे भाग्य के साथ नत्थी हो गई है।


[लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं]

साभार: जागरण नज़रिया

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