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देश में ऑनर किलिग के नाम पर जान लेने को पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने बर्बर और शर्मनाक करार दिया था। उच्चतम न्यायालय ने तो यहां तक कह दिया था कि यदि इस तरह की घटनाओं पर नियंत्रण न हो रहा हो तो राज्य सरकार वहां के जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक को निलबित कर दे। शीर्ष अदालत ने उत्तर भारत के राज्यों तथा तमिलनाडु की खाप पचायतों को कंगारू कोर्ट की सज्ञा देते हुए अपने फैसले में उन्हें पूरी तरह गैर कानूनी ठहराया था। अब न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने बेटी की हत्या करने वाले पिता की उम्रकैद बरकरार रखते हुए निचली अदालतों को सख्त संदेश दिया है। केवल इतना ही नहीं पीठ ने इस फैसले की प्रति सभी हाईकोर्ट, सेशन व एडिशनल जजों और राज्य के मुख्य व गृह सचिवों सहित पुलिस महानिदेशकों को भी भेजने के निर्देश दिए हैं। शीर्ष अदालत ने साफ कहा है कि ऐसे मामलों को दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी में रखकर आरोपियों को मौत की सजा दी जानी चाहिए। आंकड़े बताते हैं कि विगत 90 दिनों में जाति व गोत्र की इज्जत बचाने के नाम पर 20 से भी अधिक शादीशुदा प्रेमी-युगलों की हत्याकर दी गई। अगर हम इन ऑनर किलिग का गुणा-भाग करें तो प्रत्येक चार-पांच दिनों में एक हत्या का ग्राफ सामने आता है। पिछले दिनों लदन मेट्रोपोलिटन विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित एक कांफ्रेंस में चडीगढ़ से आए दो विधि विशेषज्ञों ने साफतौर पर कहा था कि भारत में हर साल एक हजार से भी अधिक युवा लड़के-लड़कियों की इज्जत की खातिर हत्या कर दी जाती है।
पिछले दिनों भी एक गैर सरकारी सस्था शक्तिवाहिनी की ओर से दाखिल एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र समेत नौ राज्यों को अर्थात हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पजाब, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड व छत्तीसगढ़ इत्यादि की सरकारों को एक नोटिस जारी करते हुए चार सप्ताह में जवाब मांगा था। साथ ही एक अन्य याचिका में भी ऑनर किलिग को रोकने के उपायों के साथ में प्रेमी युगलों को सुरक्षा देने की मांग भी की गई थी। हालांकि इन ऑनर किलिग को रोकने के लिए कानून बनाने का मसौदा भी केंद्र सरकार के पास तैयार है, परंतु इज्जत के नाम पर होने वाली इस हिंसा के खिलाफ अब सहमति बनाने का समय आ गया है। इस समय समाजवैज्ञानिकों के सामने यह बहुत बड़ी चिता का विषय है कि आखिर आधुनिकता पर परंपराएं इतनी हावी क्यों हो रही हैं? जिन्हें हम ऑनर किलिग कह रहे हैं, क्या उनका ऑनर से कुछ लेना-देना है? जब हमने परखनली शिशु, किराए की कोख, पुरुष शुक्राणु बैंक, समलैंगिक जीवन तथा सहजीवन विवाह जैसी आधुनिक प्रवृत्तियों से तालमेल बैठा लिया तो फिर सगोत्रीय व सपिडीय विवाह को लेकर इतना बवाल क्यों है? इन प्रश्नों की जांच-पड़ताल के साथ में इन मुद्दों पर बौद्धिक चर्चा होना भी समय की मांग है।
उत्तर भारत इस समय जाति व गोत्रविहीन समाज के नए प्रेम की अघोषित लड़ाई लड़ रहा है। यह सब अनायास ही नहीं है। सामाजिक परिवर्तन का यह दौर प्रत्येक कालखंड में रहा है। वर्तमान समाज वैश्विक स्तर के आधुनिक समाज का आकार ग्रहण कर रहा हैं। यह भी सच है कि वैश्विक स्तर पर समाज व राष्ट्रों की परिधियां टूट रहीं हैं। नया बाजार मास मीडिया के माध्यम से सामाजिक वर्जनाओं पर तेजी से प्रहार कर रहा है। वर्तमान में गांव व शहरों के बीच एक विलगाव न होकर एक निरंतरता विकसित हो रही है। स्वभावत: जाति व वर्गो का ढांचा भी दरक रहा है। उत्तर भारत भी इसका अपवाद नहीं है। यहां का समाज आज भी कृषकीय व्यवस्था पर आधारित है। आज वैश्विक समाज की संस्कृति तथा सेवा क्षेत्र के नए-नए आयाम कृषकीय व्यवस्था को बहुत बड़ी चुनौती दे रहें हैं।
आज खाप पचायतें यदि हिंदू विवाह अधिनियम-1955 के सगोत्र व सपिंड विवाह के ढांचे में परिवर्तन पर अड़ी हैं तो यह भी अनायास ही नहीं है। गहराई से पड़ताल बताती है कि देश की राजधानी के करीब हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पजाब और यहां तक कि मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान जैसे राज्यों में कृषि भूमि का स्वामित्व व प्रबधन जाति तथा लिग भेद से सीधा सबध रखता है। प्रमुख रूप से यहीं वे राज्य हैं जहां इज्जत के नाम पर की जाने वाली हत्याओं में सर्वाधिक वृद्धि हो रही है। यहां भूमि का स्वामित्व अभी भी उच्च जातियों के हाथ में है। कृषि की यही भूमि उनकी शक्ति व प्रभुत्व की सूचक है। इनकी प्रकृति आज भी जनजातीय हैं। इनकी सामुदायिक शक्ति के सामने राजनीति भी नतमस्तक है।
ग्रामीण कृषक व्यवस्था के लोकमन में रचे-बसे लोग भविष्य में इस कृषि भूमि के प्रबधन को लेकर आशंकित हैं। इन क्षेत्रों में कन्या भ्रूण हत्या भी उनकी इसी आशंका का प्रतिफलन है। उभरते नए आधुनिक समाज के उदार मन और आकर्षक जीवन शैली ने इन युवाओं को उदारमना बनाकर स्वतत्र जीवन जीने के नए-नए प्रतिमान गढ़े हैं। आधुनिक दुनिया के नए-नए उपकरण, नूतन मोबाइल, पोशाक, भाषा- शैली व नए रंग-ढंग के सामने इन्हें जाति व गोत्र के मुद्दे बेकार नजर आते हैं। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि उत्तर भारत के जिन -जिन राज्यों में ऑनर किलिग बढ़ रही हैं वहां-वहां खापों की हत्यारी मानसिकता के पीछे कृषकीय व्यवस्था से जुड़ी जाति व गोत्र की परंपराओं और मर्यादाओं के नष्ट होने का बहुत बड़ा खतरा है। ऑनर किलिग से जुड़ा समाजशास्त्रीय निष्कर्ष यह सकेत देता है कि खाप मानसिकता से जुड़े लोग चूंकि आधुनिक पीढ़ी की प्रगतिशीलता के बढ़ते कदमों को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, परिणामत: अतीतवाद और परंपरावाद से जुडे़ मुद्दे प्रतिक्रियावादी सस्कृति का निर्माण कर रहे हैं। ऑनर किलिग उसी का एक हिस्सा है। कड़वा सच यह है कि राज्य की विधायिकाओं की चुप्पी इन खाप पचायतों को प्राणवायु देने का कार्य कर रहीं हैं।
[डॉ. विशेष गुप्ता: लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक है]
साभार: जागरण नज़रिया
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