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समय-समय पर किसानों के खूनों को गर्म करने वाली भूमि अधिग्रहण एकतरफा कार्यवाही है. केंद्र और सभी राज्यों का नजरिया भूमि अधिग्रहण पर लगभग एक जैसा है, उनका मानना है कि किसी भी सार्वजनिक कार्य के लिए हम किसानों की भूमि को जब्त कर सकते हैं. इस संदर्भ में उनका दृष्टिकोण बिल्डर, कांट्रेक्टर और निजी कंपनियों के लिए कुछ ज्यादा लचीला है. सबसे अधिक नाराज करने वाली बात यह है कि किसानों की उपजाऊ भूमि उद्योग, सड़कें, टाउनशिप आदि के लिए सरकार ले तो लेती है लेकिन इसके संबंध में दिया जाने वाला मुआवजा किसानों के हित में नहीं होता. किसानों को मामूली मुआवजा देकर उनके अपने जमीन से बेदखल कर दिया जाता है. उधर सरकार इन जमीनों को ऊंची कीमतों में बेच देती है.
भूमि अधिग्रहण को लेकर जो कानून हमारे देश में है वह ब्रितानी राज का है, जो 1894 में बना था. यह उस समय इसलिए बनाया गया था ताकि ब्रितानी कंपनियों को भूमि अधिग्रहण करने में कोई समस्या न हो. उसके बाद केवल एक बार 1984 इसमें संशोधन हुआ था. तब से लेकर अब तक उस पर विचार तो होता है लेकिन कार्यवाही नहीं होती और जानबूझकर भूमि अधिग्रहण कानून के संशोधन में देरी की जाती है.
एक समस्या यह भी है कि किसानों के इस मसले पर विभिन्न राजनीतिक दल अपने रोटियों को सेंकने में पीछे नहीं रहते. वह अधिग्रहण के समय पर तो किसानों को अधिक मुआवजे देने की बात करते हैं लेकिन जब कार्यवाही की बारी आती है तो वह स्वयं पीछे हट जाते हैं. आज जो राजनीति दल ग्रेटर नोएडा के किसानों के लिए सहानुभूति दिखा रहे हैं वही अगर किसानों के मुआवजे के लिए काम करते तो अच्छा होता.
भारत के कई हिस्सों में विभिन्न परियोजनाओं के लिए किसानों और आदिवासियों की जमीनों को अधिग्रहित किया जाता है. इसको लेकर कई बड़े विवाद भी खड़े होते हैं जिससे सरकार को किसानों के आन्दोलन का सामना करना पड़ा है चाहे वो नंदीग्राम हो, सिंगुर हो, या फिर नोएडा के पास भट्टा परसौल गांव किसानों ने पूरे भारत को जता दिया कि अधिग्रहण का यह तरीका अत्यंत गलत है.
यह सही है कि आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण अत्यंत आवश्यक है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि किसानों के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार किया जाए. जरुरत है ब्रितानी काल से चली आ रही भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की और किसानों के साथ न्याय करने की अन्यथा यह क्षेत्रीय आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप धारण कर सकता है. भूमि अधिग्रहण करना सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है, यह सही है लेकिन किसानों को इसकी सजा क्यों भुगतनी पड़ती है. अगर खेती की ज़मीन पर यों ही उद्योग, सड़कें, टाउनशिप बनते रहे तो क्या देश में खाद्य सुरक्षा को ख़तरा पैदा नहीं हो जाएगा.
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