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भरोसेमंद नेतृत्व की तलाश

संपादकीय ब्लॉग
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यदि हम राजनीति का अन्ना हजारे तलाशें तो निगाह किसकी तरफ उठेगी? यहां अन्ना हजारे का मतलब है भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाला ऐसा राष्ट्रीय व्यक्तित्व, जिसका अपना दामन भी पाक-साफ हो। इस खोज की जरूरत आज इसलिए पहले से कहीं ज्यादा महसूस हो रही है, क्योंकि भारतीय जनता का साबका इससे पूर्व कभी भी भ्रष्टाचार की इस तरह के अनवरत सिलसिले से नहीं हुआ। भ्रष्टाचार पहले भी था। उसकी चर्चा हुई और विरोध भी। राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने बोफोर्स कांड के कारण ही सत्ता खोई थी, लेकिन आज तो कुछ ऐसा लग रहा है मानो कि हमारी कॉलोनी कभी कब्रिस्तान रही भूमि पर बनी हो। अब जहां कहीं भी थोड़ी सी खुदाई करते हैं, हड्डी का एक टुकड़ा हाथ में आ जाता है।


उस देश की जनता की असहायता का अंदाजा लगाया जा सकता है जिसकी सर्वोच्च कार्यकारी शक्ति यानी कि प्रधानमंत्री स्वयं में इतने लाचार और दयनीय दिखाई दे रहे हों। सामूहिक ईमानदारी को सुनिश्चित किए बिना क्या व्यक्तिगत ईमानदारी को ही पर्याप्त माना जा सकता है? पब्लिक जानती है कि सत्ता की बागडोर किसके हाथ में है। इस बारे में किसी तरह का भ्रम पालना खुद को धोखा देने से कम नहीं है। एक समय था, जब सोनिया गांधी ने हाथ आई हुई सत्ता की बागडोर मनमोहन सिंह को थमाकर हिंदुस्तान के लोगों के दिलों पर फतह हासिल कर ली थी। उसके बाद के इन छह सालों के दौरान लोगों को जो भी देखने और सुनने को मिला, उससे उनकी तब की वह छवि बुरी तरह खंडित हुई है। लोगों को आज यह विश्वास हो चला है कि वह तात्कालिक त्याग भविष्य के किसी बड़े लाभ के लिए उठाया गया कदम था। पिछले कुछ सालों में राहुल गांधी को जिस तरह सामने लाने की कोशिशें की गईं वह इसका एक छोटा सा प्रमाण है, लेकिन आज स्थिति यह है कि राहुल गांधी को काग्रेस की ओर से भारत का भावी प्रधानमंत्री घोषित करने से पहले कांग्रेस के छत्रपों को थोड़ा रुककर विचार करना पड़ेगा। हां, युवाओं का नेतृत्व कर रहे राहुल गांधी प्रधानमंत्री की इस दौड़ में आगे निकल गए होते, यदि उन्होंने अन्ना हजारे की तरह भ्रष्टाचार का विरोध करने का बीड़ा उठा लिया होता, लेकिन उनके सामने धर्मसंकट यह था कि ऐसा करना अपने ही सरकार के विरुद्ध झडा उठाना मान लिया गया होता। इसलिए राज्यों की छोटी-छोटी असफलताओं और अव्यवस्थाओं पर वक्तव्य देने वाले राहुल को इस राष्ट्रव्यापी संकट के लिए कोई स्टेटमेंट नहीं सूझा। निश्चित रूप से राहुल गांधी ने आंदोलन खड़ा करने का एक ऐसा सुनहरा मौका खो दिया है, जो संयोग से उनकी ही पार्टी ने उन्हें उपलब्ध कराया था। अभी तो ठीक है, लेकिन भविष्य में जनता उनसे अपने इस सवाल का जवाब जरूर मांगेगी, क्योंकि इसका संतोषजनक उत्तर पाए बिना लोग राहुल को अपनी आशंका के घेरे से मुक्त नहीं कर सकेंगे।


आदर्श सोसायटी घोटाले में राज्य के मुखिया से इस्तीफा मांगकर नाप-तौल बराबर कर लिया गया, क्योंकि विकल्प मौजूद था। इसी नियम को दिल्ली के तख्त पर यदि लागू नहीं किया गया तो सोचिए कि क्यों? इसलिए, क्योंकि फिलहाल कांग्रेस के पास मनमोहन सिंह का कोई विकल्प नहीं है और मनमोहन सिंह की एकमात्र राजनीतिक योग्यता यह है कि इस काजल की कोठरी में अभी तक ‘मि. क्लीन’ दिखाई पड़ रहे हैं। यदि खुदा न खास्ता सरकार गिर जाए और नए चुनाव कराए जाएं, हालांकि ऐसा होगा नहीं, क्योंकि ऐसा कोई नहीं चाहेगा तो मनमोहन सिंह में भी वह क्षमता नहीं है कि अपनी पार्टी की नैया को पार लगा देंगे। इस कड़वे सच को काग्रेस को स्वीकार करना ही चाहिए कि उसकी विश्वसनीयता उसके अब तक के सवा सौ साल के इतिहास में निम्नतम तल पर है।


तो यहां सवाल यह उठता है कि यदि कांग्रेस नहीं तो फिर कौन? यदि हम इसका उत्तर राजनीतिक दलों के आधार पर देना चाहें तो विकल्प के रूप में सिर्फ एक ही पार्टी का नाम बचता है और वह है भारतीय जनता पार्टी। कुछ लोग तीसरे मोर्चे का नाम ले सकते हैं, लेकिन पिछले लगभग दो दशकों में इस मोर्चे ने अपनी वैचारिक निष्ठा के प्रति जो ढुलमुल रवैया दिखाया है, उसने उसकी विश्वसनीयता को काफी धक्का पहुंचाया है। क्या बीजेपी के लिए भी दस, रेसकोर्स रोड की मजिल इतनी आसान है? इसका उत्तर पाने के लिए हमें अपने पहले वाले प्रश्न के उत्तर की नए सिरे से तलाश करनी पड़ेगी और यह नया छोर हमें भारतीय राजनीति में पिछले कुछ सालों से आए सूक्ष्म परिवर्तनों और वर्तमान की सबसे सघन आवश्यकता में मिलेगा। धीरे-धीरे राजनीतिक दलों की वैचारिक धाराएं अस्पष्ट सी होकर एक-दूसरे से घुलने-मिलने लगी हैं। उनकी स्पष्टताएं और निष्ठाएं कम हुई हैं। इनका रुख अवसरवादिता की ओर हो गया है। इस कारण दलों की प्रतिष्ठा कम हुई है और उसके स्थान पर व्यक्ति प्रबल होता जा रहा है। हालांकि राष्ट्रीय नेतृत्व के मामले में पं. नेहरू और इंदिरा गाधी के साथ भी यही बात थी। अब वह पुन: प्रबल हो रही है और राष्ट्रीय नेतृत्व के संदर्भ में तो और भी अधिक।


अब हम आते हैं कि कैसा व्यक्तित्व? भारत के सामने आज जो सबसे बड़ी चुनौती है वह भ्रष्टाचार की है। गरीबी और सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे पुराने पड़ गए हैं। बिहार में नीतीश कुमार का पुनरागमन इसका स्पष्ट सकेत है कि यदि जनता को कोई ईमानदार विकल्प उपलब्ध कराया जाए तो वह उसे लपक लेगी। इसे कमोवेश एक अच्छी स्थिति कहा जा सकता है कि कर्नाटक जैसे राज्यों के छुटपुट मामले तथा ट्रस्टों को जमीन देने जैसी अनियमिताओं के अलावा बीजेपी के ऊपर बहुत बड़े घोटालों के आरोप नहीं लगे हैं। यह केवल एक तुलनात्मक वक्तव्य है। यदि हम जमीनी राजनीति की बात करें तो फिलहाल ईमानदारी एव भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने के प्रश्न पर राष्ट्र के सामने दो राजनीतिक व्यक्तित्व उपस्थित हैं, नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार। भले ही मोदी अभी तक अपनी पंथनिरपेक्षता वाली छवि को राष्ट्रीय स्तर पर पूरी तरह से स्थापित नहीं कर पाए हैं, किंतु पहले वाली कट्टर छवि में काफी सुधार आया है। साथ ही पिछले एक दशक के शासन के दौरान उन्होंने स्वय को जिस तरह से एक ‘विकास पुरुष’ एव ‘ईमानदार कार्यकारी’ के रूप में स्थापित किया है उसमें विवाद की गुंजाइश अब नहीं रह गई है। इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रश्न पर जब जनता के सोचने की बात आती है तो उसकी चेतना मे जो व्यक्तित्व उभरता है वह होता है नरेंद्र मोदी। समय की अपनी मांग होती है। कभी नेता पैदा होते हैं तो कभी समय नेता को पैदा करता है। अभी के समय की माग एक ऐसे नेता की है जो जनता को विश्वास दिला सके कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ेगा। अन्ना हजारे को मिले जन समर्थन ने इसका प्रमाण भी दे दिया है।


[डॉ. विजय अग्रवाल: लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं]


साभार: जागरण नज़रिया


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