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भारतीय नववर्ष विक्रम संवत 2068 बहुत शुभ मुहूर्त में प्रारंभ हुआ है, जब सारा देश विजयोत्सव में लीन होने का कारण पा सका। क्रिकेट में विश्व विजेता बनना नि:सदेह आनंद का विषय है और देश के करोड़ों लोगों को गौरवान्वित करने वाली महेंद्र सिह धौनी की टीम पर यश तथा धन की वर्षा सहज और स्वाभाविक है, जिसे दीवाली के दिये मानकर स्वीकार करना चहिए, लेकिन भारत को इस विश्व विजय से आगे के मुकाम भी तय करने है। क्रिकेट भारत का पर्याय नहीं हो सकता और सोचना होगा कि ओलंपिक पदक तालिका में सबसे नीचे रहने वाला देश क्रिकेट अतिरेक में बाकी खेलों को तो नजरअंदाज नहीं कर रहा है? फुटबाल, हाकी, खो-खो और एथलेटिक्स में फिसड्डी रहने वाला समाज क्रिकेट के जिन धुरंधरों के आगे फिदा हो रहा है, क्या उसे वहीं रुक कर कुछ और भी खेलों पर पैसा तथा ध्यान लगाने के बारे में नहीं सोचना चहिए?
सवा अरब भारतीयों के धड़कते दिल जिस विजय की खुशी को चाहते थे, वह पाकर उनके नए आत्मविश्वास को पख लगे और हिम्मत से आगे बढ़ते जाते भारत का परिचय मिला। यह नई पीढ़ी इतिहास का बोझा ढोना नहीं चाहती, राजनीति के सड़-गल चुके मुहावरों, भाषा और लक्ष्यों को बदलना चाहती है। धनकुबेरों और दरबारियों की दासता में जकड़ी सामंतशाही को लोकतंत्र का पाखंड मानकर वह उस नए चेहरे वाली राजनीति का विश्व कप चाहती है जहां सचिन तेंदुलकर, महेद्र सिंह धौनी, गौतम गंभीर और विराट कोहली जैसे दमादम मस्त कलंदर ताजगी तथा ईमानदार मेहनत से जीत हासिल करें, न कि भ्रष्टाचार और चुगलखोरी पर टिकी तिकड़मबाजी से।
जैसे महेंद्र सिह धौनी ने क्रिकेट विश्वकप में अपनी विजय का श्रेय अपनी मा को दिया, ठीक वैसे ही बदलते भारत की नींव में उन तपस्वियों का जीवन-धन लगा है, जिन्होंने कभी सम्मान और पद की कामना न करते हुए देश की विजय-कामना को मरने न दिया। इनमें स्वामी नारायण संप्रदाय के सन्यासी, राष्ट्रीय स्वयसेवक सघ के प्रचारक, गायत्री परिवार के नैतिक तपस्वी तथा ऐसे अनेक सगठनों के समर्पित लोग शामिल हैं, जो बिना किसी मदद के स्वत:स्फूर्त सेनानी बने हैं। आखिर अन्ना हजारे को इस वृद्धावस्था में देश के लाखों नौजवानों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध युद्धरत करने की क्या जरूरत थी? उनके साथ हर शहर और चौपाल के ऐसे लोग जुड़े हैं जो बिना राजनीतिक पाखंड के, बिना अन्ना से कभी मिले, सिर्फ भारत को साफ-सुथरे स्वाभिमानी देश के रूप में देखना चाहते है। वे अपनी जेब से खर्च कर देश को बेहतर बनाने के लिए सक्रिय हो रहे है। स्वामीनारायण संप्रदाय में चार्टर्ड एकाउंटेंट, एमबीए, इंजीनियर और डॉक्टर तरुण सन्यासी बनकर वनवासियों, दलितों की सेवा के लिए ही काम नहीं करते, बल्कि युवाओं में नशामुक्ति और समाज में जातिभेद दूर करने के लिए अपने सन्यास धर्म का उपयोग करते है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रचारक परंपरा पूरे विश्व में अनूठी और आज के इस ग्लैमरयुक्त जीवन में आश्चर्यजनक राष्ट्रनिष्ठा का प्रतीक है। इसके अंतर्गत उच्च शिक्षा प्राप्त 20 से 35 वर्ष के युवक अरुणाचल में तवाग से लेकर पोर्ट ब्लेयर और लेह से लेकर दक्षिण के नीलगिरि अंचल तक सेवा के 1.59 लाख प्रकल्प आरोग्य केंद्र, पाठशालाएं चला रहे है। ये प्रचारक समाज को डॉ. हेडगेवार प्रदत्त भारत परम वैभव की भावना के अनुरूप समृद्धि और सुरक्षा के बल पर सगठित करने में जुटे है, जिनसे दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे महानायकों ने प्रेरणा ली। यह तप ऐसा है कि दधीचि समान शेषाद्रि जब मृत्युशैय्या पर थे तो उन्होंने भारत माता को अर्पित सघ प्रार्थना-‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ सुनते हुए प्राण त्यागे। स्वामी सत्यमित्रानद यदि हरिद्वार में भारत माता मंदिर के माध्यम से हिंदू मंदिर में अशफाक उल्ला खा और चंद्रशेखर आजाद की मूर्तियों की स्थापना से युवाओं में धर्माधारित देशभक्ति का भाव पैदा करते हैं तो अनेक शकराचार्य अब मठों का आराम त्याग कर पूर्वांचल के अनछुए क्षेत्रों में भी देशभक्ति फैला रहे है। यह किसी को भी आश्चर्यजनक नहीं लगेगा कि इन सब प्रयासों से भगवत कथाओं और प्रवचनों के अंत में भारत माता की जय का उद्घोष भी जुड़ गया है।
भारतीय युवजन विद्रोह करना चाहता है- पिछली पीढ़ी की उस रूढि़वादी परंपरा और अंधानुगामी चेहरे के खिलाफ जिसने हिंदू समाज में गंदे मंदिर, आक्रांत गगा, नष्टप्राय: यमुना और कन्या-वध के दृश्य उपस्थित किए है। वह धर्माचरण सिर्फ पाखंड और पतन का पर्याय कहा जाएगा, जिसमें तथाकथित अग्रणी न तो मंदिरों में स्वच्छता रख सके, न दलित पुजारी नियुक्त करने के लिए उनके प्रशिक्षण की परंपरा प्रारंभ कर सके और न ही हिंदू परिवारों में पुत्रों की अंधी कामना के फलस्वरूप गर्भ में कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध धर्मशक्ति का उपयोग कर सके।
नवीन जनगणना से भारत में गत दो दशकों में एक करोड़ कन्याओं की भ्रूण हत्या अथवा जन्म के बाद उत्पीड़न और उपेक्षा से मृत्यु के आकड़े सामने आए है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्त्री-पुरुष जनसख्या अनुपात आज भी पुरुषों के पक्ष में है। जो समाज नवरात्रों में देवी की उपासना करता है, उसी में गर्भस्थ देवी की हत्या का चलन क्यों? धौनी की पीढ़ी इस अनाचार के विरुद्ध उस भारत का परिचय देती है जो हर कार्य में विजय का उत्सव मनाने में समर्थ हो और जहां शक्ति तथा समृद्धि का जयघोष हो।
भारत का वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व लकीर का फकीर है तथा वह नौजवानों के ‘विद्रोही-अशात’ मन को पहचानने में नाकामयाब रहा है। यहां एक ओर धौनी की टीम का दृश्य है, दूसरी ओर गोवा का ऐसा शिक्षा मत्री दिखता है जो एक करोड़ डॉलर की अवैध मुद्रा के साथ गिरफ्तार होता है। उसके सामने केवल तात्कालिक सफलता, धन का अतिरेकी प्रभाव, दरबारी सामती परंपरा हैं। यह सब भारत की उद्यमी शक्ति को प्रभावित कर रहा है। भारत वहीं आगे बढ़ रहा है, जहा सरकार और राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं है। भारत में बदलाव भी वही लोग ला रहे हैं जो राजनीति और सत्ता से जुडे़ नहीं हैं। सवत 2068 का उदय और धौनी की पीढ़ी की विजय-सामर्थ्य उसी स्वाभिमानी भ्रष्टाचाररहित भारत का भी उदय देखेगा-यह विश्वास है।
[तरुण विजय: लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं]
साभार: जागरण नज़रिया
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