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सबक सीखने का समय

संपादकीय ब्लॉग
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आंदोलनरत अरब व अफ्रीकी देशों में आम आदमी की स्थिति भारत की तुलना में अच्छी थी। मिस्र में जनता को मुफ्त रोटी सरकार द्वारा बाटी जाती थी। पिछले दिनों रोटी को प्राप्त करने की कतार लंबी होने लगी थी, फिर भी अनेक लोग इस मुफ्त रोटी पर ही निर्भर थे। ट्यूनीशिया में राष्ट्रपति बेन अली मुसीबत में पड़े गरीबों की मदद करते थे। ट्यूनीशिया जाने का मुझे अवसर मिला था। किसी कार ड्राइवर की नौकरी छूट गई थी। वह मकान का किराया अदा नहीं कर पा रहा था। उसने राष्ट्रपति को मदद के लिए चिट्ठी लिखी। राष्ट्रपति ने उसे सरकारी आवास मुफ्त उपलब्ध करा दिया। लीबिया में स्वास्थ्य सेवाएं तथा शिक्षा का प्रसार बेहतर है। सयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा बनाए गए मानव विकास सूचकाक में लीबिया की रैंक अफ्रीकी देशों में सर्वश्रेष्ठ है। वह देश भारत से भी आगे है। लीबिया की रैंक 56 है, जबकि भारत की 134। मानव विकास सूचकाक में स्वास्थ्य, शिक्षा एव आय को सम्मिलित किया जाता है। लीबिया की रैंक ऊंची होने का अर्थ है कि उस देश के नागरिकों को ये सुविधाएं तुलना में ज्यादा उपलब्ध थीं। जीवन स्तर उन्नत होने के बावजूद इन देशों के नागरिक सड़कों पर उतर आए हैं। स्वास्थ्य सलाहकार विलियम मूरा लिखते हैं, ‘यद्यपि मिस्र में मुफ्त रोटी दी जा रही थी, फिर भी युवा सड़क पर उतर आए। वे इससे कुछ ज्यादा यानी आत्म सम्मान चाहते थे, जो आय अर्जित करने से मिलता है।’ भौतिक सुविधाओं की उपलब्धि के बावजूद अरब देशों में आंदोलन भड़क रहा है।


विषय का दूसरा पहलू तेल है। सभी अरब देशों में तेल उपलब्ध नहीं है। ट्यूनीशिया में तेल अल्प मात्रा में उपलब्ध है जबकि मिस्र में शून्य प्राय: है। इनकी तुलना में लीबिया में भारी मात्रा में तेल उपलब्ध है। विश्व की तेल आपूर्ति का चार प्रतिशत लीबिया से आता है। विशेष यह कि लीबिया में निकाले गए तेल की क्वालिटी उम्दा है। इसे ‘स्वीट ऑयल’ यानी मीठा तेल कहा जाता है। पश्चिमी देशों का आंदोलन के प्रति रुख तेल की उपलब्धता से प्रभावित होता दिखता है। अनुमान है कि ट्यूनीशिया और मिस्र के पूर्व शासकों को पश्चिमी ताकतों ने आंदोलनकारियों के विरुद्ध अस्त्र-शस्त्र के उपयोग से मना कर दिया था। ट्यूनीशिया की यात्रा के दौरान मैं वहा के विपक्षी राजनेताओं और यूनिवर्सिटी के युवा नेताओं से मिलना चाहता था। वहा के लोगों ने बताया कि ट्यूनीशिया में जासूसों का जाल बिछा हुआ है। मस्जिद के इमामों द्वारा दिए गए भाषण को भी पुलिस की स्वीकृति के बाद ही पढ़ा जाता है। अत: मित्रों ने सलाह दी कि इस प्रपच में न पड़ें। तात्पर्य यह कि राष्ट्रपति बेन अली की पुलिस पर कड़ी पकड़ थी। ऐसी पकड़ वाले शासकों के लिए आंदोलनकारियों पर गोली चलाना आसान बात थी। परंतु गोली नहीं चलाई गई। संभवत: पश्चिमी देशों ने बेन अली को साफ बता दिया होगा कि गोली चलाने पर उनकी पश्चिमी देशों में जमा अपार संपत्ति जब्त कर ली जाएगी। मेरा अनुमान है कि ऐसा ही मिस्र में हुआ होगा। पश्चिमी देशों के लिए ट्यूनीशिया या मिस्र में सत्ता परिवर्तन ज्यादा हानिप्रद नहीं था चूंकि इन देशों में तेल कम ही मिलता है। लीबिया की परिस्थिति भिन्न है। इस देश में भारी मात्रा में तेल पाया जाता है। अत: पश्चिमी देश कतई नहीं चाहते कि यह देश उनके प्रभाव के दायरे से बाहर चला जाए।


वास्तव में पश्चिमी देशों के सामने कुएं तथा खाई के बीच चयन करने की स्थिति उत्पन्न हो गई है। गद्दाफी मूल रूप से पश्चिम विरोधी हैं। 1999 तक वह प्रखर पश्चिम विरोधी थे। उन्होंने पश्चिमी देशों के विरुद्ध चल रहे कई स्वतत्रता आंदोलनों को मदद की। वह संपूर्ण अफ्रीकी देशों का एक देश के रूप में विलय का सपना देखते हैं जिसे वे ‘यूनाइटेट स्टेट ऑफ अफ्रीका’ कहते हैं। शीत युद्ध के दौरान वह सोवियत रूस के प्रखर समर्थक थे। उन्होंने हाल में तालिबान एव सोमाली समुद्री डाकुओं के समर्थन में सयुक्त राष्ट्र में भाषण दिया था। उन्होंने धमकी दी है कि यदि पश्चिमी देशों ने लीबिया के मामले में दखल दिया तो वह अलकायदा से हाथ मिला लेंगे। यह गद्दाफी का मूल चरित्र है।


सोवियत रूस के विघटन के बाद उन्हें मजबूरन अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ा है। उन्होंने सरकारी कंपनियों का निजीकरण किया और पश्चिमी कंपनियों को लीबिया में निवेश के लिए आमत्रित किया। पश्चिमी देशों द्वारा प्रवर्तित बाजार आधारित अर्थव्यवस्था को उन्होंने अपना लिया है। इटली के राष्ट्रपति बर्लुस्कोनी से उनकी व्यक्तिगत मित्रता है। इस पश्चिम समर्थक आवरण के बावजूद गद्दाफी का हृदय पश्चिम विरोधी है जैसा कि अलकायदा को समर्थन देने की धमकी से ज्ञात होता है। लीबिया के आंदोलनकारी भी पश्चिम विरोधी हैं। अत: पश्चिमी देशों के सामने विकट स्थिति है। वे गद्दाफी का समर्थन करते हैं तो गद्दाफी के पुन: पश्चिम विरोधी रूप धारण करने की प्रबल संभावना है। इसके विपरीत यदि वे आंदोलनकारियों का समर्थन करते हैं तो भी पश्चिम विरोधी सरकार का सामना करेंगे। दोनों विकल्पों में उन्होंने गद्दाफी के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई का निर्णय लिया है। सभवत: सोच है कि आंदोलनकारियों को मना लिया जाएगा।


अरब देशों में व्याप्त आंदोलन के दो आयाम हैं। एक यह कि केवल रोटी बाटकर जनता को चुप नहीं किया जा सकता है। लोगों को रोजगार और आत्मसम्मान चाहिए। दूसरा आयाम है कि पश्चिमी देश उन्हीं शासकों को समर्थन देते हैं जो अपने ससाधनों को निकालने की छूट पश्चिमी देशों को दें। भारत इस घटनाक्रम से सबक ले। मनरेगा और ऋण माफी जैसी छिछली जनहितकारी योजनाओं से जनता में व्याप्त असतोष को नियत्रित नहीं किया जा सकता है। मनरेगा के बावजूद देश में नक्सलवाद एव भूमि पुत्र आंदोलन पनप रहे हैं। कारण यह कि मनरेगा में कार्यरत व्यक्ति को स्वरोजगार का आनंद नहीं मिलता। आय में वृद्धि के उसके रास्ते बंद हैं, जैसे वह अस्पताल में कोमा में पड़ा है। इसलिए अरब देशों की तरह विद्रोह अपने देश में भी पनप सकता है।


दूसरा आयाम यह है कि मनमोहन सिह को पश्चिमी देश तब तक ही समर्थन देंगे जब तक वे उन्हें भारत के ससाधनों को निकालने देंगे। संप्रग सरकार के पिछले सात वर्षो में भारत पूरी तरह अमेरिकी छत्रछाया में आ गया है। मनमोहन सिह का ओबामा उसी तरह सम्मान करते हैं जैसे बेन अली और होस्नी मुबारक का करते थे। मनमोहन सिह को समझना चाहिए कि उन्हें यह सम्मान तब तक मिलेगा जब तक वह अमेरिका को अपने ससाधनों का दोहन करने देंगे।


[डॉ. भरत झुनझुनवाला: लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

Source: Jagran Nazariya


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