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दुर्बल शासन के दुष्परिणाम

संपादकीय ब्लॉग
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गोपाल सिंह नेपाली की कविता है, चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से। यह कवि ने ‘दिल्ली जाने वाले राही कहना अपनी सरकार से’ के रूप में जरूरी संदेश ही जैसा कहा था। अनायास नहीं कि ऐसे कवि और उसके संदेश को सत्ताधारियों ने ही नहीं, लगभग शिक्षित समाज ने भी भुला दिया है। चाहे यह कवि की जन्म-शती ही क्यों न हो। यहां तलवार व्यंजना में ही है, जिसका अर्थ है, राजनीति में शक्ति की केंद्रीयता, आवश्यकता होने पर मरने और मारने, दोनों के लिए प्रस्तुत होना, शासक होने की जिम्मेदारी आदि। दु:खद है कि पिछले छह दशक में विदेश और आंतरिक, दोनों क्षेत्रों में तरह-तरह की जिल्लत और उपहास झेलकर भी हमारे कर्णधार यथावत बने हुए हैं।


नि:सदेह, नेपाली के शब्दों में बड़ी गहरी दार्शनिक सच्चाई है। इसे शांति, अहिंसा, पंचशील और ऊपर से मोहक लगने वाली लफ्फाजी से छिपाया नहीं जा सकता। जो लोग तलवार के समक्ष अहिंसा, प्रेम या ऐसी ही कोई चीज रखकर बात बदलते हैं वे जाने-अनजाने पाखंड ही करते हैं, क्योंकि वे भी वस्तुत: किसी अहिंसा या प्रेम से व्यवस्था चलाने में विश्वास नहीं करते। एक ओर सैन्य-तत्र पर भारी खर्च, दूसरी ओर बुनियादी राष्ट्रीय मामलों में भी उसके प्रयोग से पीछे हट जाना, यह पाखंड के साथ-साथ भीरुता है। यह प्रमाण कि जिन हाथों ने तलवार सभाल रखी है उसके पास?इसे चलाने का माद्दा नहीं है, यही हमारे देश की आतरिक और वाच् सुरक्षा की कई समस्याओं का यथार्थ है। अन्यथा कल्पना तो करें, एक कलक्टर वह होता था जो एक पराई भूमि पर हजारों, लाखों की पराई आबादी के ऊपर हुकूमत करता था। किस बल पर? हर क्षण उसके गिर्द कोई सैनिक टुकड़ी नहीं होती थी। जब वह अकेला घोड़े पर घूमता, दूर देहातों, जंगलों में जाकर हर चीज का सर्वेक्षण और निगरानी करता था तो क्या वह कभी डरता था कि कोई शत्रु उस पर हमला कर सकता है? यदि डरता तो लदन की सुरक्षित फिजा छोड़ यहां आता क्यों? यह तब की बात है जब मोबाइल फोन क्या, बिजली, मोटरगाड़ी, रेल और सड़कें तक नहीं थीं। गर्म मुल्क की विविध, घातक बीमारियों का खतरा ऊपर से। ऐसी बीड़ह स्थिति में एक विदेशी कलक्टर सैकड़ों मील की आबादी पर ऐसा शासन चलाता था कि उसके एक सिपाही से भारतीय जमींदार भी डरते थे।


यहां गलतफहमी की गुंजाइश न रहे कि अंग्रेज वीर थे और भारतीय डरपोक। स्वय अंग्रेजी सेना विश्व-प्रसिद्ध रॉयल इंडियन आर्मी, भारतीय सैनिकों, हवलदारों, नायकों से बनी थी। वही दुनिया भर के इलाके अंग्रेजों के लिए जीतती रही थी। इसलिए, मामला साहस के साथ-साथ सूझ-बूझ, नीति और व्यवस्था सचालन का था। राजनीति की समझ का था। इसी रूप में तलवार का था। अकेला घूमता हुआ अंग्रेज तो क्या, उसका अदना सिपाही भी जानता था कि किसी विद्रोही के हाथों वह मारा भी जा सकता है, किंतु उसके शासन में रहने वाली भारतीय प्रजा भी जानती थी कि यदि सिपाही को कुछ हुआ तो उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा। उसके पीछे पूरे अंग्रेजी साम्राज्य की शक्ति है। यह विश्वास शासन का आधार था। इसीलिए यहां बीस हजार से कम अंग्रेजों ने बीस करोड़ भारतवासियों पर सौ वर्ष शासन किया। यहां तलवार का अर्थ साहस और निष्ठा था। भारत आकर जिम्मेदारी उठाने वाले अंग्रेज मरने से डरते नहीं थे। वे अपना कर्तव्य जानते थे। वे शासन की जिम्मेदारियों और खतरों, दोनों को बखूबी समझते थे। तदनुरूप कानून, तंत्र और व्यवस्था बनाते थे।


एक आज का भारतीय कलक्टर है, जिसकी जान बचाने राज्य-तंत्र तुरंत झुक पड़ता है। अपराधियों, आतकवादियों, नक्सलियों को बिना?शर्त अतिरिक्त पुरस्कार के साथ छोड़ा जाता है। यदि शासनतत्र यह है जो प्रजा की रक्षा और अपराधियों के सफाए के बदले अपनी जान बचाने की फिक्र पहले करता है तो आश्चर्य नहीं कि ऐसे राज्यकर्मियों से गरीब आदमी को छोड़ कोई नहीं डरता। सभी जानते हैं कि सत्ता रूपी तलवार संभाले लोग अपनी चमड़ी के फिक्रमद लोग है। वह कोई सार्थक सत्ता है ही नहीं। इसीलिए, प्रजा के साथ यह लबे समय से हो रहा छल है। टैक्स इसलिए वसूले जाते हैं कि देश की सुरक्षा और शासन-व्यवस्था के लिए वह चाहिए, जबकि हो यह रहा है कि राज्यकर्मी वर्ग मुख्यत: उसे अपने अपरिमित भोग, विलास में लगा रहा है। ससद, विधानसभाओं में अपराधियों की बढ़ती भीड़ अनायास नहीं। ऐसे लोगों ने ठीक समझा कि संसद पहुंच अपना धंधा सहूलियत से चल सकता है।


आतंकवादियों, नक्सलियों को ससम्मान, पुरस्कार सहित कारागार से मुक्त करना, करते रहना और ससद में आपराधिक छवि वाले लोगों के पहुंचने में एक सूत्र समान है और वह यह कि राज्य तत्र वह काम नहीं कर रहा है जिसका नाम लेकर प्रजा को मूर्ख बनाया जाता है। जिस हद तक जन-जीवन सहज चल रहा है वह स्वत: है, क्योंकि विशाल जनता शातिप्रिय और कर्मशील है। उसमें राज्य का योगदान कम, बाधा अधिक है। अत: कवि नेपाली के सदेश का मर्म समझें। राज्यकर्म गभीर जिम्मेदारी है। जो लोग केवल लफ्फाजी करते और सुरक्षित छिपे रहते हैं उन्हें कदापि राज्यकर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। यह देश के साथ विश्वासघात है। दुर्भाग्य से, पिछले साठ वर्ष से यही हो रहा है। राज्यकर्म को नगरपालिका जैसे काम और शेष मीठी झूठी बातें कहने, करने में बदल दिया गया है। भ्रष्टाचार से लेकर आतकवाद, सभी गड़बड़ियों में वृद्धि का यह मुख्य कारण है। यदि राजा डरेगा तो गद्दी पर चाहे बना रहे, राज वह नहीं करेगा। राज दूसरे करेंगे। जो साहसी और निर्भीक हैं, शासन वही कर सकते हैं। चाहे वे विदेशी हों या स्वदेशी। नकली बातों से सच्चाई छिपाना बेकार है।


[एस. शंकर: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

Source: Jagran Nazariya

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