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शून्य प्रतिष्ठा वाला शासन

संपादकीय ब्लॉग
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पीजे थॉमस को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त नियुक्त करने के मामले में प्रधानमंत्री द्वारा अपनी जिम्मेदारी स्वीकार कर लेने के बाद सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष का रवैया ‘अंत भला तो सब भला’ वाला है। यह तब है जब प्रधानमंत्री ने न तो क्षमा मांगी और न ही उन परिस्थितियों को उजागर किया जिनके तहत विपक्ष की आपत्ति के बावजूद थॉमस को सीवीसी बनाया गया। इस मामले में प्रधानमंत्री ने जिस गोलमोल तरीके से कथित तौर पर अपनी गलती मानी वह न तो उनके बड़प्पन का परिचायक कही जा सकती है और न ही उनके प्रायश्चित का। सच्चाई यह है कि उनके सामने अपनी जिम्मेदारी कबूल करने के अलावा और कोई उपाय नहीं था, क्योंकि वह न तो उच्चतम न्यायालय के निर्णय को चुनौती देने की स्थिति में थे और न ही अपनी गलती किसी और पर मढ़ने की स्थिति में। थॉमस की नियुक्ति के मामले में उच्चतम न्यायालय का क्या निर्णय होगा, यह दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ था। बावजूद इसके प्रधानमंत्री और उनकी पूरी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। यदि तभी गलती मान ली जाती जब सरकार को उच्चतम न्यायालय को जवाब देते नहीं बन रहा था तो उसकी प्रतिष्ठा इस तरह ध्वस्त नहीं होती। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने स्वयं यह माना था कि घपलों-घोटालों के कारण केंद्र सरकार जनता की नजरों से उतर रही है, लेकिन अब तो वह स्वयं भी जनता की नजरों से उतर चुके हैं। वह प्रधानमंत्री पद पर आसीन रह सकते हैं, लेकिन उनकी प्रतिष्ठा बहाल होने के कहीं कोई आसार नहीं हैं।


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पिछले सात वर्षो का कार्यकाल और उनकी कार्यशैली इसकी गवाही देती है कि वह न तो भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने में सक्षम हैं और न ही उस व्यवस्था को सुधारने का इरादा रखते हैं जो भ्रष्ट तत्वों को संरक्षण दे रही है। जब बोफोर्स दलाल ओट्टावियो क्वात्रोची के लंदन स्थित खातों से पाबंदी हटाई गई थी तो पूरी सरकार ने ऐसा जाहिर किया था कि उसे तो पता ही नहीं कि यह काम किसने किया? जब संसद में हंगामा मचा तो प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया कि वह सच्चाई का पता लगाएंगे और दोषियों को दंडित करेंगे। ऐसा आज तक नहीं हुआ और उल्टे खुद प्रधानमंत्री ने कहा कि बिना सबूत इस तरह किसी को परेशान करने से देश की बदनामी होती है। हालांकि अब कांग्रेस और केंद्र सरकार सगर्व यह कह सकती है कि देखिए अब तो अदालत ने भी एक खूबसूरत मोड़ का हवाला देकर क्वात्रोची के खिलाफ मामला बद करने को कह दिया है, लेकिन सच्चाई यह है कि यह बेहद बदसूरत और शर्मिदा करने वाला मोड़ है। भारतीय शासन प्रणाली को इससे शर्मसार होना चाहिए कि दलाली लेने-देने के पुख्ता सबूत होने के बावजूद दलालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो सकी।


मनमोहन सिंह ने सच्चाई की तह तक पहुंचने का आश्वासन तब भी दिया था जब उनकी सरकार के विश्वास मत प्रस्ताव के समय संसद में नोटों के बंडल दिखाए गए थे। इस मामले की सच्चाई अभी भी दफन है और उसके सामने आने के बारे में सोचा भी नहीं जाना चाहिए। इसके बाद मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल आया और घोटालों की झड़ी लग गई। हालांकि वह खुद यह जान और देख रहे थे कि राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों के नाम पर किस्म-किस्म के घोटाले हो रहे हैं, लेकिन किन्हीं अज्ञात कारणों से वह मौन बने रहे। अब उनके तहत काम करने वाली सीबीआइ जांच के नाम पर नौटंकी कर रही है। परिणाम यह है कि सुरेश कलमाड़ी सीना ठोककर कह रहे हैं कि मैंने कुछ गलत नहीं किया। राष्ट्रमंडल खेल खत्म होने के बाद से कम से कम 70 ऐसी खबरें आ चुकी हैं जो कलमाड़ी के काले कारनामों की कहानी कहती हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि उनकी गिरफ्तारी कब होगी? कलमाड़ी के साथ सीबीआइ का व्यवहार यह बताता है कि इस देश में दो कानून हैं-एक कलमाड़ी जैसे लोगों के लिए और दूसरे आम आदमी के लिए। अब इसमें संदेह नहीं कि यदि प्रधानमंत्री का वश चलता तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच तो दूर रही, उनकी सरकार यह भी नहीं मानती कि कोई घोटाला हुआ है। आखिर यह तथ्य है कि खुद प्रधानमंत्री ने ए राजा को क्लीनचिट दी थी। यह भी स्पष्ट है कि यदि केंद्र सरकार का वश चलता तो वह काले धन के मामले को महज टैक्स चोरी का मामला बताकर देश को गुमराह करती रहती। यह लगभग तय माना जाना चाहिए कि केंद्र सरकार बालाकृष्णन के मामले में तब तक मौन साधे रहेगी जब तक उसे चुप्पी तोड़ने के लिए विवश नहीं किया जाएगा।


यह देखना कितना दयनीय है कि कथित तौर पर नेक इरादों वाले प्रधानमंत्री ने उच्च पदों पर कैसे-कैसे लोगों को नियुक्त किया? बीएस लाली, पीजे थॉमस और केजी बालाकृष्णन तो सिर्फ वे नाम हैं जो किन्हीं कारणों से सतह पर आ गए। इस पर भी गौर करें कि किस तरह नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को धमकाने और लांछित करने की कोशिश की गई और किस प्रकार यह कहकर उच्चतम न्यायालय को भी दबाव में लेने की कोशिश की गई कि उसे नीतिगत मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। जिस सीबीआइ के कारण प्रधानमंत्री पर न जाने कितनी बार संसद में और संसद के बाहर लांछन लगे उसे वास्तव में स्वायत्त बनाने के बारे में कहीं कोई हलचल नहीं हो रही है। भले ही प्रधानमंत्री समय-समय पर शासन तंत्र को सक्षम और पारदर्शी बनाने की आवश्यकता पर बल देते रहते हों, लेकिन तथ्य यह है कि खुद उनकी सरकार बड़े जतन से दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट दबाए हुए है। आखिर जब शासन का मुखिया ही प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट दबाए बैठा हो तब फिर शासन में सुधार की उम्मीद कैसे की जा सकती है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जिस प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा तार-तार हो गई हो उसकी सरकार प्रतिष्ठित कैसे हो सकती है?


[राजीव सचान: लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]

Source: Jagran Nazariya

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