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लोकलुभावन लेखा-जोखा

संपादकीय ब्लॉग
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वित्तमंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी का यह छठा बजट था, लेकिन इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिससे अर्थव्यवस्था की बेहतरी अथवा आम आदमी की उम्मीदों को नया आकाश मिल सके। यह होल्डिंग बजट है, जिसमें देश के सभी वर्गो और तबकों को खुश करने के तरीकों के अलावा आंकड़ों की बाजीगरी भी बखूबी की गई है। प्रणब मुखर्जी ने किसानों, असंगठित क्षेत्र के कामगारों और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए कुछ लुभावनी योजनाओं की घोषणा करना ही बेहतर समझा। शायद ऐसा करने के पीछे उनकी मुख्य मजबूरी आम आदमी के बीच सरकार की लगातार धूमिल होती छवि को बचाने व बढ़ाने के अलावा राज्यों के आगामी चुनावों में कांग्रेस को लाभ दिलाने की मंशा है।

इस क्रम में पूरे देश में करीब 22 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के वेतन को दोगुना करने की घोषणा की गई है। यहां ध्यान दिए जाने योग्य बात यह है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का वेतन 1500 रुपये प्रतिमाह से बढ़ाकर तीन हजार कर दिया गया। यह वेतन पहले भी गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में आता था और अब बढ़ने के बाद भी गरीबी रेखा के नीचे ही रहेगा।


इस तरह के अंतरविरोध बजट में कई जगह देखे जा सकते हैं जिससे पता चलता है कि यह बिना ज्यादा सोच-विचार के जल्दबाजी में अथवा सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए तैयार किया गया है। कोल्ड चेन में निवेश के बहाने अमीरों को आगे लाने की बात है। मार्केटाइजेशन, कारपोरेटाइजेशन को बढ़ावा देने वाली नीतियों से आम आदमी को लाभ मिलने की बात की जा रही है, लेकिन खेती के लिए यह तर्क उपयुक्त नहीं है। राष्ट्रीय किसान विकास योजना में एक हजार करोड़ रुपये देने के अलावा किसानों को चार लाख पचहत्तर हजार करोड़ रुपये कर्ज देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसके अतिरिक्त दलहन, तिलहन, सब्जी और चारा विकास योजनाओं के लिए वित्तमंत्री ने थोड़ी बहुत राशि दी है, लेकिन हमारा आर्थिक विकास करीब 9.25 प्रतिशत है और इस लिहाज से दी गई राशि बहुत थोड़ी है। बुनकर और हथकरघा श्रमिकों के लिए भी बजट में प्रावधान किया गया है। पढ़ने-सुनने में यह बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन इसका जमीनी क्रियान्वयन कितना मजबूत है, यह सरकार भी जानती है। इन वर्गो के लिए दी गई राशि का पांच प्रतिशत हिस्सा भी शायद इन तक नहीं पहुंच पाता है और सारा पैसा बीच में ही हड़प हो जाता है।

आवश्यकता इस बात की थी कि सरकार भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कुछ सुनिश्चित उपायों की घोषणा करती ताकि योजनाओं का लाभ इन वर्गो को वास्तविक रूप में मिल पाता। कैश सब्सिडी की शुरुआत अच्छी बात है, लेकिन इसका क्रियान्वयन किस तरह हो पाता है यह देखने वाली बात होगी। शिक्षा, स्वास्थ्य पर निवेश बढ़ाने की नीति सही है, लेकिन रोजगार सृजन तेज करने पर भी ध्यान देना होगा अन्यथा यह निवेश व्यर्थ चला जाएगा।


काले धन के संदर्भ में वित्तमंत्री ने पांच सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की है, जिसमें इसे वैश्विक लड़ाई का स्वरूप दिए जाने, कानूनी ढांचे में सुधार लाने व क्रियान्वयन को मजबूत करने के साथ-साथ जनशक्ति को जगाने की बात कही गई है। विदेशों में जमा काले धन के लिए विभिन्न देशों के साथ डीटीएए दोहरे कराधान वाले समझौते करने की बात भी की गई है। यहां एक बड़ा अंतरविरोध यह है कि दोहरे कराधान का समझौता केवल कानूनन वैध और जानकारी में आए काले धन पर ही लागू होता है, न कि अज्ञात काले धन पर। इस कारण सरकार की पांच सूत्रीय योजना अव्यावहारिक और दिखावटी ज्यादा है।

इसके अलावा इसमें इस बात का कहीं कोई उल्लेख नहीं है कि काला धन वापस कैसे लाया जाएगा अथवा इसकी प्रक्रिया क्या होगी? इसी तरह भ्रष्टाचार की समस्या से लड़ने के लिए सरकार से जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की अपेक्षा की जा रही था वह भी रसातल में गया हुआ दिखा, क्योंकि वित्तमंत्री ने इससे लड़ने के लिए किसी ठोस उपाय की बजाय इसे मंत्रियों के समूह के पास अभी तक विचारार्थ होने की बात कही है। इससे पता चलता है कि सरकार की असली मंशा क्या है और किस तरह इस समस्या से लड़ना चाहती है। उल्लेखनीय है कि प्रणब मुखर्जी ने भ्रष्टाचार से लड़ाई के लिए जिन उपायों को बताया है उसमें कहीं भी राजनीतिक नेताओं, नौकरशाहों अथवा बिजनेसमैन द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार से लड़ने की बात नहीं की गई है। इस बात पर भी विचार किए जाने की आवश्यकता है कि 1991 में उदारीकरण की शुरुआत के बाद आर्थिक अपराधों को रोकने के लिए कोई खास कदम नहीं उठाया गया और इस बजट में इसकी क्षतिपूर्ति और विश्वासबहाली के लिए कदम के तौर पर प्रवर्तन निदेशालय के कर्मियों की संख्या दोगुनी करने की घोषणा की गई, जो वाहवाही लूटने से ज्यादा कुछ और नहीं है। उदारीकरण तेज होने के साथ-साथ काला धन भी बढ़ रहा है और प्रतिवर्ष हमारी अर्थव्यवस्था का तकरीबन 10 प्रतिशत काला धन विदेशों में जमा हो रहा है।


बजट में प्रत्यक्ष विदेशी निवेशी और संस्थागत निवेश को बढ़ावा दिए जाने की बात कही गई है, जो एक गलत नीति है, क्योंकि अभी भी हमारे यहां इस तरह के निवेश कम हैं जिस कारण हमारी अर्थव्यवस्था पर वाच् जोखिम भी कम है। बेहतर तो यह होता कि सरकार पब्लिक इन्वेस्टमेंट को बढ़ावा देने की नीति अपनाए ताकि हमारे लोगों के पास मौजूद बचत का पैसा अर्थव्यवस्था में लगे और इसका लाभ देश के लोगों को ज्यादा से ज्यादा मिल सके। इसी तरह अप्रत्यक्ष कर से ज्यादा पैसा उगाहने की नीति के बजाय प्रत्यक्ष कर द्वारा पैसा ज्यादा निकालने की नीति का पालन किया जाए। अप्रत्यक्ष कर का अनुपात बढ़ने से महंगाई की दर तेज होती है और आम आदमी पर इसका प्रभाव भी ज्यादा पड़ता है। इसके अलावा सरकार को चाहिए था कि वह महंगाई से निजात पाने के लिए पेट्रोलियम पदार्थो पर से कस्टम और एक्साइज ड्यूटी को कम करती।

इससे बढ़ती महंगाई पर लगाम लगती और लोगों को राहत मिलती, लेकिन सरकार शायद मान बैठी है कि आर्थिक विकास के लिए महंगाई आवश्यक है। इसी तरह जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर और डीटीसी को लागू करने की बात कही गई है। महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए जरूरत यूनिफॉर्म ड्यूटी लागू किए जाने की थी, जिससे सरकार फिलहाल आंखें मूंदे हुए है। यदि हम टैक्स स्लैब को देखें तो इसमें भी एक और वर्ग जोड़ा गया है, जो अनावश्यक जटिलता पैदा करने वाला कदम है। कोई नया कर नहीं जोड़ा गया है, लेकिन करों की उगाही में अप्रत्यक्ष कर को घटाने की दिशा में भी कोई कदम नहीं उठाया गया है।


[प्रो. अरुण कुमार: लेखक जेएनयू में वरिष्ठ प्रोफेसर और सीईएसपी के अध्यक्ष है]

Source: Jagran Nazariya

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