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महत्वपूर्ण मोड़ पर मुस्लिम

संपादकीय ब्लॉग
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उत्तर प्रदेश स्थित दारूल उलूम देवबंद के कुलपति गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को हटाने के लिए पिछले कई दिनों से कट्टरपंथी सक्रिय हैं। गतिरोध खत्म करने के लिए पिछले दिनों आहूत बैठक में दो गुटों के बीच हाथापाई हुई। मजलिस ए शूरा आगामी 23 फरवरी को वस्तानवी के भविष्य का फैसला करने वाली है, परंतु वस्तानवी का आखिर गुनाह क्या है? कट्टरपथियों के अनुसार कुलपति बनने के एक सप्ताह के अंदर ही वस्तानवी ने दो गुनाह किए। उन्होंने महाराष्ट्र के एक सार्वजनिक समारोह में बतौर मुख्य अतिथि युवकों में गणेश की मूर्ति वितरित की। दूसरा, उन्होंने गुजरात के मुख्यमत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गुजरात की कायापलट किए जाने का संज्ञान लेते हुए कहा कि गुजरात की प्रगति में मुसलमान भी बराबर के भागीदार हैं।


दारूल उलूम, देवबंद पर दशकों से जमायते उलेमा ए हिंद का कब्जा रहा है। जनवरी में हुए चुनाव में गुजरात के छोटे से कस्बे के रहने वाले पिछड़ी जाति के वस्तानवी ने अशरफों को पछाड़ दिया। उन्होंने मजहब के नाम पर सामान्य मुसलमानों का शोषण नहीं होने देने, कट्टरता का दमन करने और मदरसा शिक्षा प्रणाली को अग्रगामी व आधुनिक बनाने की बात की। उन्होंने इंजीनियरिंग, प्रबधन, मेडिकल, कंप्यूटर और अंग्रेजी को मदरसों के पाठ्यक्रम में शामिल करने का प्रयास किया, ताकि मजहबी तालीम के साथ छात्रों को जीवन की चुनौतियों का सामना करने योग्य बनाया जा सके। इसके साथ ही उन्होंने अप्रासगिक फतवों पर लगाम लगाने का सुझाव भी दिया, किंतु उनकी उदारवादी सोच कट्टरपथियों को रास नहीं आई। वस्तानवी प्रकरण भारतीय मुस्लिम समाज के लिए महत्वपूर्ण घटना है, किंतु सवाल उठता है कि मुस्लिम समाज का प्रबुद्ध वर्ग और सेक्युलरिस्ट इस प्रकरण में कहा खड़े हैं? वे क्यों तटस्थ हैं?


वस्तानवी अपना मदरसा बिना सरकारी सहायता के चलाते हैं। उनके मदरसों में दो लाख छात्र मजहबी तालीम के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की पढ़ाई करते हैं। कुरान के साथ छात्रों को तकनीकी ज्ञान देने को वह समय की जरूरत समझते हैं, ताकि प्रतिस्पद्र्धा में मुसलमान अन्य नागरिकों से पीछे नहीं रहें, जबकि कट्टरपथी मुसलमान और सेक्युलरिस्ट मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए बहुसख्यकों द्वारा कथित तौर पर किए गए भेदभाव को बड़ा कारण बताते आए हैं। मुस्लिम समाज में व्याप्त बुर्का प्रथा, बहुविवाह, मदरसा शिक्षा, जनसंख्या अनियंत्रण जैसे पिछड़ेपन के कारणों पर वे चुप्पी साधे रखते हैं।


भारत में प्रचलित सेक्युलरवाद मुस्लिम कट्टरपंथ के तुष्टीकरण का पर्याय बन चुका है, किंतु एक सच्चे पथनिरपेक्ष देश में दूसरे मजहब के अनुयायियों की आस्था का सम्मान करना क्या गुनाह है? मुस्लिम समाज में मूर्ति की उपासना कुफ्र हो सकता है, किंतु दूसरे मतावलबियों द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर उनके आस्था चिन्हों का वितरण गुनाह कैसे हो सकता है? गुरुद्वारे में जाने वाले गैर सिख सिर ढक कर जाते हैं। इससे क्या वे सिख हो गए? मदिरों में जूता खोलकर जाने वाले गैर हिंदू इसके कारण क्या हिंदू हो जाते हैं? भारत में सनातन पथ से निकलकर नाना प्रकार के मत, सप्रदाय व दर्शन पल्लवित और पुष्पित हुए। वास्तव में स्वतत्र भारत का सेक्युलर सविधान यहा के बहुमत हिंदू समाज की बहुलतावादी सनातन सस्कृति का ही प्रतिबिब है। नरेंद्र मोदी की तारीफ कर वस्तानवी ने क्या गुनाह किया है? क्या गुजरात की खुशहाली में वहा के मुसलमान शामिल नहीं हैं?

वस्तानवी से पूर्व अहमदाबाद की जामा मस्जिद के मुफ्ती शाबिर अहमद सिद्दीकी ने कहा था, ‘मोदी सरकार द्वारा सृजित शातिपूर्ण माहौल में मुसलमानों को भी तरक्की करने के समान अवसर प्राप्त हैं।’ गुजरात के मुसलमान मतदाताओं ने कई मुस्लिम बहुल क्षेत्रों मे भाजपा उम्मीदवार को विजयी बनाया। गोधरा से भाजपा के मोएज बरेलीवाला और सैयद पठान का जीतना और क्या रेखाकित करता है? मुसलमानों की सामाजिक स्थिति का आकलन करने वाले सच्चर आयोग ने भी गुजरात के मुसलमानों को अपेक्षाकृत खुशहाल माना है। गुजराती मुसलमान की साक्षरता दर 73.5 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय औसत 59.1 प्रतिशत है। सरकारी नौकरियों में गुजराती मुसलमान की भागीदारी 5.4 प्रतिशत है, जबकि पश्चिम बगाल, दिल्ली और महाराष्ट्र में यह अनुपात क्रमश: 2.1, 3.2 और 4.4 प्रतिशत है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी गुजराती मुसलमान अन्य राज्यों की अपेक्षा काफी आगे हैं। वस्तानवी ने तो मुस्लिम समाज से वस्तुत: अग्रगामी होने की अपील की थी।


हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने समान नागरिक सहिता को लेकर अपनी चिता व्यक्त करते हुए केंद्र सरकार से कहा है, ‘हिंदुओं की सहनशीलता को हलके में न लें। हिंदू समुदाय समय-समय पर लाए गए विधानों को सहिष्णुता के साथ स्वीकारता आया है।’ न्यायमूर्ति दलबीर भडारी और एके गागुली की पीठ ने स्पष्ट कहा है कि सेक्युलर प्रतिबद्धता के अभाव में दूसरे समुदायों के लिए नागरिक सहिता ला पाना सभव नहीं हुआ है। आखिर होली की छुट्टी वाले दिन कोयबटूर धमाकों के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी को पैरोल पर रिहा कराने के लिए केरल विधानसभा से सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करना इसका ज्वलंत उदाहरण है।


शाहबानो मामले के बाद वस्तानवी का यह घटनाक्रम मुस्लिम समाज के लिए सुधार का अवसर लेकर आया है। अदालत ने मुस्लिम परित्यक्ता को पति से जीविका राशि पाने का अधिकार दिलाया था, किंतु आरिफ मोहम्मद खान जैसे उदारवादी मुस्लिमों की आवाज को तब अनसुना कर कठमुल्लों के दबाव में संविधान सशोधन के जरिए मुस्लिम समाज में सुधार का द्वार बद कर दिया गया था। वस्तानवी प्रकरण में भी भारतीय मुसलमानों में परिवर्तन और सुधार की कमजोर ज्योति कट्टरवाद के झंझावातों से बुझ सकती है। इस झंझावात को खड़ा करने में जहा कट्टरपथियों का हाथ है वहीं काग्रेस, भाकपा और माकपा मौन रहकर कट्टरपथी खेमे का साथ दे रहे हैं। सेक्युलरिस्ट कुनबे के कद्दावर नेता मुलायम सिह ने पिछले दिनों वस्तानवी का समर्थन करने वाले समाजवादी पार्टी के सचिव माविया अली को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से बर्खास्त कर दिया। मुसलमानों में पश्चगामी मानसिकता पोषित करने वाले सेक्युलरिस्ट और कट्टरपंथी मुसलमान ही मुसलमानों की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं की जड़ में हैं। वस्तानवी प्रकरण वस्तुत: मुस्लिम समाज में कूपमंडूकता बनाम सुधार का प्रश्न है, जिसके ईमानदार उत्तर में ही भारत और मुसलमानो का भविष्य निहित है।


[बलबीर पुंज: लेखक राज्यसभा सदस्य हैं]


Source: Jagran Nazariya

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