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भ्रष्टाचार को संरक्षण

संपादकीय ब्लॉग
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विदेशी बैंकों में जमा काले धन पर भारतीय जनता पार्टी द्वारा गठित कार्यदल की दूसरी रिपोर्ट देखने से हैरानी होती है कि 1950 में हमने जो संविधान अपनाया था, क्या वह वास्तव में लागू है! क्या देश में ‘कानून का शासन’ कायम है? क्या देश में संघीय शासन है या फिर यह खत्म हो चुका है? टैक्स हैवन्स देशों में गैरकानूनी ढंग से जमा विपुल धनराशि पर प्रकाश डालने के साथ-साथ यह रिपोर्ट कुछ मामलों पर खासतौर पर ध्यान आकर्षित करती है। रिपोर्ट काले कारनामों को अंजाम देने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने में संप्रग सरकार की हिचकिचाहट को रेखांकित करती है।


मनमोहन सिंह सरकार पर सबसे बड़ा कलंक है हसन अली मामला। हसन अली पुणे का रहने वाला है। स्विस बैंकों में उसके अरबों डॉलर जमा थे और कांग्रेस पार्टी के नेताओं से गहरे रिश्ते है। हसन अली का यह असाधारण मामला उस गंदगी को उजागर करता है, जो भारत की संघीय व्यवस्था में फैली हुई है। कार्यदल के अनुसार, हसन 1990 के दशक में हवाला के धंधे में उतरा। 1982 में उसका बैंक बैलेंस 15 लाख अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2006 में 8 अरब डॉलर हो गया। उसके सहयोगियों और ग्राहकों में हथियारों का अंतरराष्ट्रीय दलाल अदनान खशोगी भी शामिल है। हसन अली ने खशोगी से 30 करोड़ डॉलर प्राप्त किए थे।?स्विस बैंक के अनुसार यह रकम हथियारों की बिक्री से हासिल हुई थी।


हसन अली सुर्खियों में तब आया जब 2007 में आयकर और प्रवर्तन निदेशालय ने उसके प्रतिष्ठानों पर छापे मारे थे। अधिकारियों ने उसके तीन स्विस बैंक खातों का पता लगाया था, जिनमें करीब 36,000 करोड़ रुपये जमा थे। जब्त दस्तावेजों से यह भी पता चला कि वह आतंकी गतिविधियों में भी लिप्त था और कुछ राजनेताओं के लिए काम करता था। इन छापों के बाद जो हुआ, या यह कहना ज्यादा सही होगा कि जो नहीं हुआ, उससे यह संदेह पुष्ट होता है कि कांग्रेस के कुछ राजनेता उसके गॉडफादर है।


जब्त किए गए दस्तावेजों से पता चलता है कि छापों के समय उसके खाते में छह अरब डॉलर जमा थे। इसके अलावा 2.04 अरब डॉलर ऐसे थे, जिन्हे 15 जनवरी, 2007 से पहले बैंकों से नहीं निकाला जा सकता था। ध्यान रहे कि छापेमारी की अंतिम कार्रवाई 7 जनवरी, 2007 को हुई थी। दस्तावेजों से यह भी पुष्टि होती है कि स्विटजरलैंड सरकार ने स्वयं कार्रवाई करते हुए हथियारों की बिक्री से प्राप्त 30 करोड़ रुपये की रकम वाला खाता सील कर दिया था।


कार्यदल की रिपोर्ट के अनुसार इसके तुरंत बाद हसन अली के खिलाफ एफआइआर दर्ज होनी चाहिए थी, जिसके आधार पर भारत सरकार विदेशी खातों से निकासी पर रोक लगवा सकती थी। हथियारों की दलाली, घूसखोरी तथा आतंकवादी संगठनों से संबंध के आधार पर हसन की गिरफ्तारी संभव थी। हालांकि मनमोहन सिंह सरकार ने न तो उसके खातों को फ्रीज करने की कार्रवाई की और न ही आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत उसके खिलाफ कोई कार्रवाई ही की। हैरानी की बात यह है कि छोटी-मोटी नौकरी करने वालों को हर साल लाखों नोटिस भेजने वाले आय कर विभाग ने भी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जिसके पास गैरकानूनी ढंग से 36,000 करोड़ रुपये जमा थे। इसके बजाय इसने स्विस सरकार के पास यह शिकायत दर्ज कराई की उसने भारत सरकार को कोई कर नहीं चुकाया है। स्विटजरलैंड सरकार ने सहयोग की अपील ठुकरा दी और कहा कि स्विस कानून के मुताबिक कर जमा न करना कोई आपराधिक मामला नहीं है। इस प्रकार जानबूझ कर हसन अली को छोड़ दिया गया।


यही नहीं, स्विटजरलैंड सरकार की यह घोषणा तो और भी झटका देने वाली थी कि भारत सरकार द्वारा जमा कराए गए कुछ दस्तावेज फर्जी थे। इसके बाद हास्यास्पद रूप से प्रवर्तन निदेशालय ने छापेमारी के दो साल बाद हसन अली को नोटिस भेजा कि वह 8.04 अरब डॉलर की रकम ब्याज सहित भारत सरकार को जमा कराए। कहने की आवश्यकता नहीं है कि तब तक हसन अली खातों से निकालकर रुपयों को ठिकाने लगा चुका था।?हाल ही में प्रणब मुखर्जी ने प्रेस को सूचना दी कि अब उसके खातों में कोई पैसा नहीं है। क्वात्रोच्ची की तरह हसन अली भी सरकार की कार्रवाई पर हंस रहा होगा।


धनराशि के गबन और हथियारों के अंतरराष्ट्रीय सौदागरों से संबंधों के भरपूर साक्ष्य होने के बावजूद हसन को आज तक इन आरोपों में गिरफ्तार नहीं किया गया है। हालांकि उसके खिलाफ फर्जी पासपोर्ट मामला चलाया गया था जिसमें जमानत पर रिहा होकर वह गायब हो गया। किंतु कार्यदल की रिपोर्ट के अनुसार इस घटना के बाद पुलिस के पास उसके बयान की वीडियो रिकॉर्डिग है जिसमें उसने स्वीकार किया है कि फरार रहने के दौरान वह संप्रग सरकार में शामिल एक वरिष्ठ मंत्री, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री तथा पुलिस आयुक्त से मिला था। कार्यदल को इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि इसका गठन विपक्षी दल ने किया था। कार्यदल में कुछ ऐसे व्यक्ति भी शामिल थे, जिनकी ईमानदारी, योग्यता और निष्ठा संदेह से परे है। इनमें भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ने वाले गुरुमूर्ति, इंटेलीजेंस ब्यूरो के पूर्व निदेशक अजित दोवाल, आइआइएम बेंगलूर में वित्त विषय के प्रोफेसर आर वैद्यनाथन और प्रसिद्ध वकील महेश जेठमलानी शामिल थे।


अकाट्य साक्ष्यों वाला यह मामला विस्फोटक है और हसन अली नाम की एक गोली ही संप्रग-2 सरकार का खात्मा कर सकती है। इस बीच हमें ‘मिस्टर क्लीन’ मनमोहन सिंह से यह सवाल तो पूछना ही चाहिए कि वह देश के सबसे बड़े काले धन के गोरखधंधे में भागीदारी क्यों करते रहे।

[ए. सूर्यप्रकाश: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार है]

Source: Jagran Nazariya

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