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किसानों से छल की तैयारी

संपादकीय ब्लॉग
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करीब 40 साल पहले तक फसल के समय व्यापारी किसानों के साथ छल किया करते थे। थोक और खुदरा विक्रेता फसल की कटाई के समय किसानों को कम कीमत देकर ठग लेते थे। 1966-67 में हरित क्रांति के बाद सरकार ने किसानों को बाजार प्रदान किया और सरकारी खरीद सुनिश्चित की। गेहूं, चावल, कपास और अन्य फसलों के लिए सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किए, जिससे किसानों को काफी हद तक उनकी फसल का उचित मूल्य मिलना शुरू हुआ। उसी समय हरित क्रांति की पट्टियों में मंडियों का गठन भी किया गया, जहां कृषि उपज सुनिश्चित तौर पर बेची जा सकती थी।


सरकारी खरीद की इसी व्यवस्था के कारण आने वाले वर्षो में जहां खाद्यान्न उत्पादन में काफी वृद्धि हुई, वहीं खाद्यान्न के मूल्य हद में रहे। अतीत में बहुत से विकासशील देशों की तरह भारत में खाद्य पदार्थो की बेहिसाब मूल्य वृद्धि नहीं हुई। इस तरह एक संतोषजनक व्यवस्था जारी रही। खाद्य नीति के इन दो महत्वपूर्ण घटकों-सरकारी खरीद और पंजीकृत मंडी के कारण ही हमें अकाल का सामना नहीं करना पड़ा।


1980 में मैं ब्राजील गया था, जो उस समय 440 प्रतिशत की भीषण मुद्रास्फीति का सामना कर रहा था। सुबह मैं ब्रेड खरीदने के लिए लाइन में लगा। मेरे आगे करीब 20 लोग थे। जब तक मेरा नंबर आया, ब्रेड के दाम तीन गुना बढ़ गए। भारत में मुख्य रूप से सरकारी खरीद के कारण ही खाद्यान्न आबादी के बड़े वर्ग तक पहुंचता रहा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से दूरदराज के गरीब लोग भी सस्ते खाद्यान्न से लाभान्वित होते रहे।


मैं चिंतित हूं कि खाद्यान्न के मोर्चे पर देश में लंबे समय से बनी हुई निश्चिंतता अब खत्म होने जा रही है। योजना आयोग और कृषि मंत्री भी सरकारी खरीद के ढांचे को तोड़ देने के लिए उतावले है और मंडियों को निजी कंपनियों को सौंपना चाहते हैं।


फेडेरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री [फिक्की] और कॉनफेडेरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री [सीआइआई] की मंडियों को निजी हाथों में सौंपने की मांग तो समझ में आती है किंतु जब योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया भी उद्योग जगत के लॉबिस्ट की भाषा में बोलने लगते है तो चिंतित होना स्वाभाविक है। हाल ही में, मोंटेक ने सब्जियों और फलों को कृषि उत्पादन विपणन समिति [एपीएमसी] एक्ट के दायरे से बाहर निकालने की इच्छा जताई थी।


एक साक्षात्कार में अहलुवालिया ने कहा कि एपीएमसी कानून में बदलाव कर किसानों को कुछ लोगों के नियंत्रण वाले बाजार नियंत्रण से मुक्त कर देना चाहिए और उन्हे सीधे उपभोक्ता बाजार के हवाले कर देना चाहिए। वह प्याज, सेब और तमाम सब्जियों को एपीएमसी कानून से छूट दिलाना चाहते है। उन्होंने कहा कि थोक विक्रेता के लाइसेंस कुछ ही लोगों के हाथों में केंद्रित है। वर्तमान परिदृश्य में यह बाजार खरीद-फरोख्त का खुला मंच नहीं है। किसानों को उसे माल बेचने की आजादी होनी चाहिए, जिसे वह बेचना चाहे।


इस बयान से लगता है कि अहलुवालिया किसानों की मदद करना चाहते है, किंतु वास्तव में उनके सुझाव में किसानों के लिए भारी मुसीबत है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि समय के साथ-साथ मंडी के संचालन में कुछ समस्याएं पैदा हुई है। किंतु इसके लिए एपीएमसी कानून जिम्मेदार नहीं है। इन कानूनों में मंडियों के प्रभावी नियमन के पर्याप्त प्रावधान है, लेकिन शायद ही सरकार इनके सुचारू संचालन के लिए जरूरी कदम उठाती है।


फल-सब्जियों को मंडियों के दायरे से निकालने का उद्देश्य सरकारी खरीद के तंत्र को नष्ट करना है। वह भी तब जबकि 2005 के बाद एपीएमसी एक्ट में संशोधन कर चावल और गेहूं सीधे किसानों से खरीदने की निजी व्यापारियों को छूट दे दी गई है। दूसरे शब्दों में, मोंटेक सिंह अहलुवालिया बहुत चतुराई से पिछले चार दशकों से खाद्यान्न आत्मनिर्भरता की रीढ़ को तोड़ने का सुझाव दे रहे है।


पिछले दिनों महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए सरकार ने जिस आठ सूत्रीय योजना की घोषणा की है, वह भी मोंटेक की लाइन पर ही है। मैं नहीं जानता कि महंगाई नियंत्रण के जिन उपायों की घोषणा की गई है उनका निहितार्थ कितने लोग समझ पाएंगे। मेरी नजर में, खाद्यान्न महंगाई को खाद्यान्न सुरक्षा तंत्र को ध्वस्त करने का हथियार बनाया जा रहा है। असलियत में यह बड़े खिलाड़ियों के हाथों में खाद्यान्न का नियंत्रण सौंपने का हथकंडा है, ताकि वे अपनी मर्जी से दामों के साथ खिलवाड़ कर सकें। देश को इसके पीछे के खतरनाक खेल को समझने की आवश्यकता है।


महंगाई के लिए एपीएमसी कानूनों को दोष देना सरासर गलत है। अगर यह सच है, तो 2008 में भारत में खाद्यान्न की कीमतें कम कैसे रहीं, जबकि विश्व में दाम आसमान छू रहे थे तथा 37 देशों में खाद्यान्न को लेकर दंगे हुए थे। अब भी, वैश्विक खाद्यान्न मूल्य तेजी से बढ़ रहे है, खासतौर पर चीनी और तिलहन फसलों के। जब एपीएमसी कानून विश्व के अन्य देशों में लागू नहीं है तो वहां कीमतों में आग क्यों लगी है?


हमें 2006-07 को नहीं भूलना चाहिए, जब एपीएमसी एक्ट में संशोधन के बाद रैलिस, हिंदुस्तान लीवर, आइटीसी, ऑस्ट्रेलियन व्हीट बोर्ड और कारगिल ने सीधे किसानों से गेहूं खरीदा था। तब घरेलू उत्पादन की कोई कमी नहीं थी। किंतु सीधे किसानों से इन कंपनियों की खरीद के कारण सरकारी गोदाम खाली हो गए थे। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए सरकार को करीब 80 लाख टन गेहूं करीब दोगुने दामों में आयात करना पड़ा था। इसी के बाद कृषि मंत्रालय ने निजी कंपनियों को सीधे किसानों से खरीदारी न करने की चेतावनी जारी की थी। 2007 के बाद निजी व्यापारी गेहूं और चावल की प्रत्यक्ष खरीद से दूर रहे। अगर किसानों से सीधी खरीद इतनी ही अच्छी है तो कृषि मंत्रालय ने उन्हे इसके लिए

क्यों रोका?


मंडियों में खरीदारी के समय क्रेता को औसतन दस प्रतिशत मंडी टैक्स का भुगतान करना पड़ता है। कुछ सब्जियों और फलों के मामलों में यह दर ऊंची है। इस कर से मंडियों का कामकाज चलता है। मंडियों से गेहूं, चावल, सब्जियों और फल को निकाल देने से मंडी व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी। सरकारी खरीद और मंडियों की व्यवस्था ने किसानों को उनकी फसल का उचित और बेहतर मूल्य दिलाने में सहायता प्रदान की है। इस व्यवस्था में सुधार और मजबूती की आवश्यकता है, न कि इसे ध्वस्त करने की।


[देविंदर शर्मा: लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]

Source: Jagran Nazariya

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