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सतह पर पुराना सवाल

संपादकीय ब्लॉग
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तिब्बती बौद्ध धर्म की सबसे महत्वपूर्ण शख्सियत करमापा लामा के पास से भारी मात्रा में चीनी मुद्रा की बरामदगी से चीन के साथ लामा के संबंध फिर से संदेह के घेरे में आ गए है। इसीलिए करमापा लामा को इस बात का खंडन करने को मजबूर होना पड़ा कि वह बीजिंग के एजेंट है। दलाई लामा, पंचेन लामा और करमापा लामा तिब्बती बौद्ध धर्म की तीन सर्वोच्च हस्तियां है। ये तीनों उन समानांतर संस्थानों के प्रतिनिधि है, जिन्होंने इतिहास के कठिन दौर में बार-बार कठिनाइयों को झेला है। तिब्बत पर पकड़ मजबूत करने के लिए चीन ने वरिष्ठ लामा के देहांत के बाद उनके उत्तराधिकारी के अवतरण की परंपरागत प्रक्रिया पर नियंत्रण बना रखा है।


1992 में बीजिंग ने सात वर्षीय उग्येन त्रिनलेय दोरजी को 17वें करमापा लामा के रूप में चुना और उन्हे तिब्बत के त्सुरफु मठ में तैनात कर दिया। करमापा के इस प्राचीन आवास को सांस्कृतिक क्रांति के दौरान करीब-करीब ध्वस्त कर दिया गया था। उनका पहले मान्यता प्राप्त ‘जीवित बुद्ध’ के रूप में पुनर्जन्म हुआ और इसकी कम्युनिस्ट चीन ने भी पुष्टि की। फिर 1999 में उग्येन दोरजी सनसनीखेज ढंग से नेपाल के रास्ते भारत भाग आए। इस घटना ने पूरे विश्व का ध्यान खींचा। साथ ही जिस आसानी से वह और उनके अनुयायी तिब्बत से भाग निकलने में कामयाब हुए उससे वह लोगों के संदेह के दायरे में भी आ गए।


इससे पहले 1995 में, तिब्बतियों द्वारा चुने गए छह साल के पंचेम लामा का चीन के सुरक्षा बलों ने अपहरण कर लिया था और बीजिंग ने अपने पिट्ठू पंचेम लामा की नियुक्ति कर दी थी। यह आधिकारिक पंचेन लामा ही गायब हो गया। अब बीजिंग वर्तमान दलाई लामा, जो 75 साल से अधिक हो चुके है और जिनका स्वास्थ्य खराब चल रहा है, के देहावसान का इंतजार कर रहा है, ताकि वह उनके उत्तराधिकारी का चुनाव कर सके।


हालांकि दलाई लामा चाहते हैं कि उनका उत्तराधिकारी स्वतंत्र विश्व से चुना जाए। इस प्रकार अब दो विरोधी दलाई लामाओं के उभरने का मंच तैयार हो गया है-एक बीजिंग द्वारा चुना हुआ और दूसरा निर्वासित तिब्बती आंदोलन द्वारा। वास्तव में, पहले ही दो विरोधी करमापा लामा मौजूद है। एक की नियुक्ति चीन द्वारा की गई है जो धर्मशाला में दलाई लामा की छत्रछाया में रहता है और दूसरे ने नई दिल्ली में अपनी सक्रियता कायम की है। भारत सरकार ने शांति कायम रखने के लिए दोनों दावेदारों को सिक्किम के रुमटेक मठ से अलग रखा है।


इस आलोक में, 11 लाख युआन और भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा की खोज से उग्येन दोरजी को लेकर ताजा विवाद खड़ा हो गया है। पुलिस के छापे और उनके नेता से पूछताछ के विरोध में करमापा लामा के समर्थकों ने प्रदर्शन किया, जबकि भारतीय अधिकारियों ने साफ-साफ कहा कि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन करमापा लामा का वित्त पोषण कर रहा हो, ताकि वह करमापा के काग्यु पंथ को प्रभावित कर सके, जिसके हाथ में तिब्बत सीमा पर मौजूद अनेक महत्वपूर्ण मठों का नियंत्रण है। हालांकि, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारी का कहना है कि करमापा को चीनी एजेंट या जासूस मानने से स्पष्ट हो जाता है कि भारत चीन के प्रति अविश्वासपूर्ण रवैया रखता है। जु जिताओ नामक यह अधिकारी पार्टी की केंद्रीय समिति के युनाइटेड फ्रंट वर्क डिपार्टमेंट से जुड़ा है। इस विभाग के तिब्बत प्रखंड के पास मठों की देखरेख और लामाओं में देशभक्ति का जज्बा पैदा करने का जिम्मा है। इसके लिए जरूरत पड़ने पर यह विभाग लामाओं को पुनर्शिक्षित करता है और तिब्बत आंदोलन व भारत-तिब्बत सीमा के दोनों ओर स्थित तिब्बती बौद्ध मठों में दखल बनाए रखता है।


हिमालयी क्षेत्र में समुदायों का आपस में ऐतिहासिक रूप से नजदीकी रिश्ता है, किंतु 1951 में चीन के कब्जे के बाद तिब्बत पर चीन द्वारा लोहे के परदे डाल देने से स्थानीय हिमालयी अर्थव्यवस्था और संस्कृति कमजोर पड़ी है। हालांकि अब भी करमापा के काग्यु पंथ के भारत में अत्यधिक प्रभाव में तिब्बती बौद्ध धर्म ही समान सूत्र बना हुआ है। विदेशी मुद्रा की बरामदगी ने 1999 में उठे सवाल को फिर से उछाल दिया है कि क्या दोरजी का भागकर भारत आना चीन द्वारा प्रायोजित था या फिर वह वास्तव में चीन के दमनकारी शासन से परेशान होकर वहां से भाग निकला था। उनके भागने में चीन को अनेक संभावित लाभ हो सकते है। चीन को एक लाभ यह हो सकता है कि भारत, भूटान और ताइवान द्वारा वरदहस्त प्राप्त उनके प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ उसका दावा मजबूत हो सके। एक और महत्वपूर्ण कारण यह तथ्य है कि काग्यु पंथ का सबसे पवित्र संस्थान सिक्किम में रुमटेक मठ है, जहां पंथ का सर्वशक्तिशाली व्यक्ति ‘काला मुकुट ‘ हासिल करता है। माना जाता है कि यह मुकुट देवियों के बालों से बना है और करमापा का प्रतीकात्मक मुकुट है। अगर उग्येन दोरजी तिब्बत में ही रहते तो वह अपने प्रतिद्वंद्वी के हाथों इसे गंवा सकते थे। बीजिंग को इस तथ्य से भी राहत मिल सकती है कि नाजुक तिब्बती राजनीति में इसके करमापा को दलाई लामा का समर्थन हासिल है। दलाई लामा गेलुग स्कूल से संबद्ध है और तिब्बती परंपरा के अनुसार करमापा के चुनाव या मान्यता प्रदान करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। फिर भी, विशुद्ध राजनीतिक कारणों से दलाई लामा ने उन्हे अपनी मान्यता प्रदान कर दी है।


अंतिम करमापा का निधन 1981 में हुआ था और उसके बाद उत्तराधिकार को लेकर बढ़ते विवाद में तिब्बत बुद्ध धर्म के सबसे संपन्न काग्यु पंथ की करीब सात हजार करोड़ रुपये की संपत्ति के लिए संघर्ष भी शामिल है। दलाई लामा पर निंदात्मक हमलों के विपरीत चीन ने इसके करमापा को न तो अमान्य ठहराया और न ही उसकी निंदा की, जबकि भारत भाग आने से साफ संकेत मिल गया था कि चीन उनकी वफादारी पाने में विफल रहा है। यहां तक कि मंदारिन भाषी उग्येन दोरजी कभी-कभार चीन सरकार की आलोचना करते रहे है, फिर भी बीजिंग ने उन पर हमला करने से हमेशा गुरेज किया है। रकम की बरामदगी से उनके प्रतिद्वंद्वी करमापा जरूर खुश है और इसे उनका पर्दाफाश बता रहे है। वर्तमान दलाई लामा के जाने के बाद दो दलाई लामाओं के संघर्ष में करमापा केंद्रित पहेली, छद्म राजनीति और साजिशों की ही भारत अपेक्षा कर सकता है। चीन के खिलाफ दलाई लामा भारत की सबसे बड़ी पूंजी हैं। भारत को दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चुनाव की सुनियोजित तैयारी करनी चाहिए, नहीं तो वह एक बार फिर मुंह की खाएगा, जैसा कि करमापा प्रकरण में हुआ है।


[ब्रह्मा चेलानी: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ है]

Source: Jagran Nazariya

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