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2010 कांग्रेस पार्टी और मनमोहन सिंह, दोनों के लिए बड़ा खराब बीता। राष्ट्रमंडल खेलों से शुरू होने वाला घोटालों का सिलसिला 2 जी घोटाले तक बराबर जारी रहा। 2 जी घोटाले की जांच के लिए जेपीसी गठित करने को लेकर विपक्ष द्वारा संसद में कामकाज न चलने देने से कांग्रेस का आत्मविश्वास हिल गया है। पार्टी का मनोबल बनाए रखने के लिए पिछले सप्ताह कांग्रेस ने भाजपा पर कर्णभेदी वार जरूर किया है, अन्यथा दिल्ली में कांग्रेस का उद्देश्यहीन महाधिवेशन इस नुकसान की क्षतिपूर्ति नहीं कर पाया है। इसके विपरीत, घोटालों का बवंडर, टेलीफोन टैपिंग और विकिलीक्स खुलासों ने प्रधानमंत्री की छवि पर दाग लगा दिया है। इस कारण कांग्रेस में उनके उत्तराधिकारी की बहस जोर पकड़ रही है।
हालांकि राजनीति एक दीर्घकालीन खेल है। 2014 तक आम चुनाव नहीं है। इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि संप्रग इतना नाकारा हो चुका है कि उद्देश्यपरक सरकार चला ही नहीं सकता। समय अब भी संप्रग के साथ है। वह इस संकट से उबर कर राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर गौर फरमाता है या नहीं, यह तो अभी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता, फिर भी यह तय है कि अगली गरमियों में होने वाले पांच विधानसभा चुनावों में जनादेश पर वह काफी कुछ निर्भर करेगा। पश्चिम बंगाल चुनाव परिणाम में वह कुंजी छिपी है, जो राष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप तय करेगी। 34 साल तक वाम मोर्चे का शासन होने से यह देखना दिलचस्प हो गया है कि राइटर्स बिल्डिंग पर किसका नियंत्रण रहता है। पश्चिम बंगाल के साथ-साथ केरल में भी सत्ता परिवर्तन नजर आ रहा है। इन राज्यों में वाम मोर्चे की हार से कम्युनिस्ट पार्टियां राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर चली जाएंगी।
2009 के आम चुनाव से पहले, जब वाम मोर्चे के पास 70 लोकसभा सदस्यों का मजबूत समूह था, माकपा ने यह भ्रम फैलाने में मुख्य भूमिका निभाई की खंडित जनादेश की स्थिति में सत्ता की कुंजी तीसरे मोर्चे के पास होगी। पश्चिम बंगाल में अजेय होने के आधार के बल पर ही प्रकाश करात देश में राजनीति के द्विध्रुवीय विभाजन को चुनौती पेश करने की हिम्मत जुटा पाए थे। माकपा को पश्चिम बंगाल से ही 30 से अधिक सीटे जीतने का पक्का भरोसा था बशर्ते राजग पर तगड़ा हमला बोल दिया जाता, जिसके बहुत से सदस्य दल भाजपा के साथ के कारण अल्पसंख्यक वोटों के बिदकने से सशंकित थे। माकपा नीत तीसरे मोर्चे की वैकल्पिक संभावनाओं के कारण ही तेलगू देशम और बीजू जनता दल ने राजग से किनारा कर लिया था। इसी वजह से असम गण परिषद भी भाजपा के साथ दीर्घकालीन गठबंधन से हिचक रही थी।
संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल के आखिरी दो सालों में कांग्रेस का सिरदर्द बना वाम मोर्चा राजग के अनेक साझेदारों को वैकल्पिक सब्जबाग दिखाकर हालिया वर्षो में भाजपा का खेल बिगाड़ने का काम कर रहा है। दूसरी तरफ इसका सीधा फायदा कांग्रेस को हुआ है, क्योंकि इस प्रक्रिया में तमाम कांग्रेस विरोधी क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा नीत गठबंधन के साथ नहीं आईं। माकपा की शक्ति में गिरावट के कारण तीसरे मोर्चे की संभावनाएं क्षीण हो गई है, जिससे भाजपा नीत राजग के सामने राष्ट्रीय मंच पर संप्रग को टक्कर देने का मैदान खुल गया है। 1998 और 2004 की तरह ही राष्ट्रीय द्विध्रुवीय संभावना के पुन: उभार से कांग्रेस को लाभ हो सकता है, बशर्ते वह सेक्युलर-पंथिक संघर्ष को चुनावी जंग में रूपांतरित कर सके। हालांकि इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा इसमें अडंगे लगाने का पुरजोर प्रयास करेगी। इस बात की भी पूरी संभावना है कि राजग संप्रग के दस साल के कार्यकाल पर हमला बोलकर चुनाव में फायदा उठाना चाहेगा।
पश्चिम बंगाल कांग्रेस के लिए असमंजस का कारण बना हुआ है। इसकी प्रदेश इकाई वाम सत्ता से छुटकारा चाहती है, जबकि राष्ट्रीय मजबूरियां प्रदेश में वाम मोर्चे के पक्ष में है, ताकि भाजपा को नियंत्रित रखा जा सके। अगर कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस की बराबरी की साझेदार होती तो चुनाव बिल्कुल अलग होता, किंतु यहां कांग्रेस एक तरह से नेतृत्वविहीन है और मात्र चार सीमायी जिलों में ही इसका असर है।?इसके अलावा, कांग्रेस को अस्थिर चित्त की तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख को अपने प्रभाव में लाने में दिक्कत होती है, जिनका एकसूत्रीय कार्यक्रम वाम दलों को उखाड़ फेंकना है। जैसाकि संसद के हालिया गतिरोध में तृणमूल कांग्रेस के व्यवहार से स्पष्ट हो जाता है कि ममता बनर्जी राष्ट्रीय मुद्दों पर कांग्रेस के साथ जाने के बजाय विपक्ष का साथ देने को तैयार है, अगर इससे उनके क्षेत्रीय हितों की पूर्ति होती है। तृणमूल कांग्रेस में व्याप्त इस संदेह का कारण यह है कि अपनी राष्ट्रीय मजबूरियों के कारण कांग्रेस पश्चिम बंगाल में क्षेत्रीय हितों को दांव पर लगा सकती है।
पश्चिम बंगाल में महाजोत के भविष्य को लेकर कांग्रेस और तृणमूल में बढ़ते तनाव को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। घिरी हुई माकपा को पता है कि उसकी संभावनाएं वामविरोधी वोटों के बंटवारे पर ही टिकी है। इसीलिए माकपा बड़ी सावधानी से भाजपा को यह विश्वास दिलाने का प्रयास कर रही है कि अगर वह सभी 294 सीटों पर चुनाव लड़ती है तो सात प्रतिशत से अधिक मत हासिल कर सकती है। वाम दल जानते है कि अगर केंद्र की छवि बोझ बन जाएगी तो ममता संप्रग सरकार से बाहर निकलने में जरा भी वक्त नहीं लगाएंगी। विधानसभा चुनाव ऐसा दुर्लभ मौका है जब पश्चिम बंगाल का घनीभूत ज्ञान राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करेगा। इस पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है।
[स्वप्न दासगुप्ता: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार है]
Source: Jagran Yahoo
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