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एक समय था जब भारतवासियों का चरित्र और न्यायप्रियता दुनिया भर में प्रसिद्ध थी। 19वीं सदी तक यह माना जाता था कि कुछ बुराइयों को छोड़कर हर बात में भारत यूरोप से श्रेष्ठ है। यह बात अनेकानेक विदेशी अवलोकनकर्ताओं ने सदियों से कही है। उदाहरण के लिए प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक वाल्टेयर या बबई के गवर्नर रहे विद्वान माउंट स्टुअर्ट एल्फिंस्टन का लेखन देख सकते हैं। उसी भारत में आज एक घोर भ्रष्ट सस्कृति पनप गई है। अब तो लगने लगा है मानो उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए भ्रष्टाचारी होना एक योग्यता में बदल गया है। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने 2 जी स्पेक्ट्रम मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि ‘सार्वजनिक धन का निजी दुरुपयोग’ एक गंभीर बीमारी है।
यह बीमारी दुनिया के उन्नत देशों में नहीं है। उन देशों में भी नहीं, जिनके संविधान और शासन-प्रणाली की हमने नकल की। तब भारत में ऐसा होना हमारे गिरते चरित्र का ही लक्षण है। भौतिक उन्नति के सूचकाकों से चारित्रिक पतन की बात छिपाई नहीं जा सकती। बात केवल घोटालों की ही नहीं, दिन-दिन के शासन-प्रशासन में उत्तरदायित्वहीनता, लापरवाही, गलत प्राथमिकताएं, पदोन्नति और अवनति में मनमानापन आदि भी गिरावट के ही लक्षण हैं। बड़े आकार के भ्रष्टाचार पर शोर-शराबा इसका भी संकेत है कि छोटे आकार की गड़बड़ियों को अब चिंताजनक नहीं माना जाता। आइपीएल, कॉमनवेल्थ खेल, 2 जी स्पेक्ट्रम, बैंक लोन घोटाला आदि विराट आकार के घोटाले इसकी स्पष्ट सूचना दे रहे हैं कि भ्रष्टाचार में किसी को किसी प्रकार का भय नहीं रह गया है। भ्रष्टाचारियों को विश्वास है कि कानून एवं व्यवस्था की देख-रेख करने वाले उन्हें दंडित नहीं कर सकते। यह तभी हो सकता है जब राजनीतिक सत्ताधारी निर्बल हों अथवा वे स्वय उन घोटालों में कहीं न कहीं हिस्सेदार हों। शायद ही किसी मामले के पूरे कागजात भी मिलते हैं। यह बिना संगठित सहमेल के नहीं हो सकता। सभी महत्वपूर्ण फाइलें गायब हो जाती हैं। तब किसी को दोषी ठहराया ही कैसे जा सकता है? यह हमारे चारित्रिक पतन का सूचक है, किसी सस्थागत कमजोरी का नहीं। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सविधान का लोकार्पण करते हुए कहा भी था कि किसी कानून या विधान में स्वयं कोई शक्ति नहीं होती। उसकी शक्ति उन राजकर्मियों के चरित्र पर निर्भर है जो उसके अनुपालन का उत्तरदायित्व ग्रहण करते हैं।
स्वतंत्र भारत के सत्ताधारियों में श्रेष्ठ राजनीति और सुशासन की पर्याप्त योग्यता नहीं थी। इसीलिए तुरंत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों में गड़बड़ियों, नीतिगत भूलों और घोटालों का भी आरंभ हो गया। अधिकाश गड़बड़ियों का कारण हमारे राजनीतिक कर्णधारों की दुर्बलता ही थी। डॉ. लोहिया के लेखन से स्वतत्र भारत के नेतृत्व का चरित्र समझा जा सकता है। लोहिया ने काग्रेस और बेइमानी को संबद्ध बताया था। अज्ञानता, भय, आलस्य और ढिलाई जैसे कई चारित्रिक दुर्गुणों के कारण नीति-निर्माण और प्रशासन की उत्तरोत्तर दुर्गति हुई।
अज्ञानवश ही नए भारत के नेतृत्व ने वैचारिक लफ्फाजी को नीति-निर्माण तथा अपनी घोषणाओं को वास्तविकता का पर्याय मान लेने की भूल भी की। ‘सामाजिक परिवर्तन’, ‘समाजवाद’, ‘आर्थिक न्याय’ जैसे नारों को बार-बार दोहराकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली गई। वैचारिक भ्रम के कारण ही भ्रष्टाचार को मामूली समझ कर नजरअंदाज किया गया। नि:सदेह, समाजवादी भ्रम से लगाव के कारण ही हमारे प्रथम प्रधानमत्री एक प्रमुख राजनीतिक दल को अवैध रूप से विदेशी पैसा लेने दे रहे थे। फिर उन्होंने जीप घोटाला, मूंदड़ा काड, मुख्यमत्री कैरो आदि से जुड़े विविध मामलों की भी अनदेखी की। स्वय उनके दामाद फिरोज गांधी ने इस पर कड़े प्रश्न उठाए थे, पर नेहरू ने भ्रष्टाचार को कोई बड़ी समस्या नहीं समझा। ऐसी गलत शुरुआत से ही स्वतत्र भारत में धीरे-धीरे भ्रष्टाचार ने विकराल रूप धारण किया। जो कदाचार इंदिरा गांधी के समय व्यापक हुआ उसका वैचारिक-व्यवहारिक पूर्वाधार पहले ही स्थापित हो चुका था। यह सांकेतिक तथ्य है कि जिस समय सर्वोच्च स्तर पर भ्रष्टाचार व्यापक रूप ले रहा था उसी समय आपातकालीन तानाशाही का लाभ उठाते हुए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कुख्यात 42वें संशोधन द्वारा ‘समाजवाद’ को जोड़ दिया गया। भ्रष्टाचारियों द्वारा समाजवाद का यह आग्रह सांयोगिक नहीं था।
ध्यान देने की बात है कि भारत में समाजवादी नियोजन, राजकीय क्षेत्र की वृद्धि तथा आर्थिक-उद्यम गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण से एक बदनाम ‘लाइसेंस-कोटा-परमिट राज’ की स्थापना हुई। यह व्यवहार में राजनेताओं, नौकरशाही और बिचौलियों के लिए भ्रष्टाचार की गगोत्री में बदल गया। राज्यतंत्र का बेतहाशा विस्तार उसी का एक पहलू है। वर्तमान काग्रेसी नेतृत्व उसी मॉडल को चाहता है। दूसरे दलों में भी कई नेता विनिवेश-विरोधी हैं। वे राज्य के नियंत्रण में अधिक से अधिक संस्थान रखना चाहते हैं, ताकि ऊपरी आय और विविध सुविधाओं का श्चोत बना रहे। अत: पिछले छह दशकों में भ्रष्टाचार बढ़ने में चारित्रिक दुर्बलता और वैचारिक दुराग्रहों की पृष्ठभूमि को भूलना नहीं चाहिए। अब यदि भ्रष्टाचार से मुक्ति के उपाय नहीं ढूंढे गए तो भारत की स्थिति उस वृक्ष-सी हो रही है, जिसे लोहे की बाड़ से सुरक्षित किया गया, किंतु जिसकी जड़ों में दीमक लग रही हो। हम इस समस्या को गभीरता से लें, अन्यथा भ्रष्टाचार की सेक्युलर-वामपंथी विचारधारा हमें सोवियत संघ जैसे अनायास ध्वस्त कर सकती है। नाभिकीय आयुध, सूचना तकनीक और सेंसेक्स के पास चरित्र को खाने वाली दीमक का इलाज नहीं है।
[एस. शंकर : लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है]
Source: Jagran Yahoo
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