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सुरक्षा के मोर्चे की सच्चाई

संपादकीय ब्लॉग
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दिसंबर विश्व की प्रमुख शक्तियों से भारत के कूटनीतिक संबंधों की रस्साकसी का महीना है। नवंबर में ओबामा ने भारत का दौरा किया, दिसंबर की शुरुआत में फ्रांसीसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी दौरे पर आए और मध्य में चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने नई दिल्ली आ रहे है। इसके एक सप्ताह बाद रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव का राष्ट्रपति भवन में स्वागत किया जाएगा। संक्षेप में 2010 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के आगमन के साथ ही साल के खत्म होते-होते भारत उन सभी देशों के नेताओं की अगवानी कर चुका होगा जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य है।


क्या इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत की प्रासंगिकता बढ़ रही है या भारत एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभर चुका है? शायद इस सवाल का जवाब भारत के संदर्भ में पिछले दिनों हुई एक घटना के आकलन में निहित है। वैश्विक भ्रष्टाचार के बारे सर्वेक्षण करने वाली संस्था ट्रांसपेंरेसी इंटरनेशनल ने अपनी रपट में भारत को दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में शामिल किया। भारत के साथ बदनामी का दाग ढोने वाले देशों में अफगानिस्तान, कंबोडिया, कैमरून, इराक, लाइबेरिया, नाइजीरिया, सेनेगल, सिएरालियोन और युगांडा शामिल है।


ट्रांसपेंरेंसी इंटरनेशनल का यह निष्कर्ष भारतीयों के लिए आश्चर्य का विषय नहीं है, क्योंकि यहां के लोग शासन-प्रशासन के घपले-घोटालों से भलीभांति परिचित है। अब तो कारपोरेट जगत और यहां तक कि न्यायिक तंत्र में भी भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे है। वर्तमान समय 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में शोर-शराबा मचा हुआ है, जबकि कुछ ही समय पहले राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में घपलेबाजी और आदर्श हाउसिंग सोसाइटी में घोटाले का मामला सामने आ चुका है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आइपीएल में हेरफेर की कहानियां सामने आई थीं। देश को शर्मसार करने के लिए जैसे यही काफी न हो।


कर्नाटक में मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा और उनके कुछ मंत्रियों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले भी उभरे है। कर्नाटक में भ्रष्टाचार के मामले यह बताते है कि सूचना तकनीक के क्षेत्र में नाम कमाने वाला यह राज्य भी घपले-घोटालों से मुक्त नहीं है। कर्नाटक अकेला नहीं है, आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में एक पूर्व मुख्य सचिव को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की सजा सुनाई गई है। कुल मिलाकर सूची लंबी है। हाल में मीडिया-कारपोरेट संबंधों का जो सच उजागर हुआ है उससे यह लगता है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर भी खरोंचे आने लगी है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या भारत पर लगे सर्वाधिक भ्रष्ट देश के ठप्पे का उसकी प्रतिष्ठा और सुरक्षा पैमाने पर कोई प्रभाव पड़ेगा? इस सवाल का उत्तर जोरदारी के साथ दिया जा सकता है-हां। चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की आगामी भारत यात्रा इस संबंध की समीक्षा करने का उचित अवसर है। आज भारत गंभीर आंतरिक संस्थागत संकट से जूझ रहा है और तथ्य यह है कि संसद राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर आवश्यक विचार-विमर्श करने की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पा रही है।


भारत के लिए सबसे प्रमुख वाह्य चुनौती चीन का उदय बनी हुई है, जो अपनी शक्ति के प्रदर्शन में कभी भी सकुचाता नहीं है। उसकी इस प्रवृत्ति की एक झलक हाल में नोबेल शांति पुरस्कार से जुड़े घटनाक्रम में देखने को मिली। चीन के कहने पर अनेक राष्ट्रों ने इस पुरस्कार समारोह का बहिष्कार किया। भारत की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उसने नोबेल पुरस्कार मामले में चीन के दबाव की कहीं कोई परवाह नहीं की। फिलहाल ऐसी अटकलें लगाई जा रही है कि वेन जिआबाओ की भारत यात्रा प्रभावित हो सकती है। यह याद रखना होगा कि भारत और चीन के बीच 1960 से ही क्षेत्रीय और सीमा संबंधी विवाद कायम हैं। मई 1990 के बाद चीन और पाकिस्तान के बीच सहयोग की जैसी प्रकृति सामने आई है उससे भारत के लिए दो मोर्चो पर एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। शीतयुद्ध या उसके पहले के समय में भारत के लिए दोहरी चुनौती का मतलब चीन और पाकिस्तान के बाहरी खतरे से होता था, लेकिन अब दोहरे सुरक्षा खतरे में आंतरिक-वाच् संबंध शामिल हो गया है और मुंबई का आतंकी हमला इसकी बानगी के रूप में सामने आया है।


चीन हमेशा से भारत के प्रति संबंधों के मामले में शंकालु रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार यह स्पष्ट भी किया था कि ऐसा लगता है कि बीजिंग भारत को स्थायी रूप से असंतुलन की मुद्रा में बनाए रखना चाहता है। चाहे निकोलस सरकोजी हों, वेन जियाबाओ हों या फिर मेदवेदेव -वे भारतीय राजनीतिक नेतृत्व और घरेलू शासन की गुणवत्ता का आकलन करने के बाद ही अपने नतीजे पर पहुंचेंगे। यह संभव है कि उन्हे निराशाजनक निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विवश होना पड़े। हमारे नीति-नियंता कुछ भी क्यों न कहे, खराब शासन का समग्र परिणाम यह है कि आंतरिक और वाच् सुरक्षा, दोनों पर ही बुरा असर पड़ रहा है। एक देश जो विधि के शासन को सुनिश्चित नहीं कर सकता वह जटिल सुरक्षा चुनौतियों से कारगर तरीके से शायद ही निपट सके। यदि भारत पिछले दो दशक में अपनी सेनाओं का आधुनिकीकरण नहीं कर सका है तो इसका कारण भ्रष्टाचार का भय ही है। साफ है कि बोफोर्स की छाया लंबी है। दिसंबर कूटनीतिक रूप से बहुत व्यस्तता वाला माह रहने वाला है, लेकिन भारत और चीन के बीच बढ़ता अंतर और राजनीतिक गिरावट यह आभास दे रही है कि क्या दिल्ली 1960 के मूड में वापस लौट रही है, जब हम 1962 के खतरे का अंदाज भी नहीं लगा सके थे?


लचर शासन के कारण आंतरिक और वाह्य सुरक्षा के सामने चुनौतियां गंभीर होती देख रहे है सी. उदयभाष्कर

Source: Jagran Yahoo


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