Menu
blogid : 133 postid : 1013

सुशासन का जनादेश

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

विकास को बिहार की जनता का सलाम। ..और यह रहा आजादी के बाद अब तक का सबसे सकारात्मक जनादेश। तीन दशकों से विकास की अंतिम किरण से महरूम, जातिवाद और माफियाराज के दलदल में धंसे बिहार में नीतीश कुमार की जीत तो उसी दिन हो गई थी जिस दिन उन्होंने विकास को चुनाव का एजेंडा तय कर दिया था। हालाकि, लोकतंत्र में जीत का बटन जनता के पास था, जो उसने नीतीश के पक्ष में दबाकर उनकी सुशासन और विकास की नीति पर ऐतिहासिक मुहर लगा दी है। विकास के नाम पर बिहार के अभूतपूर्व जनादेश ने अब लगभग पूरे देश को यह संदेश दे दिया है कि ‘काम करो और राज करो।’ नीतीश से पहले शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, शीला दीक्षित और नरेंद्र मोदी काम के नाम पर अपने राज्य की विजय गाथा लिख चुके थे। देश के निचले पायदान पर खड़े और जातीय और सामाजिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त बिहार में नीतीश ने उन सबसे बड़ी लकीर खींच दी है।


बिहार में अंतिम चरण के चुनाव कवरेज के दौरान जब मैंने कुछ लोगों से पूछा कि ‘नीतीश का यूएसपी क्या है.?’ तपाक से जवाब मिला कि पाच ‘स’ उनका यूएसपी है। पाच ‘स’ यानी सड़क, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और साइकिल। साफ था कि जातियों और क्षेत्रों में बंटे बिहार को विकास का जो चस्का लगा है और नीतीश ने जो उम्मीदें जगाई हैं उन्हें वह बीच राह में छोड़ने को राजी नहीं है। नीतीश के पाच ‘स’ पर छठे ‘स’ यानी सकारात्मक जनादेश का नया इतिहास लिख दिया है। विपक्षी दलों का प्रचार भी आलोचनात्मक रूप में ही सही, लेकिन नीतीश के विकास एजेंडे के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। बिहार जैसे राज्य में विकास के बूते चुनाव में उतरने का खतरा नीतीश ने यूं ही नहीं उठाया। यह उनका राजनीतिक कौशल ही था कि जनता को न सिर्फ विकास का स्वाद चखाया, बल्कि उसे समझाने में भी कामयाब रहे कि छलावे वाले नारों में कुछ नहीं रखा है। करीब तीन दशकों के पिछड़ेपन, माफियाराज, जातिवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ नीतीश सड़क, सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य की इतनी बड़ी लकीर खींचने में सफल रहे कि ये सब गौण होकर रह गए। इतना ही नहीं, अपने पूर्ववर्ती लालू प्रसाद यादव की सामाजिक न्याय की परिभाषा को इतना व्यापक कर दिया कि विपक्षी दलों के सभी जातीय समीकरण ही गड़बड़ा गए।


भाजपा के साथ नीतीश को साप्रदायिकता के मुद्दे पर घेरने की काग्रेस, लालू और पासवान की कोशिशें भी परवान न चढ़ सकीं। अल्पसंख्यक समुदाय की संवेदनाओं को पहले ही समझ चुके नीतीश ने हर अहम मौके पर भाजपा के साथ बाहें चढ़ाने से भी गुरेज नहीं किया। इस चुनाव में उन्होंने भाजपा को हिंदुत्व नहीं, बल्कि अपने बनाए विकास के एजेंडे की सड़क पर ही दौड़ाया। यह बात अलग है कि भाजपा को भी इससे कोई गुरेज नहीं था, क्योंकि पिछले पाच साल में बिहार साप्रदायिक तनाव जैसे किसी अवसर से नहीं गुजरा था।

बिहार में 15 साल तक एकछत्र राज करने वाले लालू प्रसाद यादव की तरह नीतीश कुमार भी जयप्रकाश आदोलन की पैदाइश हैं। लिहाजा उनका डीएनए तो ‘सामाजिक न्याय’ का है और उनकी शिराओं में भी ‘समाजवाद’ ही दौड़ता है। इसके बावजूद नीतीश की सोच और काम करने का तरीका बिल्कुल अलग है। उन्होंने सामाजिक न्याय की किसी परिभाषा को तोड़ा नहीं, बल्कि एक नई वृहद परिभाषा गढ़ने की दिशा में आगे बढ़ गए हैं। नीतीश ने जब महादलित बनाया था और बंटाईदार कानून की दिशा में बढ़े तो उन्हें मालूम था कि इसमें जोखिम कम नहीं। बिहार के सामाजिक और राजनीतिक पूर्वाग्रह उनके आर्थिक बदलाव और विकास के नारे से दो-दो हाथ कर सकते हैं। उन्हें यह भी मालूम था कि इससे बिहार के जातिवादी सामाजिक ताने-बाने में रची-बसी जनता में अगड़े भड़क सकते हैं।


यही कारण रहा कि नीतीश अपने इस संवेदनशील और महत्वाकाक्षी एजेंडे पर बढ़े, लेकिन उनकी ‘सेंस आफ टाइमिंग’ गजब की थी। समय की नब्ज पहचानने की उनकी क्षमता ही थी कि बिहार के पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देकर वह पिछड़े वर्ग के नेताओं से बिल्कुल अलग खड़े नजर आए। संसद में भी महिला आरक्षण के मुद्दे पर भी अपनी पार्टी के अध्यक्ष शरद यादव की राय से किनारा कर देश की आधी आबादी के चहेते बन गए। बिहार में महिलाओं ने नीतीश की पहल पर मुहर तो लगाई ही, लेकिन वह अपने इस कदम से अगड़ों के दिलों में भी भरोसा जगाने में कामयाब रहे। जेपी या लोहिया के चेले होने के बावजूद नीतीश ने लालू से बिल्कुल विपरीत राजनीतिक शैली विकसित की। देश-दुनिया में मजाक का पर्याय बन चुके बिहार को उसकी अस्मिता याद दिलाई। अवसरों के अभाव में दूसरे राज्यों में पलायन और कटाक्षों से पीड़ित बिहारी दर्द को नीतीश ने पहचाना और उसे ही अपनी ताकत बनाया।


दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, चेन्नई या यूरोपीय देशों में अपनी काबिलियत का परचम फहरा रहे बिहारियों को नीतीश के कार्यकाल में ही यह भरोसा बंधा कि उनके राज्य की तस्वीर बदल सकती है। कई वर्ष पहले नीतीश ने मुझसे कहा था कि ‘मैं बिहार के मर्ज और दर्द को समझ रहा हूं और उन्हें सिर्फ मौके दिलाने की जरूरत भर है।’ खास बात है कि नीतीश को जब मौका मिला तो उन्होंने उपचार की कोशिश की और बदला हुआ बिहार सबके सामने है।


सबसे साहसिक काम था राजनीतिक संरक्षण पाए माफियाओं और उनके आकाओं को सही जगह दिखाना। नीतीश ने न सिर्फ विपक्षी, बल्कि जद -भाजपा के साथ जुड़े हर आपराधिक छवि वाले नाम को उसकी जगह बताकर ही रखी। यही कारण है कि अब चंपारण या दुमका ही नहीं, सिवान के भी किसी दूर गाव में बेटे या पति को घर आने में देर होती है तो महिलाओं को घबराहट नहीं होती। नीतीश ने चुनाव में न सिर्फ इस सुरक्षा भाव को भुनाया, बल्कि भविष्य में भ्रष्टाचारियों पर भी कार्रवाई की उम्मीदें जगाई। अपनी हर चुनावी सभा में नीतीश यही कहते आए कि ‘पहले पाच साल में अपराधी अंदर, अगले पाच साल में भ्रष्टाचारी अंदर होंगे और उनकी बड़ी कोठियों में बच्चों के लिए स्कूल भी खुलेंगे।’ बिहार में बिना खून-खराबे के चुनाव की कोई कल्पना भी नहीं करता था, लेकिन इस बार यह मिथक भी टूट गया। हालाकि, यह सही है कि बिहार में बिजली की कमी एक बड़ी समस्या है। उद्योग जगत अभी बिहार की तरफ देख तो रहा है, लेकिन निवेश से दूर है। शायद वह विकास के स्थायी भाव का इंतजार कर रहा था। बिहार को अब शायद राज्य को पहला अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा भी मिले। बिजली, निवेश-उद्योग और रोजगार की समस्या को खुद नीतीश भी समझ रहे थे। इसीलिए यह सवाल उठते कि उससे पहले ही वह हर चुनावी सभा में वादा करते थे कि ‘नींव डाल दी है, अब जनादेश दें तो सामाजिक-आर्थिक विकास की बुलंद इमारत खड़ी करने में देर नहीं लगाऊंगा।’ अब जनता से किया गया अपना वादा ही उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। जनता ने तो लगभग तीन चौथाई जनादेश देकर अपने भरोसे का बोझ उनके कंधों पर डाल दिया है।


[प्रशात मिश्र: लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं]

Source: Jagran Yahoo

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply to preetam thakurCancel reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh