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आखिरकार जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सुलह-सफाई की संभावनाओं के सामने नई दीवार खड़ी ही कर दी। अयोध्या विवाद पर हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सबसे पहले अपील करने वाली जमीयत के इस रुख का कारण मुस्लिम समाज की आशकाएं हो सकती हैं, जिसे बनारस के इस्लाम भाई कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं कि अयोध्या के बाद ये लोग काशी मथुरा की ओर रुख करेंगे और यही फार्मूला वहा भी लगाने की कोशिशें की जाएंगी। उनकी चिंता जायज है कि कहीं यह समाधान दूसरी जगह विवादों का कारण तो नहीं बनने वाला है। पहली बात इस समाधान में मुख्य भूमिका न्यायालय के आदेश की है। यदि अन्य विवाद भी भविष्य में खड़े किए जाते हैं तो इतना तय है कि समाधान न्यायिक प्रक्रिया के तहत ही हो सकेगा। अयोध्या पर हुए इस न्यायिक आदेश ने भविष्य में भीड़तंत्र द्वारा समाधान की गुंजाइश खत्म कर दी है। इसलिए यह समाधान दूसरी जगहों पर विवाद खड़े करेगा, ऐसी आशका सही नहीं लगती।
टूटे हुए मंदिरों के बरक्स टूटे हुए समाज की चिंता ज्यादा महत्वपूर्ण है, लेकिन कोई उनकी परवाह करता नहीं दिखाई देता। विवादित ढाचे के ध्वस्तीकरण में एक तात्कालिक कट्टरवाद दिखा, जो बाद में बिखर गया। फिर भी यदि हिंदू कट्टरवाद का अस्तित्व मान लिया जाए तो सवाल है कि यह कट्टरवाद किसे लक्ष्य कर रहा है? बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के डॉ. प्रशात ने भी चिंताएं जाहिर की हैं। यह निर्विवाद है कि मध्यकालीन मुस्लिम हमलावरों और शासकों ने बड़े पैमाने पर मंदिरों को ध्वस्त किया। 20 से 30 हजार की सेनाओं को लेकर आने वाले ये हमलावर कोई धार्मिक नेता नहीं थे, जो प्रवचन देकर धर्म परिवर्तन करा सकते। इन्होंने भी वही रास्ता अपनाया जो हर हारे हुए समाज के विरुद्ध होता रहा है। ये सेनाएं और सिपहसालार अपने परिवार और महिलाएं तो लाए नहीं थे। यहा कोई मुस्लिम समाज था ही नहीं। इन्हें अपना वर्ग खड़ा करने के लिए हिंदू समाज से ही धर्म परिवर्तन कराना था, इसलिए इन्होंने जानबूझकर आस्था के केंद्रों पर हमले किए। उन्होंने मजहब का गलत इस्तेमाल किया। बरस दर बरस बड़ी संख्या में मंदिरों को तोड़े जाने से हिंदू समाज को जो मर्मातक पीड़ा रही उसका अहसास हमारे मुस्लिम समाज को है। पुजारियों का कत्ल, बंदी बनाए गए क्षत्रियों का बलात् मतातरण कौन भूल सकता है। उन क्षत्रियों ने अपनी परंपराएं नहीं छोड़ीं। उनके खून में भारतीयता की यह खुशबू उन्हें उन लोगों से अलग करती है जो यहीं के होकर भी अपने को विदेशियों की औलादें मानते हैं। हमारे लिए तो अपने इतिहास को सही अथरें में समझना ही साध्य है।
बनारस के दिनों में शबे-बरात के मुकद्दस त्यौहार के दिन कब्रिस्तानों में रोशनी के लिए कुछ मुस्लिम साथियों ने स्थानीय प्रशासन से अनुरोध किया। प्रशासन परंपरागत रूप से इस कार्य में सहयोग देता है। मैंने कहा कि सिर्फ कब्रिस्तानों में ही रोशनी क्यों, शमशानों पर भी तो दीपक जलाने का हक बनता है। शकील ने आश्चर्य से कहा कि शमशानों पर क्यों? मैंने पूछा कि मुस्लिम बने कितना अरसा हुआ है? करीब 14 पीढ़ी पहले की बात होगी, किसी ने जवाब दिया। तो क्या जो दफन हुए वही पूर्वज हैं, 14वीं पीढ़ी के पहले के लोग जो शमशान चले गए वे पूर्वज नहीं थे? हम इतिहास की रील को उल्टा चलाते हुए वहा पहुँचे जहा 15वीं पीढ़ी रही होगी। हम सभी एक साथ 15 से 14वीं पीढ़ी बनने की जो भी परिस्थितिया रहीं हैं उसे समझने की कोशिशें तो करें जब परिवार के दो भाइयों के रिश्ते टूटे और रास्ते अलग हो गए। फिर धर्म बदल जाने से सोच नहीं बदल जाती। मजबूरिया हमें विदेशी नहीं बना देतीं। अपने समाज से अलग होना समाज का दुश्मन बन जाना तो नहीं है। हम पंद्रहवीं पीढ़ी से एक-एक कर सारी सलवटों को दूर करते हुए सदियों की साप्रदायिकता के जहरबाद फोड़े में चीरा लगाते हुए इतिहास के जंगल में रास्ता खोजते हुए फिर से इसी मुकाम पर पहुंचे जहा हम गलत रास्ते से आए हुए हैं। हिंदू समाज का एक हिस्सा आज इस्लाम को मानता है तो वह हिंदू समाज का दुश्मन तो नहीं हो गया। हमारा साझा इतिहास, हमारी संस्कृति हमारे मुसलमानों को यह इजाजत नहीं देती कि वे मंदिरों शिवालों को किसी गैर का कहें। वे हमारे पूर्वजों के हैं, आपके हैं। हम सभी साथ ही 12वीं से 17वीं शताब्दी तक इन्हीं मंदिरों, मठों को बचाने के लिए मरे थे, हमारे ही कटे हुए रक्तरंजित सिरों की मीनारें मंदिरों के खंडरों के सामने आक्त्राताओं द्वारा सजाई जाती रहीं हैं। ये 15 पीढि़या हमारी हजारों साल की संस्कृति सभ्यता पर भारी नहीं पड़ सकतीं।
ऐतिहासिक शक्तियों के मद्देनजर किसी का मुसलमान हो जाना, किसी का हिंदू बने रहना वे घटनाएं हैं जिस पर हमारा बस नहीं रहा है, लेकिन अपनी परिस्थितियों, मजबूरियों के साथ अपने सही इतिहास को समझना तो अपने बस में है। मानवीय संबंधों का अंतिम सत्य क्या हमारा हिंदू-मुसलमान होने से ही परिभाषित होता है? जानबूझकर गलत इतिहास पढ़ाने वालों ने हमें वहा का बता दिया जहा के कभी हम थे ही नहीं। इस्लाम तो अमन का पैगाम है। भारत का वह हिस्सा जिसे आज पाकिस्तान के नाम से जाना जाता है इस गलत इतिहास का सबसे बड़ा शिकार बना। सिंधु नदी का वह क्षेत्र जिसने सदियों से मुस्लिम आक्रमणकारियों के अत्याचारों की इंतिहा देखी है, आज उन्हीं हमलावरों को अपना सबसे बड़ा हीरो मानने को मजबूर हुआ जाता है। जिन्ना का पाकिस्तान, कश्मीर, मंदिर मस्जिद विवाद धर्म और इतिहास की गलत समझ के परिणाम हैं। अफसोस, ये गलतिया अल्लामा इकबाल जैसे लोगों से हुई हैं। हमें तो उस दौर की गलतियों से सबक लेते हुए भविष्य का सफर जारी रखना है।
सुलह-समझौते के आधार पर अयोध्या विवाद के समाधान के संदर्भ में जारी बहस आगे बढ़ा रहे हैं आर. विक्रम सिंह
Source: Jagran Yahoo
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