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अगर 21 अक्टूबर को दिल्ली में आयोजित अलगावादियों के सम्मेलन का उद्देश्य कुख्याति अथवा प्रचार हासिल करना भर था तो उन्हें एक बेहद सफल अभियान पर संतुष्ट होना चाहिए। देश की राजधानी में पाकिस्तान समर्थक हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी के अलगाववादी भाषणों से भारत के लोग अचंभित और भयाक्रांत हैं। गिलानी के साथ कंधे से कंधा जोड़कर खड़ी थीं हर चीज का विरोध करने में माहिर बौद्धिक चीयरलीडर अरुंधति राय। हालांकि आयोजकों का ध्यान भारतीय जनमत को प्रभावित करने पर नहीं था। उनका उद्देश्य था कुप्रचार करना। आजादी पर सम्मेलन राजनीतिक कैदियों की रिहाई के संदर्भ में गठित एक संगठन ने आयोजित किया था, जो माओवादी संगठन प्रतीत होता है। यह संगठन भारतीय संघ को टुकड़ों में बांटने वालों को एकता के सूत्र में बांधना चाहती है। इनमें शामिल हैं कश्मीरी अलगाववादी, खालिस्तानी आंदोलन के बचे-खुचे लोग, पूर्वोत्तर राज्यों के अलगाववादी और माओवादी, जो ऐसे हालात पैदा कर रहे हैं जिनमें विभाजनकारी अपने मंसूबों में कामयाब हो सकें। यह कार्यक्रम राजनीतिक स्वार्थ साधने वालों का जमावड़ा था और इसका यही हश्र होना था।
दूसरे, आयोजकों के लिए यह हैरत की बात नहीं थी कि दिल्ली में इस तरह के सम्मेलन का मौखिक विरोध होगा। मेरी उन कश्मीरी हिंदुओं से पूरी हमदर्दी है जो उन लोगों की उपस्थिति से भड़क गए, जिन्होंने 1990 में कश्मीर घाटी में हिंदुओं के भयावह जातीय सफाये की परिस्थितियां तैयार कीं। हालांकि यह तथ्य भी अपनी जगह सही है कि आयोजक लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस में गिलानी के विषैले संदेश के जोशीले विरोध की आस लगाए बैठे थे। कुछ टीवी चैनल आसानी से इनके जाल में फंस गए, जो भारत के उदार प्रतिष्ठान के भोलेपन के संकेतक हैं। इस विषय पर स्पष्ट हस्तक्षेप करते हुए विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने दलील दी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं होती, बल्कि यह अन्य नियमों से बंधी होती है। उदाहरण के लिए भारतीय दंड संहिता ऐसी अभिव्यक्ति को नहीं स्वीकारती जो विभिन्न जातियों और पंथों के बीच वैमनस्य बढ़ाए और राष्ट्र की अखंडता को खतरे में डाल दे। अतीत में, ऐसी हरकतों को राजद्रोह कहा जाता था, लेकिन वर्तमान समय में इसका प्रयोग विघटनकारियों और उनके समर्थकों के भयावह अपराध के रूप में कम ही होता है। ऐसा कभी-कभार तभी होता है जब इन पर अदालत में मुकदमा चलाया जाए और ये दोषी पाए जाएं।
जेटली के दखल के बाद गृहमंत्री पी चिदंबरम ने बयान दिया कि अधिकारी भाषणों का अध्ययन कर यह पता लगा रहे हैं कि इनमें किसी कानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं? सिद्धांत रूप में यह सही है। अगर 2009 के चुनाव प्रचार के दौरान वरुण गांधी को घृणा फैलाने वाले तथाकथित भाषण के लिए पहले जेल में डालकर फिर मामला दर्ज किया जाता है तो गिलानी और अरुंधति राय के खिलाफ आरोप लगाने के लिए दबाव डालने का आधार बनता है।
एक समाचार पत्र में छपी खबर के अनुसार, बुकर प्राइज विजेता अरुंधति राय ने कहा, ‘भारत को कश्मीर से और कश्मीर को भारत से आजादी की आवश्यकता है। बहस की यह अच्छी शुरुआत है। हमें इस वार्ता को आगे बढ़ाना चाहिए और मुझे खुशी है कि नौजवान इस काम के लिए आगे आ रहे हैं, जो उनका भविष्य है।’ यह अलग मसला है कि इस बातचीत में ऐसे दुष्ट तत्व शामिल होंगे जो नारे उछालते हैं, ‘आजादी का मतलब क्या? लाल इलाहा इल इलाहा।’
असलियत में अरुंधति राय का भाषण गिलानी की तुलना में अधिक भड़काऊ था, जिन्होंने आत्मनिर्णय की बेढंगी पंक्तियों को फिर से दोहराया और समाधान के लिए त्रिपक्षीय बातचीत का हथौड़ा मार दिया। वास्तव में, गिलानी ने जोर दिया कि वह भारत के खिलाफ नहीं हैं, किंतु वह आजाद कश्मीर चाहते हैं, जहां शराबखोरी के खिलाफ इस्लामी वर्जनाओं को अल्पसंख्यकों के ऊपर नहीं थोपा जाएगा। यह कहना मुश्किल है कि सम्मेलन में मौजूद पुलिसकर्मी अरुंधति राय द्वारा लक्ष्मण रेखा लांघने की स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता के बारे में किसी फैसले पर पहुंच पाएंगे। विडंबना यह है कि प्रचार के लिए तरसते ये विज्ञप्तिबाज विद्रोह के लिए आरोपित होना चाहते हैं और इसके लिए गिरफ्तारी देने से पीछे नहीं हटते।
एक छोटी-सी, भोली-भाली, मृदभाषी महिला, जो पश्चिम में नोम चोमस्की को चाहने वाले वर्ग की सेलिब्रिटी हैं, को अगर एक पुलिसवाला गिरफ्तार कर ले जाता हुआ दिखाई देगा तो यह घटना टीवी पर अद्भुत नजारा पेश करेगी। इसका हिसाब लगा लिया गया है कि अगर ऐसा होता है तो भारत के लोकतंत्र को फरेबी बताने वाले तमाम लोगों की प्रचार की भूख और बढ़ जाएगी। इसका वैश्विक असर होगा और दुनियाभर से बुद्धिजीवी उनकी रिहाई की मांग जोर-शोर से उठाएंगे। हो सकता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भी उनके पक्ष में खड़े दिखाई दें।
भारत द्वारा कश्मीर पर कथित जबरन कब्जे के खिलाफ आवाज उठाने का साहस दिखाने वाली अरुंधति राय के खिलाफ विद्रोह का केस चलना कश्मीर आंदोलन के लिए बड़ी सफलता होगी, जो अब तक फलस्तीन की तर्ज पर पत्थरबाजी के आंदोलन के बावजूद सफलता हासिल नहीं कर पाया है। कश्मीर में अशांति को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार का मुद्दा बनाने के प्रयास इसलिए सफल नहीं हो पाए, क्योंकि भारत बहुत सी बेहतर चीजों की पेशकश करता रहा है। अब हम आखिरी काम यही कर सकते हैं कि अरुंधति राय को लिऊ श्याबाओ बना दिया जाए और गिलानी को तालिबान को प्यार करने वाली एमनेस्टी इंटरनेशनल का कैदी।
संविधान और कानून के संबंध में जेटली बिल्कुल सही हैं, किंतु अहिंसक अपराधों के लिए विघटनकारियों के खिलाफ अदालती कार्यवाही की उनकी दलील में राजनीतिक समझदारी नहीं है। श्रीनगर में गिलानी अकसर उससे कहीं ज्यादा भड़काऊ भाषण देते रहते हैं जितना उन्होंने दिल्ली में आकर दिया है। यह तथ्य कि यह बयान दिल्ली में दिया गया है, हालात अथवा अपराध को अधिक गंभीर नहीं बना देता। आखिरकार, श्रीनगर और दिल्ली, दोनों ही भारत में ही हैं। विखंडनवाद से दोनों तरीकों से यानी सैन्य और विचारों से निपटा जा सकता है। अपनी बात रखने का माहौल असहिष्णु माओवाद और इस्लामवाद के खिलाफ भारत का सबसे प्रभावी विज्ञापन है।
Source: Jagran Yahoo
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