- 422 Posts
- 640 Comments
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा से पूर्व टाटा उद्योग समूह ने अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय को पांच करोड़ डॉलर यानी करीब ढाई अरब रुपये अनुदान दिया है, जिसका उपयोग हार्वर्ड के एग्जीक्यूटिव शिक्षण कार्यक्रम के भवन निर्माण में किया जाएगा। उस भवन का नाम उचित ही ‘टाटा हाल’ रखा जाएगा। इसी प्रकार महिंद्रा उद्योग समूह के स्वामी आनंद महिंद्रा ने भी हार्वर्ड को लगभग 50 करोड़ रुपये अनुदान दिया है। सर्वविदित है कि इन दिनों यूरोप तथा अमेरिका के विश्वविद्यालय एवं शोध संस्थान ज्यादातर वित्तीय संसाधन चीन और भारत के शोधार्थियों से ही जुटाते हैं। भारत के समृद्ध एवं कुबेरपति यदि इस सामर्थ्य के धनी हो गए हैं कि वे पश्चिमी शोध संस्थानों को
जीवित रखने में मदद कर सकें तो यह संतोष और गौरव का विषय होना चाहिए। जिन देशों और शिक्षा संस्थानों ने कभी भारत की ओर रुझान नहीं किया तथा समानता की दृष्टि से नहीं देखा उन्हीं देशों के विश्वविद्यालय आज हमारे वित्तीय अनुदान के आकाक्षी बन गए हैं, इसमें हर भारतीय को एक विशेष आनंद का ही अहसास होना चाहिए, लेकिन क्या यह जरूरी नहीं है कि दान देने वाला इस बात का भी विचार करे कि उसका धन कहीं भारतीय विचार और उसके हितों के खिलाफ तो प्रयुक्त नहीं किया जाएगा? जिन भारतीय उद्योगपतियों ने हार्वर्ड या उसी प्रकार के अन्य पश्चिमी विचार केंद्रों को अरबों रुपयों की सहायता दी है, क्या कभी उन्होंने भारत में ही ऐसे शिक्षा केंद्र एवं वैचारिक मंथन के संस्थान खोलने में रुचि दिखाई ताकि पश्चिमी शिक्षा और विचार केंद्रों से भी बढ़कर भारत ऐसा विद्या-देश बने जहा पढ़ने के लिए पश्चिम से उसी प्रकार छात्र आएं जैसे भारत के छात्र पश्चिम जाते हैं? यह बात भी छोड़ दीजिए। भारत की संस्कृति, सभ्यता, भाषायी विरासत तथा सामाजिक गत्यात्मकता के प्रति घोर शत्रुभाव से होने वाला शोध यदि भारतीय धन से ही संचालित और नियोजित हो तो क्या इससे बढ़कर कोई विडंबना हो सकती है?
हार्वर्ड विश्वविद्यालय चीन के प्रति अपने शोध एवं शैक्षिक पाठ्यक्रमों का आधार जहा सम्मानजनक और ‘समझदारी से पूर्ण’ रखता है वहीं भारत के प्रति उसके शोध आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहते हैं। भारत संबंधी हार्वर्ड की अधिकाश शोध-विचार-रेखाएं जातीय व महिला उत्पीड़न, संस्कृत भाषा की मृत्यु, सांप्रदायिक हिंदू विचार का प्रतिक्रियावाद, दलित-उत्पीड़न, जनजातीय विद्रोह, माओवादी उभार जैसे बिंदुओं के इर्द-गिर्द अटकी रहती है। हार्वर्ड मूलत: भारत के प्रति अपनी विचार-दृष्टि उस मार्क्सवादी पृष्ठभूमि से पोषित और निर्देशित करता है जिसमें सेक्युलरवाद, मार्क्सीय भारत-दृष्टि तथा सामाजिक विश्लेषण यहा की हिंदू सभ्यता और सास्कृतिक अधिष्ठान को नकारता है।
जो भी भारत की हिंदू विरासत का अंग है उसे हीनभाव से देखते हुए तिरस्कृत करना और उसके विश्लेषण में हिंदू मानस को दास-भाव में लपेट कर निंदित करना हार्वर्ड की विशेषता रही है। कुछ समय पूर्व हार्वर्ड विश्वविद्यालय के लिए निधि संकलन करने के लिए सुगत बोस जब भारत आए थे तो उन्होंने सुभाषचंद्र बोस को फासिस्ट कहा था तथा कश्मीरी अलगाववादियों के प्रति गहरी सहानुभूति रखने वाले लेखों का जिक्र किया था। कुछ भारतीय विचारवान उद्योगपति और उनके संगठन जैसे फिक्की, एसोचैम, अंबानी और महिंद्रा उद्योग समूह से मिले थे। उनका एक ही मंतव्य था कि आप अपनी इच्छा से जहा चाहें दान देने के लिए स्वतंत्र हैं, परंतु एक भारतीय के नाते दान देते हुए यह विचार अवश्य करना चाहिए कि दान प्राप्त करने वाला संस्थान दानदाता के देश और उसकी संस्कृति की अवमानना न करे।
चीन ने अपने दानदाताओं के साथ ऐसी व्यवस्था की है जिसके तहत वहां के प्रत्येक अनुदान के अंतिम उपयोग की पूरी रपट दानदाता तक पहुंचाई जाती है। दूसरे, चीन के दानदाता इस बात का आग्रह रखते हैं कि जिस शिक्षा केंद्र को वे दान देते हैं, उसका नियंत्रण चीनी विद्वानों के हाथ में ही रहे। क्या भारतीय दानदाताओं से इतनी अपेक्षा करना भी अनुचित होगा कि वे अपने अनुदान से विदेशी शिक्षा और विचार केंद्रों को पोषित करते हुए कम से कम भारतीय विचार संपदा को क्षति न होने दें? हार्वर्ड जैसे किसी भी पश्चिमी विश्वविद्यालय में जितने धन से एक पीठ की प्रतिष्ठापना होती है उससे कम खर्च में भारत में विश्वविद्यालय का एक पूरा विभाग संचालित कर सकते हैं। विडंबना है कि भारत के उद्योगपति कभी भी भारतीय विचार-संपदा की रक्षा और उसके उन्नयन के लिए उस क्षमता एवं कौशल के साथ पूंजीनिवेश करते नहीं दिखते जो गुणात्मकता वे भारत में अपने सफल उद्योगों के प्रति दिखाते हैं। यह शुद्ध-सपाट अर्थ-निवेश जब राष्ट्र की मूल आत्मा और उसकी विद्या-भूमि के साथ जुड़ेगा, तभी राष्ट्रधर्म का पालन होगा। कुबेरपति भारत में हमेशा रहे, परंतु भारत-निष्ठ कुबेरपति हों तो बात कुछ और ही होती है।
शताब्दियों के विदेशी आघात और वैचारिक आक्रमण झेलने के बाद भारत अब उस स्थिति में आया है जब उसकी क्षत-विक्षत विचार संपदा पुन: प्रभावी और पुष्ट बनाई जा सके। सरस्वती को सदैव भारतीय विचारवान कुबेरपतियों का संरक्षण मिला है, लेकिन भारत में अभी तक उन शोध केंद्रों का पूर्णत: अभाव दिखता है जो उस नवीन भविष्य का सृजन कर सकें, जो रंग और कलेवर में पूर्णत: भारतीय हो। यह दायित्व सामर्थ्यवान उद्योगपतियों का ही हो सकता है। दुख इस बात का है कि यदि कुछ उद्योगपति विचार के क्षेत्र में कुछ करते दिखते हैं तो उसकी धुरी पश्चिमी होती है, भारतीय नहीं।
Source: Jagran Yahoo
Read Comments