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अहितकारी अधिग्रहण

संपादकीय ब्लॉग
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दक्षिण भारत के प्रख्यात संत तिरूवल्लर की काव्य पंक्तिया हैं, ‘हलवाले अगर अपने हाथ जोड़े रहें तो/अपरिग्रही संत भी मुक्ति न पा सकेंगे।’ संत ही क्यों असंत, राजनेता, अभिनेता, लेखक, कवि, निजी हवाई जहाजों में उड़ता औद्योगिक जगत और पूरा सवा अरब का भारत किसान कर्म की ही रोटी खाता है। कृषि भूमि सीमित है। अंधाधुंध शहरीकरण उपजाऊ भूमि निगल रहा है। औद्योगिक विकास की अनंत क्षुधा भी कृषि भूमि खा रही है। आबादी बढ़ रही है, अन्न की जरूरतें बढ़ रही हैं, लेकिन कृषि भूमि घट रही है। सरकारें औद्योगिक घरानों पर मेहरबान हैं। पश्चिम बंगाल के सिंगुर और नंदीग्राम भूमि अधिग्रहण से जुड़े ताजा किसान संघर्ष हैं।

स्पेशल इकोनामिक जोन के नाम पर लाखों एकड़ जमीन का अधिग्रहण हुआ है। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़, आगरा और मथुरा क्षेत्रों के किसानों का संघर्ष सुर्खियों में है। पुलिस की गोली-लाठी से पिछले हफ्ते ही कई जानें गई हैं, तमाम घायल भी हुए हैं। इस मुद्दे पर संसद ठप रही, राज्य सरकार कठघरे में है। सरकार ने यमुना एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर हजारों एकड़ जमीन एक औद्योगिक समूह के लिए अधिग्रहीत की है। किसान नोएडा की भूमि दर पर मुआवजा माग रहे हैं। सभी दल आंदोलन में कूदे हैं। राजनाथ सिंह, राहुल गाधी और अजित सिंह किसानों से मिल चुके हैं। 25 अगस्त को उत्तर प्रदेश बंद था। ठीक मुआवजे की माग के साथ अंग्रेजी राज के ‘भूमि अधिग्रहण कानून 1894’ में संशोधन की भी माग जुड़ गई है।


काश! भारत के राजनेता भी संवेदनशील होते। कौटिल्य संवेदनशील थे, उनके ‘अर्थशास्त्र’ में राजा पर प्रजाहित की जिम्मेदारी है। कार्ल मा‌र्क्स भी संवेदनशील थे। उनके अर्थचिंतन में श्रमिक की गरिमा है, लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और योजना आयोग के अर्थवेत्ता मोंटेक सिंह अहलूवालिया आदि नीति-नियंता किसान और कृषि को सिर्फ आकड़ा मानते हैं। आखिरकार 116 बरस पुराने भूमि अधिग्रहण कानून में अब तक संशोधन क्यों नहीं हुआ? क्या अलीगढ़-टप्पल के गोलीकांड का इंतजार था। सेज के बहाने लाखों एकड़ जमीन के हड़पने का व्यावसायिक अभियान चला। तत्कालीन ग्राम विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद ने इसे भूमि घोटाला बताया था। कृषि मंत्री शरद पवार ने भी सेज से असहमति जताई थी। सोनिया गाधी ने कृषि भूमि अधिग्रहण पर सतर्क रहने की चेतावनी दी थी।


अधिग्रहण कानून में संशोधन की माग पुरानी है। 2007 में भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में संशोधन का एक विधेयक भी तैयार हुआ था। भूमि अधिग्रहण से प्रभावित लोगों को राहत देने के लिए पुनस्र्थापन व पुनर्वास विधेयक की भी तैयारी थी। 14वीं लोकसभा के अवसान के साथ दोनों विधेयक भी ‘वीरगति’ को प्राप्त हो गए।


अंग्रेजीराज का जन्म कंपनीराज से हुआ था। अंग्रेजीराज ने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में जनहित के साथ कंपनी हित में भी भूमि अधिग्रहण के अधिकार लिए थे, लेकिन यह कानून भी किसी राज्य सरकार को कंपनियों/व्यावसायिक हितों में भूमि अधिग्रहण के लिए मजबूर नहीं करता। सरकारें अपने हित में कंपनी हित को जनहित बनाती हैं। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल के मामले आईने की तरह साफ हैं। 2007 में प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण संशोधन अधिनियम में ‘कंपनी’ शब्द को पूरे तौर पर हटाने का प्रावधान था। बेशक इसमें भी निजी क्षेत्र के लिए मुनाफे का एक सूराख बनाया गया था। निजी क्षेत्र, कंपनी, फर्म को अपनी योजना के लिए सीधे किसानों से रेट तय करके 70 फीसदी जमीन स्वयं लेनी थी। इसके बाद बाकी 30 फीसदी जमीन सरकार द्वारा अधिग्रहीत करके कंपनी को देने का प्रावधान था। यहा सवाल यह है कि सरकार बाकी 30 प्रतिशत जमीन भी जबर्दस्ती क्यों छीने? लेकिन संप्रग सरकार के 2007 के विधेयक में भी व्यावसायिक हित संव‌र्द्धन की ही पैरवी है।


प्रस्तावित विधेयक में भूमि के मालिक और अधिग्रहण से प्रभावित जनजाति आदि वर्र्गो को मुआवजे का अधिकारी माना गया है। अच्छा होता कि प्रस्तावित उद्योग, प्रतिष्ठान आदि के कारण भविष्य की कठिनाइयों के मद्देनजर योजना को निरस्त करने की भी व्यवस्था होती। कृषि राष्ट्र की आजीविका है। ऋग्वेद के ऋषि एक फटेहाल जुआरी से कहते हैं कि व्यसन छोड़ो कृषि करो। किसान कृषिधर्म का नियंता है। वही शोषित है, पीड़ित है और कीटनाशक खाने को बाध्य है। पूंजीपतियों के लिए उसी की जमीन छीनी जाती है। आखिरकार कृषि हित में पूंजीपतियों के प्रासाद क्यों नहीं अधिग्रहीत होते? खेती का अधिग्रहण होता है, लेकिन सेना, अस्पताल या स्कूल के लिए सीमेंट, इस्पात, पत्थर और यथानिर्मित भवनों का अधिग्रहण कभी नहीं होता। प्रथमवरीय चुनाव कार्य के लिए भी ग्रामवासियों के ही वाहन कप्तान कलेक्टर छीनते हैं, किसी उद्योगपति का हेलीकाप्टर बाढ़ जैसी आपदा में भी अल्पकाल के लिए भी अधिग्रहीत नहीं होता।


केंद्र मुक्त अर्थव्यवस्था का हिमायती है। स्वतंत्र प्रतियोगिता मुक्त अर्थव्यवस्था का आधार है। सभी औद्योगिक उत्पादों कार, टीवी, फ्रिज, सेलफोन आदि की कीमतें कंपनिया तय करती हैं। किसान अपने गाढ़े श्रम से तैयार गेहूं, धान का भाव भी स्वयं नहीं तय करता। उसकी कृषि भूमि भी सरकारें छीन लेती हैं, लेकिन कीमत प्रशासन तय करता है। किसानों की लड़ाई में दम है, लड़ाई अन्याय के खिलाफ है।


राजनीतिक दल ‘अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण’ को सिर्फ किसान समस्या मानते हैं। वे कृषि योग्य भूमि के घटते जाने को राष्ट्रीय समस्या नहीं मानते। बुनियादी सवाल किसानों का मुआवजा ही नहीं है, असली सवाल ‘कृषि भूमि संरक्षण’ का है। नगर महानगर हो रहे है, महानगर मेट्रो हो रहे हैं, वे कृषि भूमि ही निगल रहे हैं। अब जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान भिड़ कर बलिदान हो गए हैं तो अधिग्रहण कानून पर सतही बहस चली है। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के मसौदे में कृषि विकास दर को 2 से 4 प्रतिशत करने का लक्ष्य है। योजना का आधे से ज्यादा समय बीत गया, कृषि विकास दर कदमताल ही कर रही है। समुन्नत कृषि ही खाद्यान्न आत्मनिर्भरता की गारंटी है। एक इसी तत्व में ही खाद्यान्न सुरक्षा की गारंटी थी, लेकिन राजनीति मुनाफाखोर निकली।


उत्तर प्रदेश के किसान संघर्ष ने कई बुनियादी सवाल उठाए हैं। सबसे पहला सवाल कृषि भूमि के दीगर किसी अन्य उपयोग के औचित्य से जुड़ा हुआ है। कृषि भूमि घट रही है। सेना, सार्वजनिक अस्पताल, सरकारी स्कूल और राजकीय कार्यालयों के लिए भी यथासंभव ‘कृषि भूमि’ के उपयोग से बचना चाहिए। भूमि का मालिक किसान है, उसकी मागी कीमत पर भी औद्योगिक कार्यों के लिए कृषि भूमि देते समय क्षेत्रीय पर्यावरण, स्थानीय परंपरा आदि का ध्यान रखा जाना चाहिए। औद्योगिक कार्यों के लिए कृषि भूमि न देने का संकल्प लेना चाहिए। सवा अरब लोगों की अन्न आवश्यकता राष्ट्रीय चिंता है। किसान संघर्ष से बने राष्ट्रीय बहस के इस माहौल में कृषि भूमि से जुड़े सभी प्रश्नों पर समग्र विचार होना चाहिए।

Source: Jagran Yahoo

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