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[China’s Policy] चीन का असली चेहरा

संपादकीय ब्लॉग
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आजकल मीडिया में चीन के बहुमुखी विकास की धूम है। निश्चय ही चीन पिछले दो-तीन दशकों में विश्व की एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है। अनुमान है कि अगले साल तक चीन जापान को पीछे छोड़ते हुए विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। नि:संदेह चीन का चहुंमुखी विकास प्रशशनीय है, लेकिन क्या अनुकरणीय भी? शायद नहीं। क्योंकि चीन की इस चकाचौंध के पीछे कुछ कोने ऐसे भी हैं जिनमें घुप अंधेरा है। चीनी शासकों ने मनुष्यता को शर्मसार करने वाले अपने इन कारनामों को आत्मश्लाघा और विकास के बादलों से छिपा रखा है। दुनिया में सबसे ज्यादा फांसी की सजा चीन में दी जाती है। दुई हुआ फाउंडेशन के अनुसार 2005 में चीन में करीब 10,000 लोगों को फांसी की सजा दी गई और 2007 में 6,000 लोगों को। ये सरकारी आंकड़े हैं, असली संख्या इससे कई गुना ज्यादा हो सकती है। एमनेस्टी इंटरनेशल और ह्युंमन राइट्स वाच ने चीन में फंासी दिए जाने वाले लोगों की संख्या पर कई बार आपत्ति जताई है।


‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ के तहत चीनी सरकार का जनसंख्या नियंत्रण अभियान भी दमनकारी है। इस नीति को 1979 में लागू किया गया। इसने चीन के विकास में आश्चर्यजनक भूमिका निभाई, लेकिन इसी के परिणामस्वरूप उपजे कुछ हृदयविदारक पहलुओं को जानें तो शायद ही कोई व्यक्ति इस पॉलिसी की वकालत करे। इस पॉलिसी के शुरू होने के बाद से स्त्रियों के सात-सात महीने के भ्रूण जबरन गिरवा दिए गए। कई स्त्रियों ने डर से खुद को नजरबंद कर लिया था। अनवरत बढ़ती जनसंख्या भारत की मुख्य समस्या रही है, लेकिन हमने इसे रोकने के लिए जो उपाय किए वे जागरूकता और प्रोत्साहन पर आधारित थे। इनमें सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारियों को दो बच्चों के लिए सारी सुविधाएं प्रदान करने जैसे उपाय हैं।


चीनी उत्पादों का डंका दुनिया के हर देश में बज रहा है, लेकिन इस बात पर शायद ही किसी का ध्यान जाता है कि इतनी बड़ी मात्रा में उत्पादन कर रहे चीन में श्रमिकों की स्थिति कैसी है? क्या वहां श्रमिकों के लिए निर्धारित अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन होता है? चीन में जितने भी श्रमिक संगठन हैं, सब चाइना फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन से संचालित होते हैं, जो सरकार द्वारा नियंत्रित यूनियन है। कानूनी रूप से हड़ताल चीन में वैध है, लेकिन इस पर कड़ा प्रतिबंध है। कुल मिलाकर चीन में उत्पादन जितना ज्यादा है, श्रमिकों की स्थिति उतनी ही खराब। मीडिया की स्वतंत्रता को ही लें, भारत में प्रेस को स्वतंत्र रूप से कार्य करने की छूट है, जबकि चीन में 1949 से मीडिया पर चीनी सरकार का पूरा नियंत्रण है। यही कारण है कि 1989 में थियेनमन चौक पर चीनी सेना द्वारा हजारों विद्यार्थियों पर गोली दाग देना आज भी रहस्य के पर्दे में है। अनुमान है कि छात्र आंदोलन के दौरान चीन में 3,000 से ज्यादा लोग मारे गए और इससे ज्यादा घायल हुए। संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव ने इस नरसंहार की कड़े शब्दों में भ‌र्त्सना की, लेकिन चीनी मीडिया ने इस पूरे मामले को गोपनीय बनाए रखा।


चीन में 1952 से लागू परमानेंट रेजिडेंस रजिस्ट्रेशन सिस्टम के तहत कोई भी व्यक्ति बिना पूर्व अनुमति के किसी दूसरे शहर में जाकर नहीं बस सकता। हुकाऊ व्यवस्था के तहत ग्रामिणों को शहरों में जाने से रोका गया, जिससे खेती में लगे हुए लोग अपना रोजगार न छोड़ दें। साथ ही शहर की जनसंख्या वृद्धि पर भी अंकुश रहे। मई 1984 में इस व्यवस्था में थोड़ा परिवर्तन किया गया और अब यह व्यवस्था है कि कोई भी व्यक्ति बीजिंग में तीन दिन भी रहना चाहे तो उसे पहले से रजिस्ट्रेशन करवाना होगा और यदि उससे ज्यादा रहना चाहे तो उसे अस्थायी निवास का परमिट लेना होगा, जो स्थानीय पुलिस स्टेशन से प्राप्त होता है। यह परमिट कड़ी जांच-पड़ताल के बाद जारी किया जाता है। यानी चीन के किसी अत्यंत पिछडे़ इलाके में रहने वाले व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह बीजिंग जैसे शहर में जाकर अपनी जीविका तलाशे। इसके उलट भारत में पिछड़े इलाकों से लाखों की तादाद में रोज लोग दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में पहुंचते हैं और वहीं खप जाते हैं। हमें अपनी विशिष्टता को बरकरार रखते हुए विश्व मानचित्र पर भारत की तस्वीर बुलंद करनी चाहिए, न कि दमन और हनन से विकास हासिल करने वाले चीन के अनुसरण से।

Source: Jagran Yahoo

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