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सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बावजूद 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सरकार मौन है। घोटाले की सयुक्त ससदीय दल से जाच कराने की माग सरकार द्वारा ठुकराए जाने से संसद ठप है। वहीं सर्वोच्च न्यायालय की आपत्ति के बावजूद मुख्य सतर्कता आयुक्त पी.जे. थॉमस अपने पद पर बने हुए हैं। दूरसचार मंत्रालय में सचिव रहे थॉमस घोटाले के सहभागी या मूकदर्शक हैं या नहीं, उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि घोटाले की जाच कर रही सीबीआई के निगहबान बने रहने का उन्हें नैतिक अधिकार कतई नहीं है। उस पर तुर्रा यह है कि सरकार शीर्ष स्तर पर पारदर्शिता और शुचिता होने का दावा करती है। काग्रेस विपक्षी दलों के विरोध को अनावश्यक हड़बोंग बताकर मामले को हलका साबित करना चाहती है। काग्रेस के प्रवक्ता सपूर्ण विपक्ष को माओवादियों का एजेंट बताते हैं।
अभी कुछ समय पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक केएस सुदर्शन की एक अवाछित टिप्पणी को लेकर काग्रेस सहित सेक्युलर मीडिया ने सार्वजनिक जीवन में सयम और मर्यादा का प्रश्न खड़ा किया था, किंतु आश्चर्य है कि काग्रेसी प्रवक्ता की इस अमर्यादित टिप्पणी पर वे मौन हैं। क्यों? काग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाधी पर की गई टिप्पणी सघ परंपरा के खिलाफ थी। इसी कारण सघ और भाजपा ने उससे दूरी बनाने में देर नहीं की, परंतु क्या सार्वजनिक जीवन में सवाद की मर्यादा बनाए रखने की जवाबदेही से काग्रेस और सेक्युलर परिवार के अन्य सदस्य मुक्त हैं? क्या एकतरफा संयम से सार्वजनिक जीवन में संवाद की गरिमा को सुरक्षित रखा जा सकता है?
कांग्रेस के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने कुछ दिन पूर्व संघ को आईएसआई संचालित सिमी के समकक्ष बताया। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिह ने संघ की तुलना लश्करे-तैयबा से की। सघ की तुलना सिमी या लश्करे-तैयबा से करने और भाजपा सहित सभी विपक्षी दलों को माओवादियों का एजेंट कहने पर क्या सार्वजनिक जीवन की मर्यादाएं नहीं टूटतीं? यह दोहरापन क्यों?
वस्तुत: सत्ता तंत्र के दम पर विपक्ष का दमन करना कांग्रेस का इतिहास रहा है। भारतीय लोकतत्र के इतिहास में आपातकाल का दौर एक काला अध्याय है। उस दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित जनसघ और राष्ट्रीय स्वयसेवक सघ के नेताओं को राजद्रोही बताया गया था। जयप्रकाश नारायण सहित विपक्ष के तमाम नेता और सघ के कार्यकर्ता जेल में बद कर दिए गए थे। इतिहास गवाह है कि जब-जब निरंकुशवादी काग्रेस को अपनी कुर्सी खतरे में दिखी है, उसने राष्ट्रहित को ताक पर रख अवसरवादी राजनीति का सहारा लिया और राष्ट्रवादी तत्वों को हाशिए पर डालने के लिए उन पर मिथ्या आरोप लगाए।
महात्मा गाधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के लिए आज भी सघ को समय-समय पर कलकित किया जाता है। उनकी हत्या के बाद गठित न्यायिक आयोगों और न्यायपालिका ने सघ को बेदाग बताया, किंतु उनकी हत्या के 62 साल बीत जाने के बाद भी काग्रेस के पदाधिकारी सघ पर महात्मा गाधी की हत्या का आरोप लगाते हैं। गुजरात की जनता पिछले तीन विधानसभा चुनावों में बार-बार राज्य की कमान नरेंद्र मोदी को सौंपती आ रही है, किंतु काग्रेस समेत सेक्युलर दल उन्हें ‘मौत का सौदागर’ पुकारते हैं। नरेंद्र मोदी का चरित्र हनन करने के लिए स्वयभू मानवाधिकार सगठनों का वित्त और वृत्ति पोषण सेक्युलरिस्ट करते हैं। क्यों?
नरेंद्र मोदी के खिलाफ चलाए गए दुष्प्रचार अभियान की वीभत्सता पिछले कुछ समय से सामने आने लगी है। सेक्युलर कहलाने वाले मानवाधिकारियों और राजनीतिक गिद्धों के दुष्प्रचार के बाद गोधरा नरसहार की प्रतिक्रिया में भड़के गुजरात दंगों की कथित निष्पक्ष जाच के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेष जाच दल ने नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी है। एसआईटी ने गुलबर्ग दंगा मामले में मुख्यमत्री या उनके कार्यालय के सलिप्त होने से साफ इंकार कर दिया है। दंगे मे मारे गए काग्रेसी सासद एहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने हालाकि अपने बयान में मुख्यमत्री के शामिल होने की बात नहीं की थी, किंतु दंगा पीड़ितों के नाम पर राजनीतिक दलों के वैरशोधन अभियान में शामिल सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की ओर से न्यायालय में दाखिल शपथनामे में यह आरोप लगाया गया था कि सासद की पत्नी के लाख अनुनय-विनय के बावजूद मुख्यमत्री और उनका कार्यालय तटस्थ बना रहा और उनके समर्थन से स्थानीय प्रशासन ने बलवाइयों को खुली छूट दी।
जून, 2003 में जब वड़ोदरा की अदालत ने बेस्ट बेकरी काड के आरोपियों को बरी कर दिया था, तभी से सेक्युलर राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता मुख्य गवाहों को बरगलाकर झूठ के दम पर गुजरात सरकार और नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते आ रहे हैं। तीस्ता सीतलवाड़ के सरक्षण में उक्त फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई गई। सर्वोच्च न्यायालय ने तब मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर करने का आदेश दिया था, किंतु इसके थोड़े ही दिनों बाद स्वय बेस्ट बेकरी की जाहिरा ने तीस्ता सीतलवाड़ पर अपहरण और मानसिक दबाव डालने का आरोप लगाया था, बावजूद इसके सेक्युलरिस्टों का तीस्ता प्रेम टूटा नहीं।
गुजरात दंगों की जाच कर रहे विशेष जाच दल के प्रमुख और सीबीआई के तत्कालीन सयुक्त निदेशक ने तीस्ता की कार्यप्रणाली पर गभीर आपत्ति दर्ज करते हुए अदालत को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वादी द्वारा लगाए गए वीभत्स आरोप झूठे हैं। इन सबके बावजूद नरेंद्र मोदी और भाजपा को कलकित करने की मुहिम बद नहीं हुई। सेक्युलरिस्टों के उत्साहवर्द्धन में काम कर रहीं तीस्ता सीतलवाड़ को गुजरात दंगों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने का दोषी पाया गया है, जिस पर अदालत ने गहरी नाराजगी व्यक्त की है। गवाहों की सुरक्षा के सबध में विशेष जाच दल को लिखी अपनी चिट्ठी की एक प्रति तीस्ता ने जिनेवा स्थित अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सगठन को भी भेजी है। क्या तीस्ता को गुजरात की न्यायपालिका के बाद अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेष जाच दल पर भी भरोसा नहीं रहा? कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि उनका झूठा अभियान अब जनता के सामने नगा होने लगा है? राजनीतिक वैरशोधन के लिए ऐसे सगठनों के दुष्प्रचार और ओछे हथकंडों को पोषित करना काग्रेस का ‘सेक्युलर आतकवाद’ नहीं तो और क्या है?
[बलबीर पुंज: लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं]
Source: Jagran Yahoo
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